संबंध और स्वार्थ

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शशांक शेखर

मानवता में संबंधो के विशेष असर हुआ है। एक- दूसरे को आपस में जोड़ने में संबंध ने व्यापक पृष्ठभूमि तैयार की है। वहीं यह भी एक कटु सत्य है कि संबंधों के जुड़ाव में स्वार्थ की भूमिका कभी सामने तो कभी परदे के पीछे रहती है।

सबसे मधुर संबंध मां का अपने बच्चों से होता है जो उसे नौ महिने गर्भ में पालती है। बच्चे का जन्म भी स्वार्थ से परिपूर्ण है । इसके पीछे जहां एक ओर आपसी चाह और आने वाले समय में संरक्षण की होती है तो तो वहीं दूसरी ओर वंश वृद्धि।

मां का सीधा संबंध अगर ममत्व से होता तो समाज में नाजायज,लावारिस,अनाथ बच्चे न होते। ग्रन्थों में कुमाता न भवति जैसे श्लोक हैं पर समय की परिपाटी पर में कैकय भी मिलती हैं , जागीर कौर और नुपुर तलवार भी मिलती हैं।

भारत में धरती को भी मां की श्रेणी में रखा गया गया है। इस धरा पर भी कुपोषित बच्चे मिलते हैं जो पूरी जिंदगी दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में गुजार देते हैं। आसमां को चादर और धरा को बिस्तर बना कर सोने वाले भी पलते हैं। जहां एक ओर असहाय बच्चों के लिए पक्षपातपूर्ण रवैया आपनाना जायज है वहीं पर समर्थ लोगों को इस पक्षपात का सकारात्मक फल पूरे विश्व में देखने को मिलता है। स्वार्थ यहां भी हावी है।

देशवासियों ने भारत को मां का दर्जा दिया है पर साथ में इसके माथे (कश्मीर) पर एक कलंक भी दिया है और ऐसे सपूत भी हैं जो इसे मिटाने के बजाए इसे हटाने की पैरवी तक कर देते हैं जो बिना स्वार्थ के संभव नहीं। भारत मां के सीने पर बैठ कर इसके इज्जत को ताड़-ताड़ करने वाले नेता भी हैं तो वहीं मनसे जैसा दूर्योधन भी है जो महज कोड़ी राजनीति के लिए एक पेट से जन्मे भाइयों के बीच मां के बंटवारे की बात करता है।

मेरे विचार से इन विवेचनाओं को बदलने के लिए भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अमूल – चूल परिवर्तन करने की जरूरत है। प्रारंभिक कक्षाओं में नैतिकता के साथ-साथ राष्ट्रीयता का बोध भी अनिवार्य हो। जो नौनिहालों की एक ऐसी फौज तैयार करे जिसे सत्य और राष्ट्रहित में जीने की कला आती हो।

 

 

 

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