साहित्‍य

राष्ट्रभाषाओं को बचाएं, भारतीय संस्कृति बचाएं

-विश्व मोहन तिवारी

१४ सितंबर राजभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह सरकार को याद दिलाने के लिये नहीं वरन सरकारी कर्मचारियों को याद दिलाने के लिये होता है, ताकि सरकारी कार्य राष्ट्रभाषा में हो। अर्थात सरकार यह इंगित करती है कि अपनी‌ भाषा को भूलने के लिये हम ही जिम्मेदार हैं। यह कुछ सत्य तो है। किन्तु हमें ऐसा याद दिलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

नौकरी तो गुलामी की भाषा अंग्रेज़ी सीखने पर ही मिलती है, अर्थात काम भी उसी‌ अंगेज़ी भाषा में होना है। यह हिन्दी दिवस तो जनता को भुलावे में रखने के लिये नाटक है। जब नौकरी बिना अंग्रेज़ी जाने नहीं मिलती तब ऐसी स्थिति में हम हिन्दी ही‌ क्यों कोई भी‌ भारतीय भाषा क्यों पढ़ें !! यदि सरकार चाहती कि देश का कार्य राजभाषा में‌ होना है तो अंग्रेज़ी‌ के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य और अंग्रेज़ी को वà ��कल्पिक भाषा होना चाहिये । यह क्यों नहीं हो रहा है ? इसके मुख्य दो कारण हैं – एक, हम मानसिक रूप से अंग्रेज़ी के गुलाम हैं; २, भारतीय भाषाओं में आपसी इर्ष्या है, क्योंकि हम अपनी संस्कृति द्वारा प्रदत्त प्रेम तथा त्याग के स्थान पर स्वार्थ को अधिक महत्व दे रहे हैं । शेष कारण, यह कहना कि हिन्दी‌ में‌ वैज्ञानिक तथा विधि को पर्याप्त अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है, योग्यता नही है, मात्र बहाना है। संस्कृत की‌ बेटी में‌ क्षमता न हो, यह तो भ्रम है। और योग्यता भी है चाहे, १९५० में थोड़ी कम थी, जो १५ वर्षों में‌ ही दूर कर दी गई थी। भाषा को बिना अवसर दिये योग्यता कैसे पैदा हो सकती है ! क्षमता रहने पर और समय मिलने पर हिन्दी‌ ने योग्यता प्राप्त कर ली है, जो अवसर मिलने पर सतत आधुनिक रहेगी।

जो लोग इस समस्या को मात्र हिन्दी की समस्या मान रहे हैं वे भयंकर गलती‌ कर रहे हैं। वास्तव में‌ यह भाषा की समस्या अखिल भारतीय भाषाओं की समस्या है, और आँख खोल कर देखें तब उन सभी पर संकट है। यह संकट, अन्य बड़े संकटों के समान वैश्विक है, उन सभी विकासशील देशों की‌ भाषाओं पर संकट है, जो पहले उपनिवेश रहे हैं, और जिनमें अपने देश के प्रति सम्मान कम है। हमारे देश में न केवल अपने देश के प्रति सम्मान की समझ ही कम है वरन अपने पुराने स्वामी के प्रति अंधभक्ति अधिक है। जो देश क्रिकैट पर अपने देश के सम्मान को परखे, उस देश का यारो क्या कहना!! जिस देश के युवाओं के हीरो खिलाड़ी या एक्टर या माडल हों, उस देश का भविष्य क्या हो सकता है!!

जब देश में शिक्षा का माध्यम ही एक कठिन और विदेशी भाषा अंग्रेज़ी हो उस देश की‌ भाषाओं का क्या भविष्य हो सकता है, और विशेषकर कि जब वह भाषा भी साम्राज्यवादी देश की हो !! उनके जीवन का लक्ष्य ही दूसरों को लूटना ऱहा हो । एक तरफ़ तो हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकसित देशों के बराबर नहीं खड़े हो पाएंगे क्योंकि हम आविष्कार तथा नवीनीकरण में कमजोर ही रहेंगे । विदेशी भाषा में जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका आत्मसात होना बहुत कठिन होता है, और बिना आत्मसात ज्ञान के आविष्कार शायद ही हों।

सभी भारतीय भाषाओं के स्थान पर अब बच्चे, युवा तथा प्रौढ़ अंग्रेज़ी ही पढ़ रहे हैं। अंग्र्ज़ी छा जाएगी तब हम अपनी संस्क्RRति भूलकर, पश्चिमी संस्कृति के पक्के गुलाम हो जाएंगे। हिंदी तो भारत के विशालतम क्षेत्र की भाषा है, वह तो अधिक समय तक अंग्रेज़ी से लड़ सकेगी, किन्तु कम क्षेत्रों में या कम संख़्या में बोली जाने वाली‌ भाषाएं तो दुर्बल से दुर्बलतर होती रहेंगी। आवश्यकता है कि भारतीय भाषाएं‚ आपस में द्वेष न करें, प्रेम तथा त्याग के बल पर एकजुट होकर विदेशी भाषा का सामना करें। केवल दिन्दी दिवस ही न मनाया जाए, वरन राष्ट्रभाषाएं दिवस मनाए जाएं। एक होकर अंग्रेज़ी को राजभाषा के पद से हटाएं। सभी प्रदेश, जिनकी‌ भाषाएं समृद्ध हैं अपने कार्य अपनी भाषा में करें, केवल केन्द्र सरकार के और जो प्रदेश ऐसा चाहते हैं उनके कार्य हिन्दी में‌ हों।

यह लड़ाई केवल भाषा की‌ नहीं है वरन भारतीय संस्कृति की है। भारतीय संस्कृति ही पूर्ण रूप से मानवीय संस्कृति है, शेष संस्कृतियां भोगवादी‌ हैं, अत: अमानवीय हैं। भारतीय संस्कृति हमें मानवता की‌ भलाई के लिये बचाना है।