रामभद्राचार्य श्रीराम के अद्भुत शिल्पकार एवं व्याख्याकार

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जगतगुरु रामभद्राचार्य अमृत महोत्सव
-ललित गर्ग-

देश में कितने ही पवित्र संत, गुरु, ऋषियों ने अपने दैवीय शक्ति, आनंद, प्राचीन ग्रंथों के ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान के साथ दुनिया को अलौकिक एवं चमत्कृत किया है, परम सत्ता से साक्षात्कार के लिये अग्रसर किया है। इनमें श्रद्धेय पद्म विभूषण जगतगुरु रामभद्राचार्य महाराज भी हैं, जिन्होंने श्रीरामचरित मानस एवं श्रीमद्भागवतजी का ऐसा प्रचार प्रसार किया और एक ऐसी आध्यात्मिक लहर चलायी है जिसने हर इंसान का जीवन ही बदल दिया है। अयोध्या में प्रभु श्रीराम के मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा से पूर्व उनका अमृत महोत्सव भव्य रूप में आयोजित हो रहा है। टेंट से निकाल कर प्रभु को मन्दिर में प्रतिष्ठापित करने का श्रेय जिन महाशक्तियों को दिया जाता है, उनमें वे अग्रणी है और उनकी भूमिका अस्मिरणीय हैं।
दो वर्ष की आयु से ही नेत्रहीन जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्यजी का नाम हिंदू समाज में बड़े ही आदर सम्मान के साथ लिया जाता है। रामभद्राचार्यजी रामानंद संप्रदाय के चार प्रमुख जगद्गुरुओं में से एक हैं। हिंदू धर्म में साधु-संतों का खास महत्व रहा है। वे एक सच्चे, अद्वितीय और तपस्वी संत हैं, जिन्होंने अपने प्रवचनों और ज्ञान के भंडार से भक्तों को सही मार्ग बताकर उनके जीवन का उद्धार किया है। उन्होंने अपने गहन प्रेम और भक्ति के सहारे न केवल अपने प्रभु श्रीराम एवं बिहारीजी से स्वयं साक्षात्कार किया बल्कि अपने भक्तों को भी उनसे मिलवाया। एक अद्भुत छवि, एक अद्भुत जीवन, एक अद्भुत संत, एक विलक्षण कथावाचक के रूप में उनका जीवन तनावों की भीड़ में शांति का सन्देश है, समस्याओं एवं परेशानियों के बीच मुस्कुराहट का पैगाम है, चंचल चित्त के लिये एकाग्रता एवं प्रभु श्रीराम एवं श्रीकृष्ण-भक्ति की प्रेरणा है। वे दुनियाभर के कई लोगों के लिए एक आध्यात्मिक नेता और गुरु हैं। विश्व के अनेक राष्ट्रों सहित भारत में उनकी 1275 से अधिक श्रीराम चरितमानस एवं 1115 श्रीमद्भागवत पर कथाएं सम्पन्न हुई हैं। भारतीय वांगमय के लगभग डेढ़ लाख पृष्ठों का लेखन आपने किया है। उनके मस्तिष्क में डेढ़ लाख से अधिक श्लोक रचनाएं रची-बसी हैं। वे एक घंटे में सौ से अधिक श्लोक एवं चौपाइयां बनाने की क्षमता रखते हैं। हिन्दू संस्कृति और आध्यात्मिकता के बारे में उनका ज्ञान लोगों को आत्म-प्राप्ति और सर्वोच्च शक्ति के करीब महसूस करने में मदद करता है। वे अपने मधुर भजनों को सुनाते हैं, तो वह भक्तों को दिव्य शांति और प्रेम (भक्ति) की अनूठी दुनिया में ले जाता है
जगद्गुरु रामभद्राचार्य का जन्म 14 जनवरी 1950 को जौनपुर के उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका वास्तविक नाम गिरिधर मिश्र है। बचपन में ही आंख जाने के बाद उनके सामने समस्याएं काफी अधिक थीं। लेकिन उन्होंने अपनी शारीरिक विकलांगता को अपनी ताकत बनाया। दादा ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा दी। रामायण, महाभारत, विश्रामसागर, सुखसागर, प्रेमसागर, ब्रजविलास जैसे किताबों का पाठ कराया। विलक्षण प्रतिभा के धनी गिरधर ने महज तीन साल की उम्र में अपनी पहली रचना अपने दादा को सुनाई तो सब दंग रह गए। जब वे पांच वर्ष के हुए तो श्रीमद्भागवत गीता और आठ वर्ष की आयु में श्रीराम चरितमानस को पूरी तरह कठंस्थ कर लिया था। रामभद्राचार्य महान् शिक्षक, संस्कृत विद्वान, बहुभाषाविद, महामनीषी, कवि, लेखक, पाठ्य टीकाकार, कथावाचक, दार्शनिक, संगीतकार, गायक, नाटककार के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने संत तुलसीदास के नाम पर चित्रकूट में एक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान तुलसी पीठ की स्थापना की। वे चित्रकूट में ही जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन चांसलर हैं। रामानंद संप्रदाय के चार जगद्गुरु में से वे एक हैं। वर्ष 1988 में उन्होंने यह पद धारक हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा एवं दैवीय क्षमताओं का हर कोई कायल है। वे अपने असाधरण कार्यों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन मानव कल्याण को समर्पित किया। नेत्रहीन होते हुए भी उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से कई भविष्यवाणियां की जिनमें कई सत्य हुई। वे केवल सुनकर ही सीखते हैं और बोलकर अपनी रचनाएं लिखवाते हैं। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से, दैवीय शक्ति से प्रभु श्रीराम के जीवन के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं। आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है आपका प्रभु से सीधा साक्षात्कार होता रहता है।
जुलाई 2003 में रामभद्राचार्य ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में श्रीराम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद मामले के अन्य मूल मुकदमा संख्या 5 में धार्मिक मामलों के विशेषज्ञ गवाह के रूप में गवाही दी । उनके हलफनामे और जिरह के कुछ अंश उच्च न्यायालय के अंतिम फैसले में उद्धृत किए गए हैं। अपने हलफनामे में, उन्होंने रामायण, रामतापनीय उपनिषद, स्कंद पुराण, यजुर्वेद, अथर्ववेद सहित प्राचीन हिंदू ग्रंथों का हवाला दिया, जिसमें अयोध्या को हिंदुओं के लिए पवित्र शहर और श्रीराम की जन्मस्थली बताया गया है। उन्होंने तुलसीदास द्वारा रचित दो रचनाओं के छंदों का हवाला भी दिया, जो उनकी राय में, विवाद के समाधान के  लिए प्रासंगिक हैं। पहले उद्धरण में दोहा शतक नामक कृति के आठ छंद शामिल थे, जिसमें मुगल शासक बाबर द्वारा 1528 ईस्वी में विवादित स्थल पर एक मंदिर के विनाश और एक मस्जिद के निर्माण का वर्णन किया गया था, जिसने जनरल मीर बाकी को राम मंदिर को नष्ट करने का आदेश दिया था। जो सनातन धर्मियों द्वारा पूजा का प्रतीक माना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद में रामभद्राचार्य की गवाही सुर्खियां बनी थीं। वेद-पुराणों के उद्धरणों एवं साक्ष्यों के साथ उनकी गवाही का कोर्ट भी कायल हो गया था। श्रीराम जन्मभूमि के पक्ष में वे वादी के तौर पर उपस्थित हुए थे, ऋग्वेद की जैमिनीय संहिता से उन्होंने उद्धरण एवं साक्ष्य दिया था। इसमें सरयू नदी के स्थान विशेष से दिशा और दूरी का बिल्कुल सटीक ब्योरा देते हुए रामभद्राचार्य ने श्रीराम जन्मभूमि की स्थिति बताई थी। कार्ट में इसके बाद जैमिनीय संहिता मंगाई गई। उसमें जगद्गुरु ने जिन उद्धरणों का जिक्र किया था, उसे खोलकर देखा गया। सभी विवरण सही पाए गए। पाया गया कि जिस स्थान पर श्रीराम जन्मभूमि की स्थिति बताई गई, विवादित स्थल ठीक उसी स्थान पर पाया गया। जगद्गुरु के बयान ने फैसले का रुख मोड़ दिया। सुनवाई करने वाले जस्टिस ने भी इसे भारतीय प्रज्ञा का चमत्कार माना। एक व्यक्ति जो देख नहीं सकते, कैसे वेदों और शास्त्रों के विशाल संसार एवं भण्डार से उद्धरण दे सकते हैं, यही ईश्वरीय शक्ति है। रामभद्राचार्य ने श्रीराम मंदिर के उद्घाटन और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा में विपक्षी दलों द्वारा न आने के मुद्दे पर कहा कि यह ‘राजनीति’ नहीं बल्कि मूर्खनीति है।’ राम लला की प्राण प्रतिष्ठा पर शंकराचार्यों द्वारा उठे सवाल पर भी उन्होंने कहा कि मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा शास्त्रों के अनुसार है क्योंकि ‘गर्भ गृह’ पूरा हो चुका है।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य ऐसी संत-चेतना हैं जो स्वयं प्रभु श्रीराम एवं श्रीकृष्ण-भक्ति में जागृत हैं और सबके भीतर उस भक्ति की ज्योति जलाने के प्रयास में हैं। उन्होंने अपने जीवन के 75 वर्ष के अमृतकाल में जो कुछ किया, वह न केवल भारत बल्कि दुनिया के लिये अद्वितीय, आश्चर्यकारी, अतुलनीय एवं अनूठा है। उनका जागता पौरुष, ओजस्वी वाणी, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण-जीवन की सूक्ष्मगूढ़ता, करुणा एवं सबके साथ सह-अस्तित्व का भाव सबके अभ्युदय एवं हिन्दू सांस्कृतिक पुनर्जागरण की अभिप्रेरणा है। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति रसाभिलाषी-भक्तों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, भक्ति का दिव्य रसपान कराकर रसासिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में श्रीमद् भागवत कथा के नायक श्रीकृष्ण एवं श्रीरामचरितमानस के ब्रह्म श्रीराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले जगद्गुरु रामभद्राचार्य आधुनिक युग के परम तेजस्वी संत हैं, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण के व्याख्याकार एवं कथावाचक हैं। वे चलता-फिरता भारतीय आध्यात्मिकता का विश्वकोष हैं। उनकी अद्भुत प्रतिभा, अद्वितीय स्मरण शक्ति और उत्कृष्ट भक्ति जन-जन को प्रेरित करती हैं और करती रहेगी।

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