हमारा राष्ट्रीय पराक्रम का प्रतीक राम मंदिर

किसी भी राष्ट्र को तेजस्विता उसके तेजस्वी नेतृत्व से प्राप्त होती है। यदि नेतृत्व अभाहीन है या अपने आप को ही स्थापित करने के प्रति लापरवाह है या अपने अतीत के गौरव को प्रस्तुत करने में भी उसे शर्म की अनुभूति होती है तो राष्ट्र की आत्मा कांतिहीन होने का आभास देने लगती है । यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारतवर्ष में स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात जो नेतृत्व उभर कर सामने आया ,उसे अपने आप को अर्थात भारत की आत्मा को ही प्रस्तुत करने में लज्जा की अनुभूति होती थी। आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर उसने निजता की धज्जियां उड़ा दीं,अस्मिता को नीलाम कर दिया और राष्ट्र की आभा को आभाहीन करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। यद्यपि भारत के बारे में यह बात पूर्णतया सत्य है कि भारत की आत्मा में पुनरुज्जीवी पराक्रम का ऐसा संस्कार निहित है जिसने इस सनातन राष्ट्र को कभी पुरातन नहीं होने दिया। यह पुरातन होकर भी नूतन बना रहा और अपनी नूतनता का आभास देते हुए लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता सदा प्राप्त किए रहा।
जिसे हम गुलामी का काल कहते हैं उसमें भी इस जीवंत और सनातन राष्ट्र ने जीवंतता के अनेक आयामों को स्पर्श करने का ऐतिहासिक कार्य किया। जब भारत के राष्ट्र मंदिर अर्थात राम मंदिर को एक विदेशी आक्रमणकारी बाबर ने तोड़ने का दुस्साहस किया था तो उस समय इस राष्ट्र ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए लाखों का बलिदान दिया था। इसने अपनी जीवंतता और सनातनता का परिचय देते हुए बलिदानों की झड़ी लगा दी और प्रतीक्षा व परीक्षा दोनों में उत्तीर्ण होने के लिए 500 वर्ष तक निरंतर प्रयास करने की सतत साधना की। इसने लड़ाई लड़ी ,बलिदान दिए, तपस्या की, साधना की और अंत में अपने आप को उस समय बहुत ही शांत भाव से विजयी घोषित किया जब देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त 2020 को राम मंदिर की राष्ट्र मन्दिर के रूप में आधारशिला रखी। जिस समय प्रधानमंत्री ने इस राष्ट्र मंदिर की आधारशिला रखी थी, वे क्षण सचमुच ऐतिहासिक क्षण थे। क्योंकि उन क्षणों में राष्ट्र ने अपने आप से अपने आप बातचीत करने का अवसर खोजा था। उसने अपनी अस्मिता को, अपनी निजता को और अपनी आभा को फिर से मुखरित होते हुए देखा। उसने मौन रहकर उन सभी क्रांतिकारी वीर वीरांगनाओं को और उनके बलिदानों को श्रद्धांजलि अर्पित की जिन्होंने लाखों की संख्या में दर्जनों युद्धों में इन क्षणों को लाने के लिए अपने बलिदान दिए थे।
उन क्षणों में हमने इतिहास की एक परिक्रमा पूर्ण की थी और फिर से नई ऊंचाइयों को छूने के लिए नए आगाज का संदेश और संकेत किया था। हमने श्रीराम की मर्यादा को नमन किया था। राम के आदर्शों को स्मरण किया था। राम की उच्चता और महानता को सारे राष्ट्र ने झुक कर प्रणाम किया था । सारे राष्ट्र ने अपने दिव्य और भव्य मर्यादा पुरुषोत्तम को अपना आदर्श स्वीकार कर सहज रूप में संकल्पित होकर उन्हें यह विश्वास दिलाया कि अब हम आतंक के विरुद्ध उसी प्रकार कटिबद्ध होकर खड़े होंगे जिस प्रकार आपने अपने जीवन काल में आतंकियों और राक्षसों का संहार किया था । हमने अपने मर्यादा पुरुषोत्तम से कह दिया था कि भगवन ! हम आपको यह भी विश्वास दिलाते हैं कि एक गाल पर चांटा खाकर दूसरे गाल को आगे करने की मूर्खताओं के दिन अब लद चुके हैं। अब हम फिर इस बात को लेकर संकल्पित होते हैं कि :-

विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीत।
लक्ष्मण बाण संभालेहु भय बिन होय न प्रीत।।

आज जब भगवान श्री राम जी का मंदिर बनने के अपने अंतिम चरण में है तब सारा देश ही अपने भीतर नव प्राणों का संचार होता हुआ अनुभव कर रहा है। 500 वर्ष से अयोध्या अपनी जिस दिव्यता और भव्यता के लिए तरस रही थी, आज उसे मोदी योगी के यशस्वी नेतृत्व के चलते अपनी दिव्यता और भव्यता की पुरातन अनुभूति हो रही है। अयोध्या में जलते हुए दीपों को देखकर सारा देश दीप्तिमान हो रहा है। सारे भूमंडल को लग रहा है कि भारत उठ खड़ा हुआ है- अपनी दिव्य संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए, उसकी रक्षा के लिए, उसे पुनः वैश्विक संस्कृति बनाने के दिव्य संकल्प के साथ। जब किसी राष्ट्र के जीवन में इस प्रकार के क्षण आते हैं तब समझिए कि वह लंबी दूरी तय करने का संकल्प धारण कर चुका है। परिवर्तित भारत परिवर्तित परिस्थितियों में आज बहुत कुछ कह रहा है। राम मंदिर का निर्माण सचमुच हमारी देशभक्ति का प्रमाण है। अपनी संस्कृति की रक्षा के प्रति समर्पित होने और अपने महान क्रांतिकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के क्षणों में जितना अधिक अपनी आंतरिक शक्तियों को जागृत कर लिया जाए उतना कम है। इसलिए राम मंदिर के निर्माण के इन क्षणों में जलने वाले प्रत्येक दीप को अपनी आंतरिक शक्तियों के साथ समन्वित करना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कार्य और दायित्व है। उसे यह अनुभव करना चाहिए कि जैसे एक दीप के साथ एक बलिदानी उसकी आत्मा के साथ समन्वित हो चुका है और मैं अपने कृतज्ञ हृदय में आत्मा की गहराइयों से उसके साथ समन्वित होकर उसे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं।
जब हम मात्र 4 वर्ष के संक्षिप्त से काल में अयोध्या का आमूल चूल परिवर्तन होते देख रहे हैं तो समझिए कि हमने 500 वर्ष की अपनी सारी मलीनता को धोकर सरयू में बहा दिया है। रामचंद्र जी संकरी गलियों के जाल से मुक्त होकर आज जिस विशालता और भव्यता को प्राप्त होकर स्थापित हो रहे हैं, वह हमारी चिरकाल की साधना का परिणाम है। जब रामचंद्र जी की प्रतिमा को हमने ऊंची ऊंची सलाखों के भीतर डरे और सहमे हुए राष्ट्र के रूप में बाधित और बंधित होते देखा था तब नहीं लगता था कि कभी इन्हें खुली हवाओं में भी स्थापित किया जा सकेगा पर आज हमारा राष्ट्रीय सांझा संकल्प हमसे ऐसा कुछ करवाने में सफल हो गया है जो कभी अकल्पनीय और अविश्वसनीय लगता था। वर्तमान में 90 फीट चौड़ा आधुनिक सुविधाओं से युक्त पथ हमारी आस्था की कहानी को सुर्ख कर रहा है। आज हमने अपनी अयोध्या नगरी को फिर उसी प्रकार सुसज्जित किया है जो उसकी गरिमा अनुकूल है। सचमुच आज अयोध्या के इस सौंदर्यकरण को देखकर लग रहा है कि जैसे इसे देखने के लिए एक बार फिर मनु महाराज, महाराज रघु ,राजा दशरथ और उनकी वंश परंपरा के अनेक सम्राट तथा इसे अंतिम बार पूर्ण रूप से सजाने वाले महाराजा विक्रमादित्य भी हमारे बीच आ उपस्थित हुए हैं।
गंदे नालों में परिवर्तित हो चुकी राम की पैड़ी को अब लगभग 50 करोड रुपए की लागत से पूरी भव्यता प्रदान की गई है। मठ मंदिरों में भी पुरानी आभा लौट रही है । सौर ऊर्जा से पार्किंग में नई रोशनी बिखर रही है। रामनगरी का नयाघाट चौराहा जो कि अब लता मंगेश्कर चौक के नाम से प्रसिद्ध है, अब अपने नए स्वरूप में दिखाई दे रहा है। नयाघाट चौराहा पहले मात्र 30 फीट चौड़ा हुआ करता था, जिसे नई योजना में ढालते हुए 100 फीट चौड़ा किया जा चुका है।
इस सब के उपरांत भी हमें यह ध्यान रखना होगा कि अभी हमें बहुत कुछ करना है और बहुत आगे जाना है। इतिहास बड़ी-बड़ी अपेक्षाओं के साथ हमारी ओर देख रहा है। आज इतिहास स्वयं चलकर हमारे आंगन में खड़ा होकर अपने पृष्ठों पर अपने आप बहुत कुछ उकेर रहा है वह जो कुछ लिख रहा है वह हमारे भव्य को दिव्य बनाने का संकल्प है। याद रखें कि दीप जल तो उठे हैं, पर हवाओं की फितरत में भी शरारत है। वह क्या कब कर गुजरें ? कुछ कह नहीं सकते। इसलिए सावधान भी रहना होगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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