समाज

रामजन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद: ना तुम हारे ना हम जीते

-पंकज झा

राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर आया फैसला यूं तो इस मामले का पटाक्षेप नहीं है. एक पक्ष के वकील के अनुसार तीनों जजों ने अपने फैसले में कहा कि विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटा जाएगा. उसका एक हिस्सा – जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है- हिंदुओं को मंदिर के लिए दिया जाएगा. दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया जाएगा और तीसरा हिस्सा मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाएगा. कोर्ट ने फिलहाल तीनों को संपूर्ण विवादित जमीन का संयुक्त मालिक बताया है.

तो जैसा कि दुसरे पक्ष ने कहा भी है कि और जैसा की पहले से लोग मान कर चले भी रहे थे कि खुद को पराजित महसूस करने वाला पक्ष आगे अपील भी करेगा ही. हालाकि इस फैसले में किसी के लिए भी विजित जैसा महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं है. हो सकता है दोनों पक्ष पुनः अपील करने के बारे में सोचे. चुकि अभी के फैसले के अनुसार उसी जगह पर मंदिर और मस्जिद दोनों बनाए जाने की गुंजाइश है तो शायद ही किसी पक्ष के लिए यह फैसला अंतिम रूप से मान्य होगा.

मोटे तौर पर न्यायिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्राणाली में मूलभूत अंतर भी यही है कि जहां कोर्ट से हमेशा दो टुक फैसले सुनाने की अपेक्षा की जाती हैं वही सामान्यतया ‘लोकतंत्र’ सबको खुश करने की बात करता है. संसदीय व्यवस्था में अगर आपकी नीयत सही हो तो सबको साथ लेकर चलने में बुराई भी नहीं है. लेकिन अगर आपने स्वार्थवश किसी तूष्टिकरण का सहारा लिया तब मामला गंभीर हो जाता है. देखा जाय तो उच्च न्यायालय के इस फैसले से इतना तो साबित हो ही गया है कि हिंदू पक्ष का दावा सही था कि सम्बंधित भूमि पर रामलला का अधिकार है. लेकिन जब हम ‘हिंदू पक्ष’ कहते हैं तो मोटे तौर होना तो यह चाहिए था कि यह ‘भारतीय पक्ष’ होता. और मामला हिंदू बनाम मुस्लिम का नहीं बल्कि भारत की गंगा-जामुनी तहजीब बनाम आक्रामक शासकों द्वारा इसको नुकसान पहुचाने के बीच का मामला होता.

प्रसिद्ध लेखक अलबर्ट टायन्वी ने अपने एक चर्चित लेख में ढेर सारे उदाहरणों के द्वारा यह समझाने का प्रयास किया है कि गुलाम रहा कोई राष्ट्र आजादी के बाद सबसे पहला काम यही करता है कि वह बाहरी आक्रान्ताओं द्वारा बनाए किसी भी स्मारक को भंग करें. भले ही देश के सभी नागरिक उसी मज़हब को मानने वाले हों फिर भी राष्ट्र के नाम पर अपना ही उपासना स्थल तोड़े जाने में भी कोई बुराई नहीं है. इस सम्बन्ध में उन्होंने पोलेंड समेत कई देशों का उदाहरण दिया था जहां इसाई मज़हब को मानने के बावजूद लोगों ने आक्रामकों द्वारा बनाए चर्च को स्वयं तोड़ने में देरी नहीं की.

इसी बात के मद्देनज़र भारत की आजादी के बाद सबसे पहले किये जाने वाले कामों में से एक था सोमनाथ में आक्रान्ताओं द्वारा बार-बार लुट कर तबाह किये गए मंदिर के जीर्णोद्धार करने का काम. और उस समय यह किसी एक बनाम दुसरे मज़हब का मामला नहीं था. उसे देश के स्वाभिमान उसके सम्मान से ही जोड़ा गया था. ये तो बुरा हो ‘राजनीति’ का जिसने इसी तरह के एक दुसरे मसले को राजनीति का सबब बना दिया. कई चर्चित फैसले देने के इतिहास वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ पीठ का यह मामले भले ही ‘मंजिल’ नहीं है लेकिन इसे मील का पत्थर तो कहा ही जा सकता है.

लेकिन यह समय न्यायिक फैसले से इतर सोचने का है. दोनों पक्ष चाहे अपील करें. मामला चाहे फिर दशकों के लिए लटक जाय. फिर वर्षों बाद ऐसे ही किसी दिन चाहे कोई नया फैसला आये. तब की सरकार शाहबानो मामले की तरह फिर भी चाहे कोर्ट के ऊपर अपना कोई फैसले लेकर राजनीति करने लगे. इन सब उबाऊ, थकाऊ और उलझाऊ चीज़ों के बाद शायद कभी जाकर ‘ज़मीन’ का फैसला हो पाय. लेकिन असली सवाल तो दिलों के फैसले का है. निश्चित ही सवाल तो आस्था का है.

वास्तव में ‘राम’ इस देश के प्रतीक पुरुष हैं. रहीम, रसखान से लेकर इकबाल तक ने जिस मर्यादा पुरुषोत्तम को भारत का ही पर्याय बता, देश की विविधता भरे तहजीब का गुणगान किया हो अव्वल तो उनको किसी आक्रांता के बरक्स खड़ा कर देना ही मौलिक रूप से गलत है. वास्तव में यह फैसला एक अवसर का रूप ले सकता है अगर सभी पक्ष अभी से थोड़ी समझदारी का परिचय दे कर मामले को न्यायालय से बाहर सुलझा लेने की पहल करे. अब जब विवादित माने जाने वाले स्थल पर राम जन्मभूमि का होना साबित हो ही गया है तब जिद्द के कारण केवल वहां मस्जिद भी बना कर फिर से सदियों के लिए किसी विवाद का नींव रख देने का कोई मतलब नहीं है.

निश्चित ही हर मज़हब के लोगों को अपनी तरह से उपासना करने की आजादी देश का संविधान देता है. सभी बहुसंख्यकों को उनकी इस आज़ादी का सम्मान करना ही चाहिए. लेकिन मुस्लिम पक्षों को यह फैसला एक बार फिर से विचार करने का अवसर देता है कि जिस तरह राम-जन्मभूमि हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र आस्था का केन्द्र है वैसा तो अयोध्या उनके लिए नहीं है. बस यही सोचने की चीज़ है. इस अवसर पर मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि देश में शांति और सौहार्द बना रहे.

देश के समक्ष उत्पन्न अन्य समस्या, वैश्वीकरण के बाद युवाओं के समक्ष उत्पन्न अन्य चुनौतियां मंदिर और मस्जिद से ज्यादे महत्त्व रखता है. लेकिन चुकि यह मामला काफी महत्त्वपूर्ण हो ही गया है तो अब यही निवेदन किया जा सकता है कि सभी पक्ष इस बार बदली हुई परिस्थिति में सौजन्यता और सद्भाव दिखायें. इस तरह कोई हारेगा नहीं बल्कि देश जीतेगा. देश का संविधान, इसकी अनेकता में एकता की पहचान, राष्ट्र का गौरवमयी इतिहास, ईद की सेवइयां और होली की मिठास मिल बैठ कर खाने वाली संस्कृति की विजय होगी. क्या आप हाथ बढाने को तैयार हैं