राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करता है कुंभ का वैचारिक मंथन

सागरमंथन से अमृत और विष दोनों ही निकले थे। हर मंथन का यही परिणाम होता है। विष त्याज्य होता है क्योंकि वह समाज के लिए अहितकारी होता है। समाज के भीतर से विष निकल जाए तो वह स्वस्थ हो जाता है। शुद्ध, प्रफुल्ल और उर्जावान। इसलिए समय के अंतराल के बाद मंथन आवश्यक हो जाता है यादि ऐसा न हो तो धीरे-धीरे समाज अशुभ की ओर अग्रसर हो जाता है, उसके तेज का नाश हो जाता है और वह मृत्यु की ओर अग्रसर हो जाता है। सागर मंथन अथवा समाज मंथन से जो अमृत निकलता है उसे समग्र समाज में पहुंचाना भी जरुरी होता है तभी संपूर्ण समाज का शुध्दीकरण हो पाता है। भारतीय इतिहास में देवों और दैत्यों के सागर मंथन की घटना इसी दृष्टि से प्रासंगिक है। मंथन से निकला अमृत नासिक, उज्जैन, प्रयागराज और हरिद्वार में पहुंचा तो मानव समाज पूरा जीवंत हो उठा। कालांतर में यही स्थान समाज के वैचारिक मंथन के केंद्र बन गए। कुंभ के अवसर पर देश भर से लाखों की संख्या में साधारण जन और अपने-अपने क्षेत्रों के विद्वान इन स्थानों पर जुटने लगे। लंबी मंत्रणाएं होने लगीं। संतों की मंत्रणाए, दार्शनिकों की मंत्रणाएं, आयुर्वेद से जुडे वैज्ञानिकों की मंत्रणाएं, खगोलविज्ञानियों की मंत्रणाएं सब अपने-अपने क्षेत्र के ज्ञान-विज्ञान को आदान-प्रदान करते। मंथन से निकला हुआ अमृत लेकर साधारण जन प्रफुल्लित भाव से अपने-अपने घर लौटता। कुंभ ने भारत के वैचारिक आंदोलन को आगे बढ़ाने में तो सहायता की हीं साथ में राष्ट्रीय एकता के आंतरिक सूत्रों को पुष्ट करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। लोग वर्ष भर के बाद कुंभ स्थलों पर एकत्रित होते हैं लेकिन यह आम तौर पर स्थानीय घटना ही होती है। उसके बाद छः वर्ष बाद अर्ध्दकुम्भ आता है जिसमें कुछ स्थानीय और कुछ बड़े प्रश्नों पर विचार किया जाता है। उसके बाद बारह वर्ष के अंतराल के बाद आता है कुंभ जिसमें आसेतु हिमाचल से कन्याकुमारी तक के लोग एकत्रित होते हैं। और राष्ट्र से जुडे सभी प्रश्नों पर अनेक दिनों तक मंथन चलता रहता है। फिर सैकड़ों साल बाद महाकुंभ का योग पड़ता है और इस कुंभ पर विचार किए जाने वाले प्रश्न भी दूरगामी होते हैं। ये प्रश्न राष्ट्र वह सीमाओं को भी लांघ जाते हैं। जब भारतीय चिंतन का आधार ‘वसुदैव कुटुम्बकम’ है तो महाकुम्भ का योग पड़गा हीं।

लेकिन अनेक बार ऐसा भी होता है कि समाज की स्थिति इतनी विकट हो जाती है और प्रश्न इतने तीखे हो जाते हैं कि उनके दंश से समाज का रस ही सूखने लगता है। तब मंथन के लिए किसी कुंभ के योग के प्रतीक्षा नहीं की जाती। शास्त्र इसे आपातकाल कहते हैं और आपातकाल में आपद्धर्म हीं चलता है। इसलिए, ऐसे अवसर पर आपद् कुंभ का आयोजन होता है जिसके मंथन से जो अमृत निकलता है वह संकट का निवारण करता है। आज से लगभग 300 साल पहले भारत इसी संकट से गुजर रहा था तब दसम् गुरु श्री गोविंद सिंह जी ने शिवालिक की उपत्याकाओं में जन-जन का आह्वान कर बैसाखी के दिन जो राष्ट्र यज्ञ किया था वह आपद् कुंभ हीं था। इस कुंभ के मंथन से ही खालसा का जन्म हुआ जिसने समाज में नई प्राण चेतना फूंक दी और बाज से चिड़ियों को लड़ा दिया। 2010 मे हरिद्वार में कुंभ का योग पड़ा है। इस कुभ में भी राष्ट्र के सम्मुख चुनौती दे रहे प्रश्नों पर गहरा मंथन हो रहा है। ऐसा ही एक राष्ट्र रक्षा सम्मेलन मार्च के दूसरे सप्ताह में हरिद्वार में संपन्न हुआ जिसमें देश भर से सैकड़ों रक्षा विशेषज्ञों ने गंगा के तट पर विचारों का आदान-प्रदान किया। राष्ट्रीय सिख संगत भी चैत्र-बैसाख में ऐसा ही एक आयोजन हरिद्वार में कर रही है। कुंभ के अवसर पर किए गए ये मंथन भारत को एक नई दिशा देगें और उसे नई उर्जा प्रदान करेंगे उसका मुख्य कारण यह है कि मंथन के निष्कर्शों को जनसमर्थन हासिल है और जन-जन की चेतना ही भारत की मूल शक्ति है।

– डॉ. कुलदीपचंद अग्निहोत्री

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डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री
यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुडे हुए हैं।

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