बलात्कार : स्थितियां कैसे बदलेंगी?


सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

 किसी भी देश की कानून और न्याय व्यवस्था से देश के लोगों के लिये बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये अन्य बातों के अलावा कुछ मूलभूत जरूरतें और योग्यताएं होती हैं। जिनके बारे में लिखने से पूर्व अन्य बातों के बारे में उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है।

 किसी भी प्रकार की शासन व्यवस्था में निवास करने वाले लोगों के लिये कानून और न्याय व्यवस्था की सीधी जरूरत आमतौर पर तब ही महसूस होती है, जबकि उस समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचा अपरिपक्व एवं अपरिष्कृत होने के साथ-साथ न्याय संगत नहीं हो। लोग ऐसी व्यवस्था में जीने को विवश हों जहॉं अन्याय, भेदभाव, मनमानी, गुलामी, शोषण, तिरष्कार आदि अमानवीय तत्व विरासत और संस्कारों में प्राप्त हुए हों। जैसे कि भारतीय समाज में जहॉं पर सम्पूर्ण स्त्री वर्ग, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को हजारों सालों से न मात्र दोयम दर्जे का इंसान समझा गया, बल्कि इन सभी के साथ गुलामों की तरह व्यवहार करने का निर्देश, धार्मिक कहे जाने वाले ग्रंथों में सदियों से लगातार दिया जाता रहा है। धर्म के नाम पर देश की 90 फीसदी आबादी को तिरष्कृत और बहिष्कृत करने के साथ-साथ शोषित किया जाना और इस प्रकार के प्रावधानों वाले ग्रंथों का आज भी खुलेआम प्रकाशन एवं विक्रय करने की स्वतन्त्रता अपने आप में दु:खद आश्‍चर्य और निराशाजनक बात है!

 आज एक निर्दोष लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद सारा देश एक स्वर में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव और स्त्रियों को पुलिस एवं प्रशासन में समान भागीदारी दिये जाने की जरूरत की वकालत करता दिख रहा है। जिसका साफ अभिप्राय है कि स्त्रियों के साथ पुरुष न्याय नहीं कर सकते। स्त्रियों को पुरुषों के न्याय पर विश्वास नहीं है। इसलिये मांग की जाती है कि सरकार और प्रशासन में स्त्रियों का समान प्रतिनिधित्व होना चाहिये। इसी मकसद से संसद, विधानसभाओं और प्रशासन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्‍चित करने के लिये तैंतीस फीसदी आरक्षण का विधेयक संसद के पटल पर वर्षों से धूल फांक रहा है। जिसका सड़कों पर उतर कर उसी मानसिकता के लोग कड़ा विरोध करते हैं, जो आश्चर्यजनक रूप से आज स्त्री को हर हाल में न्याय दिलाने और स्त्रियों का सरकार एवं प्रशासन में समान प्रतिनिधित्व प्रदान करने की मांग कर रहे हैं।

 इस बात से कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि जिन भी वर्गों के साथ सदियों से या हजारों सालों से अन्याय हुआ है, उनको सरकार एवं प्रशासन में समान भागीदारी प्रदान किये बिना, उनके साथ न्याय नहीं किया जा सकता! जिसका सही समाधान तो डॉ. भीमराव अम्बेड़कर द्वारा सुझायी गयी और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वीकार ली गयी, सैपरेट इलक्ट्रोल की व्यवस्था ही थी, जिसे मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी ने अपने दुराग्रहों के चलते नाकाम कर दिया। जिसके बदले में कमजोर तबकों को हमेशा के लिये पंगु बनाये रखने के लिये संसद, विधानसभाओं, प्रशासन और शैक्षणिक संस्थानों में औपचारिक रूप से प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने की संवैधानिक व्यवस्था की गयी, जिसका प्रारम्भ से लेकर आज तक उसी मानसिकता के लोग विरोध करते रहे हैं, जिनके पूर्वजों के अमानवीय, भेदभावमूलक और दुराग्रही व्यवहार के कारण देश की बहुसंख्यक आबादी को हर क्षेत्र में हजारों सालों से वंचित किया जाता रहा है और इसी बीमार एवं चालाक मानसिकता के चलते मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी ने सैपरेट इलेक्ट्रोल को छीनने के लिये अनशन को हथियार बना डाला।

 सैपरेट इलेक्ट्रोल का मकसद वंचित वर्गों को संसद, विधानसभाओं, प्रशासन एवं शैक्षणिक संस्थानों में समान प्रतिनिधित्व प्रदान करना है, जो आज तक पूरा नहीं हो सका है, क्योंकि हमारे देश के कर्णधारों ने गॉंधी के कारण सैपरेट इलेक्ट्रोल के बजाय आरक्षण को अपनाया। दुर्भाग्य तो यह है कि आरक्षण को भी संविधान की मंशा के अनुसाद प्रदान नहीं किया जाने दिया जा रहा है। जिसके चलते आज भी देश के किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को न्याय या समानता हासिल नहीं है।

 चूँकि यहॉं प्रस्तुत और विचारणीय विषय स्त्रियों से सम्बंधित है तो स्त्रियों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करने की और स्त्रियों के विरुद्ध अपराध करने वालों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की मांग कथित रूप से हर मंच से की जा रही है। लेकिन मेरा मानना है ये दोनों बातों तब तक आंशिक तौर पर भी व्यवहार में सम्भव नहीं हो सकती हैं, जब तक की संसद, विधानसभाओं, प्रशासन और शैक्षणिक संस्थानों में स्त्रियों को सैपरेट इलेक्ट्रोल के जरिये या अजा एवं अजजा की भांति पचास फीसदी आरक्षण प्रदान नहीं कर दिया जाता है। यद्यपि आरक्षण भी इसका स्थायी समाधान नहीं है, लेकिन आरक्षण दे दिए जाने पर स्त्री देश की कुव्यवस्था के लिये स्वयं भी समान रूप से जिम्मेदार होगी।

 लेकिन इन सबसे पहले हमें इस देश से ऐसे समस्त साहित्य को हमेशा-हमेशा के लिये नष्ट करना होगा, जो स्त्रियों या मानव-मात्र में विभेद करने को महिमामण्डित करता हो या जो ऐसा किये जाने को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मसर्थन करता हो! या किसी भी व्यक्ति या वर्ग या जाति या लिंग को कमतर या हीन मानव सिद्ध करता हो, बेशक ऐसा साहित्य धार्मिक या किसी भी पवित्र समझे जाने वाले ग्रंथ का हिस्सा ही क्यों न हो! क्योंकि किसी भी देश का साहित्य, उस देश की संस्कृति को जन्म देता है और संस्कृति समाज का निर्माण एवं संचालन  करती है। किसी भी समाज की संस्कृति अपने लोगों के समाजीकरण एवं दैनिक आचार-व्यवहार को जन्म देती है और उन्हें आजादी प्रदान करती है या उन्हें नियन्त्रित करती है। व्यक्ति का गलत या अच्छा समाजीकरण उसके अवचेतन मन में संस्कृतिजनित धारणाओं की स्थापना करता है। गलत समाजीकरण व्यक्ति के अवचेतन मन को रुग्ण या भेदभावमूलक बनाता है। व्यक्ति को बुराईयों या नकारत्मकता का अनुसरण करने को उत्प्रेरित करता है, जबकि इसके विपरीत अच्छा और निष्पक्ष समाजीकरण व्यक्ति को सकारात्मकता और अच्छाईयों की ओर अग्रसर करता है। अंतत: जिस समाज में जैसे व्यक्ति होते हैं, वैसा ही समाज और देश का व्यावहारिक चरित्र होता है।

 भारत में धर्म-ग्रंथों एवं साहित्य से जन्मी संस्कृति में निम्न प्रकार की शिक्षाओं के आधार पर समाजीकरण प्राप्त करने वाले व्यक्ति और नागरिक किस प्रकार के होने चाहिये, इस बात का प्रमाण समाज में कहीं भी देखा जा सकता है:-

 ॠग्वेद : ८/३३/१७-‘‘स्त्री के मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता। उसकी बुद्धि तुच्छ होती है।’’

ॠग्वेद : १०/९५/१५-‘‘स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती। इनके दिल लकड़बग्घों के दिलों से क्रूर होते हैं।’’

अथर्ववेद के एक मंत्र (१८/३/१) के अनुसार स्त्री को मृत पति की देह के साथ जल जाना चाहिये।

ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रंथ : ७/३/१-‘‘कृपण्र ह दुहिता’’ अर्थात् पुत्री कष्टप्रदा, दुखदायनी होती है।

ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रंथ के उक्त अंश का भाष्य करते हुए एक पुराने और विद्वान कहे जाने वाले भाष्यकार, सायणाचार्य ने एक प्राचीन श्‍लोक उद्धरित किया है :

‘‘संभवे स्वजनदु:खकारिता संप्रदानमयेऽर्थदारिका|

यौवनेऽपि बहुदोषकारिका दारिका हृदयदारिका पितृ॥

जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार किया है :

‘‘जब कन्या उत्पन्न होती है, तब स्वजनों को दुख देती है, जब इसका विवाह करते हैं, तब यह धन का अपहरण करती है। युवावस्था में यह बहुत सी गलतियां कर बैठती है, इसलिये दारिका अर्थात् लड़की, अपने पिता के हृदय को चीरने वाली कही गयी है।’’

ईसा से लगभग 800 वर्ष पहले आचार्य यास्क ने ‘निरुक्त’ नामक एक ग्रंथ लिखा था| जिसका वैदिक साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान है| इन निरुक्त (निरुक्त, अ. ३, ख. ४) में बेटी के विषय में लिखा है :

‘‘बेटी को दुहिता इसलिये कहा जाता है कि वह ‘दुर्हिता’ (बुरा करने वाली) और ‘दूरेहिता’ (उस से दूर रहने पर ही भलाई) है| वह ‘दोग्धा’ (माता-पिता के धन को चूसने वाली) है|’’

मुनस्मृति में स्त्री के बारे में :

पुरुषों को खराब करना स्त्रियों का स्वभाव है। अत: बुद्धिमानों को इनसे बचना चाहिये। पुरुष विद्वान हो, चाहे अविद्वान, स्त्रियां उसे बुरे रास्ते पर डाल देती हैं। चाहे माता हो, चाहे बहन हो, चाहे अपनी लड़की हो इनके पास एकान्त में नहीं बैठना चाहिये। ललाई लिये भूरे रंगवाली, छ उंगलियों वाली, ज्यादा बालों वाली, बिना बालों वाली, ज्यादा बोलने वाली और जिनका कोई भाई नहीं हो ऐसी स्त्रियों से विवाह न करें। (लेकिन मनु ने यहॉं यह नहीं लिखा उनके द्वारा गिनाई गयी स्त्रियों से यदि कोई भी पुरुष विवाह नहीं करेगा, तो ऐसी हालत में अविवाहित रहने वाली स्त्रियॉं क्या करेंगी? क्या वे आत्महत्या कर लें? क्या वे आजीवन अपने माता-पिता के घर पर ही रहें? क्या वे पेशा करने वाली वेश्या बन जायें?) स्त्रियों को घर के और धर्म के कामों में इतना व्यस्त रखा जाये, जिससे वे खाली नहीं रह सकें। स्त्रियों को बचाकर रखना चाहिये, क्योंकि वे सुन्दर या कुरूप का ध्यान रखे बिना किसी भी पुरुष पर मोहित हो सकती हैं। स्त्रियों में क्रोध, कुटिलता, द्वेष और बुरे कामों में रुचि स्वभाव से ही होती है। स्त्रियॉं मूर्ख और अशुभ होती हैं, इसलिये उनके वेद संस्कार नहीं करने चाहिये। विधवा स्त्री का पुनर्विवाह करने से धर्म का नाश होता है।

चाणक्य के स्त्री के बारे में विचार :

अग्नी, पानी, स्त्री, मूर्ख व्यक्ति, सर्प और राजा से सदा सावधान रहना चाहिये। क्योंकि ये सेवा करते-करते ही उलटे फिर जाते हैं। अर्थात् प्रतिकूल होकर प्राण हर लेते हैं। स्त्रियॉं एक के साथ बात करती हुई दूसरे की ओर देख रही होती हैं और दिल में किसी तीसरे का चिन्तन हो रहा होता है। इन्हें किसी एक से प्यार नहीं होता। स्त्रियॉं कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती। झूठ, दुस्साहस, कपट, मूर्खता, लालच, अपवित्रता और निर्दयता स्त्रियों के स्वभाविक दोष हैं।

पंचतंत्र आदि प्रसिद्ध व रोचक ग्रंथों में ऐसी अनेक कथाएं हैं, जिनका मूल उद्देश्य स्त्री को मूर्ख और मूढ सिद्ध करना है|

शृंगारशतक के 76वें पद्य में लिखा है :

‘‘स्त्री संशयों का भंवर, उद्दंडता का घर, उचितानुचित काम की शौकीन, बुराईयों की जड़, कपटों का भण्डार और अविश्‍वास की पात्र होती हैं। महापुरुषों को सब बुराईयों से भरपूर स्त्री से दूर रहना चाहिये। न जाने धर्म का संहार करने के लिये स्त्री की सृष्टि किस ने कर दी।’’

शंकराचार्य : स्त्री नरक का द्वार है।

तुलसीदास : ढोल गंवार शूद्र पसु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।

रंडी और रांड :

स्त्रियों के लिये आम बोलचाल में दो शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं-रंडी और रांड। शिक्षार्थी हिन्दी शब्दकोश में रंडी का अर्थ इस प्रकार है :

‘‘1. धन लेकर व्यभिचार करने वाली स्त्री, वेश्या। 2. विधवा।’’

जबकि पंजाबी भाषा में रंडी का अर्थ एक साथ विधवा और वेश्या वाचक माना गया है।

इसी प्रकार से वृहत हिन्दी शब्दकोश में रांड का अर्थ-वेश्या और विधवा दोनों बतलाया गया है।

इस प्रकार विधवा और वेश्या के लिये एक ही शब्द का प्रयोग किया जाना इस बात का संकेत है कि विधवा और वेश्या एक समान हैं। इसकी पुष्टि काशी में प्रचलित इस लोकोक्ति से होती है, जिसमें कहा गया है कि-

 ‘‘रांड सांड सीढी सन्यासी, इन से बचे तो सेवे काशी।’’

 भारत में इस प्रकार के (अमानवीय और कुटिल) धार्मिक प्रावधानों की अनन्त शृंखला है। जिसे लिखते ही अनेक कट्टर हिन्दूवादी और संस्कृति के कथित संरक्षक यह राग अलापने लगते हैं कि मूल हिन्दू ग्रंथों में उक्त प्रावधान हैं हीं नहीं!

 तो फिर मेरा सवाल ये है कि वे इन गलत प्रावधानों को गलत सिद्ध करके, इन्हें निकलवाकर मूल ग्रंथों की पवित्रता की रक्षा क्यों नहीं करते हैं?

 दूसरा सवाल यह उठाया जाता है कि धर्मग्रंथों के इन प्रावधानों को सार्वजनिक करने वाले लोग विदेशियों और विधर्मियों के इशारों पर हिन्दूधर्म और संस्कृति को बदनाम करने और अन्य धर्मों को बढावा देने के लिये काम कर रहे हैं। इसलिये इस प्रकार के लेखक धर्मद्रोही और देशद्रोही हैं, जिन्हें भारत में जीने का कोई हक नहीं है। लेकिन इनमें से किसी में भी अपने पूर्वजों के कुकर्मों और कड़वे सच को स्वीकार करके सकारात्मक सुधार के लिये कार्य करने का साहस नहीं है।

 अन्य बातों पर उपरोक्तानुसार संक्षिप्त चर्चा करने बाद हम फिर से मूल विषय पर लौटते हैं कि किसी भी देश की कानून और न्याय व्यवस्था से बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये अन्य बातों के अलावा कुछ मूलभूत जरूरतें होती हैं। जैसे-

 कानून बनाने, कानून को लागू करने और कानून को क्रियान्वित करने वाले लोगों को अपने देश के संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाजशास्त्र, अपराधशास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का न मात्र ऊपरी-ऊपरी बल्कि विषेशज्ञ के रूप में सैद्धांतिक और व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिये। जिससे कि कानून को बनाते समय, लागू करते समय और क्रियान्वित करते समय किसी भी प्रकार की त्रुटि होने की कोई गुंजाइश नहीं रहे।

 जबकि इसके विपरीत भारत में कानून बनाने, लागू करने और क्रियान्वित करने वाले लोक सेवकों के पास इन विषयों की प्राथमिक जानकारी तक नहीं होती है। ऐसे में, ऐसे लोगों से संविधान एवं न्याय शास्त्र के पवित्र सिद्धान्तों के अनुसार कानून और न्याय व्यवस्था को संचालित करने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसीलिये ये लोग अपने पूर्वजों की ओर से प्राप्त अवचेतन मन के अनुसार संचालित होते हुए कानून और न्याय व्यवस्था का निर्माण एवं क्रियान्वयन कर रहे हैं।

 गम्भीर रूप से विचारणीय विषय है कि हमारे देश में औपचारिक रूप से कानूनों का सृजन (निर्माण) संसद एवं विधानमण्डलों के सदस्यों अर्थात् सांसदों और विधायकों द्वारा किया जाता है। जिनका उक्त विषयों में पारंगत होना तो बहुत दूर, उनके लिये तो शिक्षित होना भी कानूनी तौर पर जरूरी योग्यता नहीं है। अनौपचारिक रूप से कानूनों का सृजन सरकार करती है। जिसके मुखिया सांसद और विधायकों में से ही होते हैं। जिनके लिये भी कानूनीतौर पर किसी भी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता का कानूनी प्रावधान संविधान में नहीं है। ऐसे में कानूनों का सृजन करने की सरकार की वैधानिक ताकत का असल में (दु) उपयोग और उपभोग (मनमाना) करने वाले सचिवों (आईएएस) की सलाह और इशारों पर किया जाता है। जबकि इन सचिवों के लिये भी उक्त में से किसी भी विषय में पारंगतता या प्राथमिक रूप से जानकार होने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं है! ये तो हुई कानून बनाने वालों की वैधानिक स्थिति।

 दूसरे कानून को लागू और क्रियान्वित करने का काम हमारे देश में आईएएस और आईपीएस के नेतृत्व में प्रशासन और पुलिस के द्वारा किया जाता है। जिसकी वास्तविक स्थिति जानने के लिये इतना सा जान लेना ही कम भयावह नहीं है कि पुलिस के सबसे छोटे लोक सेवक-सिपाही (कॉंस्टेबल) से लेकर पुलिस महानिदेशक तक किसी के लिये उक्त उल्लिखित विषयों का ज्ञाता होना तो दूर, इनमें से किसी के भी लिये कानून में स्नातक होना तक जरूरी नहीं है। अर्थात् कानून को लागू करने वाली पुलिस में ऊपर से नीचे तक किसी को ये ही ज्ञात नहीं होता है कि “कानून है, किस चिड़िया का नाम?” फिर भी पुलिस कानून को लागू कर रही है…..? ऐसे में जब मुकदमों की छानबीन और अभियोजन ही दोषपूर्ण होगा तो परिणाम वांछित कैसे प्राप्त हो सकते हैं! इसी वजह से प्रारम्भिक तौर पर स्त्रियों से सम्बन्धित एक चौथाई मामलों में ही आरोपियों को दोषी ठहराया जाता है!

 जहॉं तक प्रशासन का सवाल है तो भूगोल या पशुचिकित्सा या इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त करके आईएसएस की परीक्षा पास करके सचिव पद पर पहुँचने वालों को गृह, विधि, कृषि, उद्योग और वित्त मन्त्रालय के सचिव के रूप में विभाग का संचालन करने के लिये नियुक्त होते हुए आसानी से हर एक राज्य और केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों में देखा जा सकता है। ऐसे में प्रशासन प्रमुखों (सचिवों) के द्वारा कानून का क्रियान्वयन किस प्रकार से किया जा सकता है, इस बात की कल्पना करने की जरूरत नहीं है, बल्कि देश के वर्तमान हालातों को देखें और जान लें कि ऐसा क्यों हो रहा है….?

 इस बारे में आमतौर पर इस कुव्यवस्था के समर्थकों द्वारा एक जवाब दिया जाता है कि पुलिस और प्रशासन को कानून का ज्ञान करवाने के लिये विभाग स्तर पर प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस कारण से उन्हें कानून का पर्याप्त और गहन ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार का कुतर्क पेश करने वालों से मेरा यहॉं प्रतिप्रश्‍न है कि यदि कुछ माह या वर्ष के प्रशिक्षण से पुलिस और प्रशासन को कानून सहित, कानून को लागू करने वाले सभी विषयों में पारंगत किया जा सकता है तो फिर सरकारों द्वारा अनेकानेक विधि-विश्‍वविद्यालयों को संचालित करके समय, श्रम और धन का अपव्यय क्यों किया जा रहा है? जजों की नियुक्ति के लिये क्यों कानून में डिग्री की अनिवार्यता है। उन्हें भी प्रशिक्षित करके ही सब कुछ क्यों नहीं सिखाया जा सकता?

 सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

5 COMMENTS

  1. श्री परशुराम कुमार जी ने तुलसी दास जी के नारी सम्बन्धी विचारों को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया है वह पूर्णतः उचित है.लेकिन कुछ लोगों को इन ग्रंथों की अनर्थकारी ढंग से व्याख्या करने में एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है. उन्हें लगता है की ऐसा करके उन्होंने उच्च जाती वालों को भाल बुरा कहकर अपनी भड़ास निकल ली है. लेकिन किसी भी साहित्यिक रचना में तत्कालीन सामाजिक परिवेश और मान्यताओं के सन्दर्भ ही मिलते हैं. आज तुलसीदास जी को लगभग पांच शताब्दियाँ बीत चुकी हैं. और आज के से स्त्री समानता और आजादी उतनी मात्र में शायद नहीं थी. अतः आज के सवालों को आज के सन्दर्भ में ही देखना चाहिए. न की हजारों वर्ष पुराने वेदों, पुरानों और धर्म ग्रंथों में उल्लिखित कुछ चुनिन्दा (सन्दर्भ से कटे) उद्धरणों के आधार पर. वेद, पुराण और रामायण, महाभारत आदि की आलोचना करने वाले यही करते हैं.परशुराम कुमार जी द्वारा प्रस्तुत व्याख्या संभतः कुछ लोगों की दृष्टि साफ़ करने में सहायक होगी.

  2. तुलसीदास की नारीवादी शोच
    अब तुलसीदास जी की रामचरित मानस को आप लें, और देखें कि उन्होंने नारी जाति के लिए अन्यत्र भी ऐसी अशोभनीय धर्मविरूद्घ और नीति विरूद्घ बातें कही हैं या एक ही स्थान पर ऐसा कहा है? अन्य स्थानों पर हम देखते हैं कि तुलसीदास जी ने नारी को पुरूष की पूरक ही माना है। वेद के शब्दों में उसे पति की पोष्या ही स्वीकार किया है। उन्होंने युग धर्म (जमाने के दौर) के अनुसार पोष्या को दासी शब्द से बांधा है, लेकिन दासी का अर्थ कहीं भी पांव की जूती या ताडऩा की अधिकारी के रूप में प्रयुक्त नही हुआ है। भक्त भगवान का दास है तो उसका अभिप्राय ये नही है कि वह भगवान की ताडऩा अर्थात दण्ड का अधिकारी हो जाता है, बल्कि इसका अभिप्राय है कि वह ईश्वर की करूणा का, तारन का, त्राण का अधिकारी हो गया है, ऐसा माना जाता है। तुलसीदास जी ने भी ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी को तारन का अधिकारी कहा है। ताडऩ शब्द तारन के स्थान पर प्रक्षिप्त हो गया है। वैसे भी हिंदी की ‘र’ ‘ड़’ में और ‘ड़’ ‘र’ में स्थान-2 पर परिवर्तित हो जाती है।
    अब हम इस विषय में थोड़ा रामचरित मानस में तुलसीदास जी के नारी जाति के प्रति दृष्टि कोण पर विचार करते हैं।
    बालकाण्ड (121) में श्रीराम के जन्म लेने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम असुरों को मारकर देवताओं को राज्य देते हैं और अपनी बांधी हुए वेद मर्यादा की रक्षा करते हैं।
    यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि राम वेद मर्यादा का निरूपण करते हैं, अत: राम वेद मर्यादा के रक्षक सिद्घ हुए। वेद पत्नी की मर्यादा का निरूपण करते हुए स्पष्ट करता है:-
    त्वं सम्राज्ञयेधि पत्युरस्तं परेत्य (अथर्व 14/1/43) अर्थात पति के घर जाकर पत्नी घर की महारानी हो जाती है। पत्नी को गृहस्वामिनी कहने की परंपरा भारत में आज तक है। ये परंपरा वेद की ही देन है। करोड़ों वर्ष से हम इस व्यवस्था में जी रहे हैं और इसे ही मान रहे हैं। पत्नी को देहात में घरवाली भी कहा जाता है, उस शब्द का अर्थ भी गृहस्वामिनी ही मानना और जानना अभिप्रेत है। अथर्ववेद (अथर्व 14/1/27) में पति को पत्नी की कमाई खाने से निषिद्घ किया गया है। अत: वेद का निर्देश है कि पति ही पत्नी का पोषण करेगा। वह उसकी कमाई नही खाएगा। यदि तुलसी के राम इसी मर्यादा के रक्षक हैं तो उनके लिए नारी ‘तारन’ की अधिकारिणी ही सिद्घ होती है।
    राम अहिल्या के तारक हैं ताड़क नही
    दशरथनंदन श्रीराम के साथ अहिल्या का जो प्रसंग जोड़ा गया है, यदि उसे सर्वथा उसी रूप में सत्य मान लिया जाए जिस रूप में उसका उल्लेख किया गया है तो भी राम नारी के तारक अर्थात उद्घारक ही सिद्घ हुए। तुलसी का अभिप्राय भी अपने चरितनायक से नारी की ताडऩा कराना नही अपितु तारना कराना ही सिद्घ होता है। अहिल्या राम से कहती है:-
    मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
    राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनाहि आई।
    अर्थात-मैं अपवित्र स्त्री हूं और आप जगत को पवित्र करने वाले, रावण के शुत्र और भक्तों को सुख देने वाले हैं। हे कमल नयन! हे संसार के दुख करने वाले, मैं आपकी शरण में हूं मेरी रक्षा कीजिए।
    तुलसी की अहिल्या प्रभु राम से रक्षा (तारना, त्राण, कल्याण) मांग रही है और प्रभु राम उसे वही दे रहे हैं। राम ने अहिल्या की ताडऩा नही की, अपितु उसकी तारना की और वह त्राण पाकर सकुशल पतिलोक को चली गयी। तुलसीदास ने वेद की मर्यादा के अनुसार यहां भी नारी जाति के प्रति राम का और अपना सही दृष्टिकोण ही प्रदर्शित किया है।
    नारियों के समान अधिकार थे
    रामचरितमानस के अनुसार भी रामायण काल में स्त्रियों को पुरूष के समान ही अधिकार प्राप्त थे। जब जनक जी के यहां से दशरथ सुकुमारों के विवाह की पत्रिका (चिट्ठी) आती है तो राजा दशरथ के लिए रामचरितमानस में आया है-
    ‘राजा सबु रनिवास बोलाई
    जनक पत्रिका बांचि सुनाई।’
    अर्थात राजा दशरथ ने सारे रनिवास को बुलाया और जनक जी की विवाह पत्रिका को पढ़कर सबको सुनाया। यदि नारी के प्रति उपेक्षात्मक, उत्पीडऩात्मक और दमनात्मक दृष्टिकोण उस समय के पुरूष का होता तो राजा कदापि रनिवास को बुलाकर विवाह पत्रिका नही सुनाते। लेकिन इतने शुभ मुहूर्त के समय राजा ने रनिवास को पूर्ण सम्मान देकर वेद की विवाह मर्यादा का पालन किया। नारी के प्रति अपने सहज दायित्व का निर्वाह राजा ने किया। रानियों ने विवाह पत्रिका को सुनकर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की।
    वेद विधान से विवाह संपन्न हुआ था
    राम और सीता के स्वयंवर के विषय में तुलसीदास जी ने कहा है कि–
    करि लोक बेद विधानु कन्या दानु नृत्य भूषन कियो। अर्थात राजा जनक ने लोक और वेद की विधि से कन्यादान किया।
    इसका अभिप्राय है रामचंद्र के विवाह संस्कार के समय वेद के पंडितों ने वेद मंत्रोच्चार करते हुए ही सारा संस्कार संपन्न कराया था। अत: दोनों के लिए ये मंत्र अवश्य आया हेागा—
    ओं गृभ्णामिते सौभगत्वाय हस्तं मया यत्या जर दृष्टिर्यथास: भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्महयंत्वादुर्गाई पत्याय देवा:।। (ऋ 10/85/36)
    इसका अभिप्राय है कि हे वरानने! ऐश्वर्य तथा सुसंतान आदि सौभाग्य की वृद्घि के लिए मैं तेरे हाथ को ग्रहण करती/करती हूं, तू मेरे साथ वृद्घावस्थापर्यन्त सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर।
    तुलसीदास जी ने यहां वेद विधि का उल्लेख कर स्पष्ट कर दिया है कि वैदिक व्यवस्था के अंर्तगत पाणि (हाथ) ग्रहण की जो विधि है, उसको यहां भली भांति पूर्ण किया गया। पाणिग्रहण के समय पति पत्नी एक दूसरे को अपना हृदय सौंपते हैं अथवा एक दूसरे को अपने हृदय मंदिर में प्रेम के देवता के रूप में स्थान देते हैं, एक ऐसा देवता जो सृजन का प्रतीक बनेगा और सुसंतान को देकर वंश की वृद्घि में सहायक बनेगा।
    विवाह से बनते हैं हम श्री और श्रीमती
    विवाह के समय एक दूसरे को हृदय सौंपने की जो परंपरा पति-पत्नी के लिए हमारे यहां है वही उन्हें विवाह के बाद से श्री और श्रीमति बनाती है। श्री उस लक्ष्मी को कहते हैं जो लोकोपकार के लिए काम आती है। लेकिन यहां श्री के कुछ और अर्थ भी हैं। यथा श्री आश्रय के लिए भी कहा जाता है। आज एक दूसरे को हृदय मंदिर में आश्रय देने से ही ये दोनेां वर-वधू श्री और श्रीमति बनते हैं, अब से आगे इनके हृदय में उभर रहे प्रेम के कारण इनके हाथ इतने फैलते चले जाएं कि समस्त वसुधा ही उसमें समा जाए, तभी बनेगा-वसुधैव कुटुम्बकम्। हाथ दान के लिए अर्थात लोकोपकार के लिए भी फैलते हैं और प्रेम के विस्तार के लिए भी फेेलते हैं। दोनों अर्थों से विश्व का कल्याण ही होता है। प्रेम के विस्तार से कृण्वंतो विश्वमाय्र्यम् के आदर्श का विस्तार होता है, इस प्रकार श्री और श्रीमती शब्दों के गूढ़ अर्थ हैं। इन दोनों में भारतीय संस्कृति का निचोड़ (वसुधैव कुटुम्बकम् और कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्) निहित है।
    क्या ताडऩा से यह आदर्श स्थापित हो सकता है?
    रामचंद्र जी का व्याख्यान
    जनक दुलारी सीताजी और उनकी अन्य बहनों के विवाह संस्कार के उपरांत रामचंद्र जी उन्हें आश्वस्त करते हुए कहते हैं–
    ते तुम सबैप्रेम की मूरति सूरति की बलिहारी।
    सिद्घि आदि सब राजकुमारी मोहि प्राणहुं ते प्यारी।।
    तुम सब प्रेम की मूरति हो। तुम्हारी सूरत पर बलिहारी। सिद्घि और तुम सब राजकुमारी मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो।
    वह आगे कहते हैं-हे प्यारी! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा है सो सब मैं आज पूरी करूंगा। हे लाडली! लोक की लाज बचाकर मैं तुमसे अलग नही रहूंगा।
    हे सांवरी! हम सब प्रकार से तुम्हारे हैं और तुम हमारी हो। हे कुमारी! हमारा वचन सत्य मानो।
    तुलसी के राम के इन शब्दों में कहीं ताडऩा नही है। हां, तारना अवश्य झलकती है।
    सीताजी की माता ने कहा-
    विवाह के उपरांत जब दशरथ नंदन अपने परिजनों और प्रियजनों के साथ अयोध्या लौटने लगे तो सीता जी की माता ने कहा था-
    ‘परिवार पुरजन मोहि राजहिं प्रानप्रिय सिय जानिबी’ अर्थात-यह सीता कुटुम्बियों को, नगर वासियों को, मुझको और राजा को प्राणों के समान प्यारी है, ऐसा जानना। इसके शील और स्नेह को समझकर इसे अपनी दासी करके रखना।
    यहां भी दासी का अर्थ भक्त और भगवान के मध्य तारणहारी प्रीति से ही निकालना अपेक्षित है। क्योंकि जिस प्रेमपूर्ण परिवेश में सारा संस्कार पूर्ण हुआ उसमें कोई माता दासी भाव को इस अर्थ में नही कह सकती कि इसे (मेरी बेटी को) जैसे चाहो वैसे मारना पीटना या लताडऩा।
    दशरथ ने क्या कहा-
    श्रीराम जब जानकी के साथ अपने घर पहुंच जाते हैं तो सायंकाल को दशरथ ने रानियों से कहा-
    ‘बधू लरिकनी पर घर आई
    राखेऊ नयन पलक की नाईं।।
    अर्थात ये बहुएं अभी लड़कियां हैं, पराये घर आयी हैं, इनको नेत्र और पलकों की भांति रखना।
    यहां दशरथ बड़ी व्यावहारिक बात कह रहे हैं। सामान्यत: सास अपनी बहू को लड़की ना समझकर प्रौढ़ महिला मान लेती हैं और इसी कारण बहू के प्रति उनका दृष्टिकोण कई बार प्रारंभ से तारना का न होकर ताडऩा का हो जाता है। राजा दशरथ इसीलिए रानियों को समझा रहे हैं, कि बहुओं को अपनी लड़की मानना और उनके प्रति अपना व्यवहार कृपापूर्ण अर्थात तारने वाला ही रखना। इतना कृपा पूर्ण कि आंखों में बसा लेना।
    सुमित्रा ने क्या कहा
    जब राम वन को जाने लगे तो माता सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण से कहा-
    तात तुम्हारी मातु वैदेही,
    पिता रामु सब भांति सनेही।
    अर्थात हे पुत्र! जानकी जी तुम्हारी माता हैं और सब भांति से स्नेह करने वाले राम तुम्हारे पिता हैं।
    तनिक हम विचार करें कि एक नारी दूसरी नारी को (भाभी होते हुए) अपने पुत्र से मातृवत सम्मान दिलाने की बात कह रही है। सम्मान भी राम से पहले, इसका अर्थ स्पष्ट है कि नारी के प्रति तुलसी के हृदय में कितना सम्मान था। माता सुमित्रा यहीं अपने पुत्र को शिक्षा देते हुए कहती है कि गुरू, माता, पिता, भाई, देवता और स्वामी इन सबकी प्राणों के समान सेवा करनी चाहिए।
    भारतीय संस्कृति तो मानती ही ये है कि मातृदेवो भव:-अर्थात माता देवी होती हैं। यत्र नार्यंस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता….। ”इस आदर्श को सामने रखकर जब नारी के प्रति सम्मान व्यक्त किया जा रहा हो तो उसको सदा दण्डित करते रहने की बात सोचना कितना अतार्किक और अक्षम्य है।
    राम का विलाप-
    सियाहरण के पश्चात तुलसीदास ने अपने प्रभु की जो दशा दिखाई है वह भी विचारणीय है, क्योंकि उस दशा को देखकर भी लगता है कि तुलसी नारी के प्रति कितने सहज हैं। राम कहते हैं-
    हे खग, मृग हे मधुकर श्रेनी।
    तुम देखी सीता मृगनैनी।।
    हे मृगो! हे भौंरो की पांति तुमने कहीं मृगनयनी सीता देखी है?
    यदि नारी केवल पांव की जूती होती, और तुलसी उसे केवल ताडऩ की पात्र मानते तो अपने प्रभु राम के मुखारबिंदु से ऐसे शब्द कदापि नही कहलाते। उन्होंने राम से ये शब्द कहलाकर नारी जाति के प्रति पुरूष समाज का असीम स्नेह और दायित्व बोध दर्शाया है। उन्होंने राम से यह नही कहलवाया कि सीता तो पांव की जूती थी खो गयी तो क्या हो गया, दूसरी पहन लेंगे?
    हनुमानजी का उदाहरण
    सुंदरकाण्ड में हनुमान जी सीता को प्रभु राम के विषय में जो बताते हैं कि वह भी ध्यातव्य है। उन्होंने अशोक वाटिका में बैठी सीता को बताया था-श्रीराम जी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मुझे सब वस्तुएं विपरीत हो गयीं हैं। नये पत्ते अग्नि के समान, रात्रिकाल के समान और चंद्रमा सूर्य के समान हैं और कमलवन भालों के समान हो गया है। बादल मानो गरम तेल बरसाते हैं। जो हितैषी थे वही पीड़ा देने वाले हो गये हैं। वायु सांप की फुंकार के समान हो गयी है। कहने से दु:ख कम नही होता है, पर किससे कहूं? यह दुख कोई नही जान सकता। मेरे और तुम्हारे प्रेम का तत्व केवल एक मेरा मन ही जानता है।
    हनुमान जी का राम जी की ओर से माता सीता से यह उपरोक्त कथन केवल कथन नही है। इसमें राम की एक नारी के प्रति प्रेम पीड़ा छिपी है। उस नारी के प्रति जिसे वह अपने हृदय में स्थान देकर श्रीमान बने थे, आज उनकी हृदय मारे पीड़ा के कराह रहा है। क्योंकि जिसे हृदय में स्थान दिया था वही आज उनके पास नही थी। फेरों की रस्म उनके लिए केवल रस्म नही थी, अपितु एक मर्यादा थी और मर्यादा की रक्षार्थ वह अत्यंत व्याकुल थे। उनके लिए विवाह एक संविदा नही था अपितु एक पवित्र संस्कार था, जिसे वह जन्म जन्म का साथ मानते थे। भारतीय संस्कृति इसी संस्कार से निर्मित हुई है। इसलिए इस संस्कार से विपरीत अर्थ निकालना अनुचित होगा। इन सबसे यही सिद्घ होता है कि तुलसीदास का प्रतिपाद्य विषय नारी के नारीत्व की रक्षा करना है, ना कि उसे अपमानित करना। किसी शब्द के प्रक्षेप ने उनकी भावनात्मक मनोदशा का सत्यानाश कर दिया है। जिसे ठीक किया जाना उचित होगा।
    किस प्रसंग में कहा है ताडऩ शब्द?
    जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जाते हैं तो कहा जाता है कि समुद्र उन्हें रास्ता नही दे रहा था, (वास्तव में समुद्र का अर्थ यहां किसी ठेकेदार अर्थात निविदाकार से लेना चाहिए, जिसके क्षेत्राधिकार में संबंधित समुद्री क्षेत्र आता होगा। उसके छोटे छोटे कर्मचारी राम को निकलने नही दे रहे होंगे, लेकिन जब राम ने लक्ष्मण से बाण संभालने की बात कही तो उन लोगों में हड़कंप मच गया और तब उनका उच्चाधिकारी अर्थात निविदाकार वहां पहुंचा होगा) तो तब उस निविदाकार ने प्रभु राम को मनाने का अनुरोध किया। तब उस निविदाकार रूपी समुद्र ने राम से याचना करते हुए कहा कि आप मेरे सब अपराध क्षमा करें।
    यहां समुद्र स्वयं को जड़ बता रहा है और कह रहा है कि इस समय आप अपने कोप को शांत करें। मेरे लोगों से जो अपराध हो गया है उसे क्षमा करें। तब वह कहता है-
    ढोल, गंवार सूद्र पसु नारी।
    सकल ताडऩा के अधिकारी।।
    अर्थात हे राम! ढोल अपनी कसैली आवाज से लोगों को परेशान करता है लेकिन उस पर कोप इसलिए नही किया जाता क्योंकि वह एक जड़ वस्तु है, इसलिए मुझपर भी कोप मत करो। जड़ वस्तु पर कोप करना नीति विरूद्घ है, इसलिए समुद्र जैसी जड़ वस्तु पर कोप करते हुए इसे एक ही बाण से सुखाने की बात मत करो, क्योंकि इससे अनेकों जीवों का विनाश हो जाएगा। इससे पहली चौपाई में समुद्र जड़ वस्तुओं पर क्रोध न करने की बात कह रहा है, और अगली चौपाई में जड़ वस्तु को वह प्रचलित अर्थ के अनुसार दंडित करने की बात कहने लगे तो यह बात जंचती नहीं।
    मेरे लोगों से मूर्खता वश, गंवारूपन से अपराध हो गया है, जिस कारण उन्होंने आपको निकलने का मार्ग नही दिया। उन्हें आपकी शक्ति का अनुमान नही था, इसलिए उन्होंने अपने गंवार होने का परिचय दिया है। उनसे अनजाने में गलती हुई है इसलिए उन्हें क्षमा करें। अत: उन्हें मूर्ख, शूद्र और नारी के समान अपनी कृपा का पात्र बनाओ अर्थात उनके अपराध पर अधिक ध्यान उसी प्रकार मत दो जिस प्रकार शूद्र, पशु और नारी की किसी गलती पर नही दिया जाता है।
    नारी अबला होने के कारण दंड की अधिकारिणी नही है। क्योंकि पौरूष बराबर के बलशाली व्यक्ति से लडऩे में ही दिखाया जाता है। हमारे यहां धनुर्धारी धनुर्धारी से और तलवार वाला तलवार से ही लड़ता था। महाभारत में भी ऐसा ही हुआ था। यह युद्घ का एक नियम था। नारी का सहज स्वभाव है, इसलिए वह युद्घ से दूर रहती है। अत: उसे दण्ड का पात्र नही माना गया है।
    यदि हम इस चौपाई के प्रचलित अर्थ पर ध्यान दें तो पता चलता है कि ढोल, गंवार, शूद्र पशु और नारी तो दण्ड के ही पात्र हैं, इसलिए समुद्र अपने अपराध की क्षमा न मांग कर बल्कि स्वयं को और दण्डित करने के लिए कह रहा है। यह अर्थ प्रसंग के विरूद्घ है, तर्क के विरूद्घ है और भारतीय न्याय व्यवस्था के भी विरूद्घ है, साथ ही प्राकृतिक न्याय के भी विरूद्घ है। प्रसंग क्षमा याचना का है इसलिए क्रोध को शांत कराना याचक का ध्येय है ना कि क्रोधाग्नि को और प्रज्ज्वलित करना। इसलिए याचना को हम एक याचना ही रहने दें, ना कि उसे राम के लिए एक चुनौती बनायें।
    स्वयं राम ने भी इस याचना को स्वीकार किया। यदि यहां समुद्र नारी को ताडऩा की अधिकारी कहता तो राम जैसा नीति मर्मज्ञ मर्यादा पुरूषोत्तम उसका उसी समय नीति संगत विरोध करता। इसलिए यही उचित है कि समुद्र ने ताडऩा की बात न कहकर तारना की बात कही। तुलसीदास जी का भाव भी यही है, लेकिन हमने ही तारना के स्थान पर ताडऩा शब्द प्रयुक्त कर लिया। जिसमें कुछ स्वार्थी लोगों की और संस्कृति नाशकों की सोच भी हो सकती है, या प्रमाद भी हो सकता है।
    परंपरागत लोक न्याय क्या कहता है?
    जब भारत की संस्कृति की वास्तविकता को समझने का कहीं प्रश्न आ उपस्थित हो तो हमें कथित बुद्घिजीवियों की अपनी संस्कृति संबंधी व्याख्याओं और धारणाओं की ओर ध्यान नही देना चाहिए। क्योंकि इनकी बातें उन पश्चिमी विद्वानों की थाली का उच्छिष्टï भोजन होता है जिन्होंने भारतीयता को आंशिक रूप से भी नही समझा और इसके विषय में उल्टा सीधा लिख दिया। उन्होंने भारत के वेदों को ग्वालों के गीत माना और हमारे विद्वानों ने उसका प्रचार किया। इसलिए भारत के अतीत को इन्होंने अंधकारमय माना। अत: ऐसी परिस्थितियों में हमें भारत की लोक मान्यताओं का परीक्षण, समीक्षण और निरीक्षण करना चाहिए। नारी के विषय में अब भी गांव देहात की स्थिति क्या है? इसका उत्तर यही है कि भारत के गांव देहात में नारी को आज भी अबला माना जाता है, और दो पक्षों की लड़ाई झगड़े में महिलाओं पर कोई पक्ष आज भी हाथ नही चलाता। यदि झगड़े में पिटते किसी पक्ष की ओर से महिलाएं आगे आ जाएं या पिटते हुए व्यक्ति के ऊपर महिला उसे बचाने के लिए लेट जाए तो दूसरा पक्ष लाठी चलानी बंद कर देता है। हमारे यहां युद्घ का यह एक नियम है, जो लाखों करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है। लोक का यह न्याय नियम हमें बताता है कि महिला तारन की अधिकारी है। उस पर करूणा करनी चाहिए। यदि कोई मूर्ख किसी को गाली दे दे तो लोग कहते हैं कि इसके मुंह मत लगो यह तो मूर्ख है अर्थात मूर्ख होने के कारण इसे छोड़ दो, इस पर उपकार करके इसे प्राणदान दे दो। इसी प्रकार शूद्र-सेवक को अज्ञानी मानकर तथा पशु को पशु मानकर छोड़ा जाता है। भारतीय संस्कृति की यह मूल धारणा है, यद्यपि अपवाद स्वरूप इन पर कहीं कहीं अन्याय भी हुआ है। लेकिन भारत की मूल परंपरा ने उस अन्याय को अपनी स्वीकृति प्रदान नही की और ऐसे अन्यायी को सदा अन्यायी ही माना गया। ताडऩा उसकी होती है जो जानकर भी नही मानता पर गंवार शूद्र और पशु कुछ जानते नही हैं इसलिए उन्हें क्या दण्ड देना? यही प्राकृतिक न्याय है। हम अपनी संस्कृति के प्रति छायी हुई गंद को छांटने का प्रयास करें। तभी हम भारत को पुन: विश्वगुरू बना पाएंगे। तुलसी के सही मंतव्य और विचार को समझें और अपनी संस्कृति की पावनता को प्रखर करें। आज हमारा यही धर्मघोष और जयघोष होना चाहिए, संस्कृति की रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का महत्वपूर्ण दायित्व है।~~~~~~
    =परशुराम कुमार ,स्नातकोत्तर .प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व ,पटना विश्वविद्यालय
    पता :-हरनौत ,नालन्दा 9934045876

  3. श्री पुरुषोत्तम मीना ‘निरंकुश’ जी ने पूरी निरंकुशता के साथ केवल सन्दर्भ से काटकर ऐसे उद्धहरण प्रस्तुत किये हैं जिनका वर्तमान घटना से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है. हर समस्या के बीच अपना दलित अजेंडा घसीटना कुछ लोगों का शौक है. इसी बात की और राजीव मल्होत्रा और अरविन्दन नील्कंदन द्वारा लिखित और पिछले वर्ष प्रकाशित शोध पुस्तक ब्रेकिंग इण्डिया में उल्लेख किया गया है. जिन लोगों ने ये जघन्य अपराध किया है उनकी सामाजिक जातीय पृष्ठभूमि भी जानना उचित होगा. इसमें न तो कोई धार्मिक ग्रन्थ प्रासंगिक है और न ही सामाजिक भेद भाव.इसका सीधा सम्बन्ध हमारी नेतिक शिक्षा, एवं संस्कार एवं मूल्य विहीन शिक्षा, महिला के शरीर का बाजारीकरण अर्थात हर वस्तु की बिक्री के लिए स्त्री काया का प्रयोग और समाज में बढती यौन स्वंतंत्रता तथा मदिरा पान को बढ़ावा दिया जाना है.एक मोटरसाईकिल की बिक्री के विज्ञापन में पुरुष मोटरसाईकिल की सुन्दरता से प्रभावित होकर उस पर हाथ फेरता है और देखते ही देखते मोटरसाईकिल एक लड़की में बदल जाती है. इस प्रकार के विज्ञापनों के विरुद्ध आवाज उठनी चाहिए. शराब से जितना राजस्व मिलता है उससे ज्यादा शराबखोरी के कारन हुए अपराधों को नियंत्रित करने में खर्च हो जाता है. तो शराब की बिक्री सीमित करने पर क्यों अभियान नहीं चलाया जाता?शिक्षा में संस्कार और मूल्यों की बात करते ही कुछ वर्गों को भगवाकरण का हौव्वा नजर आने लगता है. जबकि राजीव गाँधी के प्रधान मंत्री काल में गठित कमिटी में डॉ. करण सिंह ने कहा था की ‘धर्म निरपेक्षता की गलत व्याख्या के कारण हमने अपनी शिक्षा में नेतिक मूल्यों की शिक्षा को समाप्त कर दिया है”.इसके अलावा इस समस्या के और भी बहुत से आयाम हैं जिन पर पूरे खुले मन मष्तिष्क से विचार के लिए एक व्यापक बहस होनी चाहिए.कानून का अनुपालन और त्वरित न्याय भी आवश्यक है. यहाँ तो ऐसे जघन्य बलात्कार और हत्या के मामलों में भी तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान दिया गया जिनमे नरमी की कोई आवश्यकता नहीं थी.क्या किसी ने उस समय के देश के गृह मंत्री और तत्कालीन राष्ट्रपति से पूछा की ऐसा करने के पीछे क्या बाध्यता थी.
    भाई पुरुषोत्तम जी कृपया हर विषय में अपना दलित अजेंडा घुसाकर समस्या की गंभीरता को कम न करें.

  4. ye jo balatkar ki ghatna hui hi , kuch jimwar hum log bhi hi , agar hum chati hi ki kabhi asi ghatna na ho , to larki ko phnawa mi badlw lana hoga, hum apni dada dadi ki jamna ki bhat kari to hum samjh sakti hi ki us samy larki dhang kii kapra pahnti thi baltkar nahi hoti thi….
    agar larki samjhti hi ke se bekar ke kapra pahni se wo smari dekhti hi to ye glat hi

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