अब दलित मुक्ति के सवाल पर सोचिए

0
155

सही मायने में बाजारवादी व्यवस्था ही है दलितों की असली शत्रु

पिछले दिनों 14 अप्रैल को बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती पर राहुल गांधी से लेकर मायावती और नितिन गडकरी तक सभी दलों के नेता बाबा साहेब के सपनों के प्रति अपनी आस्था जताते दिखे। किंतु इन सपनों के साथ सही संकल्प कहां हैं। आज देखें तो सिर्फ दलित राजनीति ही नहीं, समूचा देश नेतृत्व के संकट में जूझ रहा है। बौनों के बीच आदमकद तलाशे भी नहीं मिलते, जाहिर है, छुटभैयों की बन आई है। बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं। चुनावी सफलताओं, कार्यकर्ता आधार के सवाल पर जरूर मायावती जैसे नेता यह दावा कर सकते हैं कि वे बाबासाहब के आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं, परंतु सच यह है कि आंबेडकर जैसी वैचारिक तेजस्विता आज दलित राजनीति के समूचे परिवेश में दुर्लभ है। राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी में दलित प्रश्न को, छुआछुत, जातिप्रथा के सवालों को जिस तरह से उन्होंने मुद्दा बनाया, वह खासा महत्व का प्रसंग है।

पेरियार, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज से लेकर बाबासाहब की वैचारिक धारा से आगे कोई बड़ी लकीर खींच पाने में दलित राजनीति असफल रही। सत्ता के साथ पेंगे भरने का अभ्यास और सत्ता से ही दलितों का भला हो सकता है, इस चिंतन ने समूचे दलित आंदोलन की धार को कुंद कर दिया तथा एक सुविधाभोगी नेतृत्व समाज का सिरमौर बन बैठा। बाबासाहब यदि चाहते तो आजीवन पं. नेहरू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह सकते थे, लेकिन वे आंदोलनकारी थे। उन्हें जगजीवनराम बनना कबूल नहीं था। सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श के रिश्ते बनाकर उन्होंने व्यक्तिगत राजनीतिक सफलताओं एव सुख की बजाए दलित प्रश्न को सर्वोच्चता दी। उनकी निगाह से राजसत्ता नहीं, औसत दलित के खिलाफ होने वाला जुल्म और अन्याय रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण था। यह सारा कुछ करते हुए भी बाबासाहब ने तर्क एवं विचारशक्ति के आधार पर ही आंदोलन को नेतृत्व दिया। सस्ते नारे-भड़ाकाऊ बातें उनकी राजनीति का औजार कभी नहीं बनीं। आजादी के इन 6 दशकों में दलित एक संगठित ताकत के रूप में न सही, किंतु एक शक्ति के रूप में दिखते हैं तो इस एकजुटता को वैचारिक एवं सांगठनिक धरातल देने का काम पेरियार, बाबासाहब जैसे महापुरुषों ने किया। उनके सतत संघर्ष से दक्षिण में आज दलित राजनीति सिरमौर है, महाराष्ट्र में बिखरी होने के बावजूद एक बड़ी ताकत है। उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी के रूप में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में आज दलित की उपेक्षा करने का साहस नहीं है। आरक्षण के प्रश्न पर लगभग राष्ट्रीय सहमति है, वंचितों को सत्ता-संगठन में पद एवं अधिकार देने में मुख्यधारा की राजनीति में ‘स्पेस’ बढ़ा है।

सही अर्थों में दलित राजनीति के लिए यह समय ठहरकर सोचने और विचार करने का है कि इतनी स्वाकार्यता के बावजूद क्या वे समाज, सरकार एवं प्रशासन का मानस दलित प्रश्नों के प्रति संवेदन शील बना पा रहे है। दलित, आदिवासी, गिरिजनों के प्रश्न क्या देश की राजनीति की भूल चिंताओं में शामिल हैं ? सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद क्या हम औसत दलित की जिंदगी का छोड़ा भी अंधेरा, छोड़ी भी तकलीफ कम कर पा रहे हैं ? दक्षिण में करुणानिधि से लेकर उ.प्र. में मायावती जैसों के शासन का धर्म किस प्रकार दलितों के प्रति अन्य शासकों से अलग था या है। क्योंकि यह बात दलित राजनिति को भली प्रकार समझनी होगी कि दलित नौकरशाहों की गिनती, महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की नियुक्ति से सामाजिक अन्याय या दमन का सिलसिला रुकने वाला नहीं है। दलित राजनीति के सामने सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ दलित मुक्ति का प्रश्न भी खड़ा है। दलित मुक्ति जरा बडा प्रश्न है। यह सही अर्थों में तभी संभव है जब सवर्ण चेतना भी अपनी काराओं तथा कठघरों से बाहर निकले। निश्चय ही यह लक्ष्य सवर्णों को गाली-गलौज कर, उनके महापुरुषों के अपमान से नहीं पाया जा सकता। जातियों का मामला वर्ग संघर्ष से सर्वथा अलग है। वर्ग संघर्ष में आप पूंजीपति के नाश की कामना कर सकते हैं, क्योकिं तभी वर्ग विहीन समाज बन सकता है, जबकि जातिविहीन समाज बनाने के लिए जाति युद्ध का कोई उपयोग नहीं है। दलित आंदोलन के निशाने पर सवर्ण नहीं, सवर्णवाद होना चाहिए। समतायुक्त समाज, जातिविहीन समाज का सपना बाबासाहब आंबेडकर ने देखा था तो उसे साकार करने के अवसर आर बदलते परिवेश ने हमें दिए हैं। दलित राजनीति के प्रमुख राजनेताओं को चाहिए कि वे दलितों, मजलूमों के असली शत्रु की पहचान करें। यह खेदजनक है कि वे ऐसा कर पाने में विफल रहे हैं। दलितों, मजलूमों एवं गरीबों की सबसे बड़ी शत्रु है ताजा दौर की बाजारवादी व्यवस्था। दलित राजनीति के एजेंडे पर बाजारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस उदारीकरण की आंधी ने पिछले दो दशक में दलितों, कामगारों आम लोगं के सामने रोजी-रोटी, रोजगार, महंगाई का जैसा संकट खड़ा किया है, वह सबके सामने है। सच कहें तो दलित राजनीति वैचारिक तौर पर गहरे अंतर्विरोधों का शिकार है। उसके सामने निश्चित लक्ष्य एवं मंजिलें नहीं हैं। किसी प्रकार सत्ता की ऊंची दुकानों में अपने लिए जगह बनाना दलित राजनीति का केंद्रीय विचार बन गया है। एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष, अशिक्षा, बेकारी और अपसंस्कृति के विरुद्ध जेहाद, बाजारवादी शक्तियों से दो-दो हाथ करना एजेंडे में नहीं। इन चुनौतियों के बावजूद दलितों के आत्मसम्मान को बढ़ाने, उनमें ओज भरने, अपनी बात कहने का साहस जरूर इन दलों ने भरा है। यह अकेली बात दलित राजनीति की उपलब्धि मानी जा सकती है। महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित साहित्य की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। कई बार तो यह लगता है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य आगे निकल गया, दलित राजनीति पीछे छूट गई है। ऐसा ही आभास दलित आंदोलन के कार्यकर्ता कराते हैं कि कार्यकत्ता आगे निकल गए, नेता पीछे छूट गए। समूचे देश में बिखरी दलित राजनीति की शाक्ति के यदि सामूहिक रूप से जातिवाद, बाजारवाद, बेकारी, अपसंस्कृति, अशिक्षा के खिलाफ संघर्ष में उतारा जाए तो देश का इतिहास एक नई करवट लेगा। आजादी की एक नई जंग की शुरुआत होगी। वह लड़ाई सिर्फ ‘सत्ता संघर्ष’ की नहीं ‘दलित मुक्ति’ की होगी। हर लड़ाई में मजबूत विरोधी, कमजोर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ता आया है। दलितों की सामूहिक चेतना ने आम लोगों के सवालों को अपने हाथ में लेकर यह लड़ाई लड़ी तो इस जंग में जीत कमजोर की होगी। अब यह बात दलितों के रहनुमाओं पर निर्भर है कि क्या वे इस चुनौती को स्वीकारेंगे।

-संजय द्विवेदी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,049 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress