इतिहास की पुनरावृत्ति

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shopकहते हैं कि ‘इतिहास खुद को दोहराता है।’ यद्यपि मेरा इतिहास का अध्ययन बस वहीं तक है, जहां तक कक्षा आठ में पढ़ाया गया था; पर अपने कुछ प्रसंगों को देखकर लगता है कि शायद यह कहावत सच ही है।

पिछले दिनों मोदीनगर से मेरे पुराने मित्र आनंद का फोन आया। वहां के मुख्य बाजार में ‘सुंदर स्टोर’ के नाम से भवन निर्माण सामग्री अर्थात ईंट, सीमेंट, सरिया आदि का उसका कारोबार है। यह काम उसके पिता श्री सुंदरलाल जी ने लगभग 60 साल पहले शुरू किया था। काम अच्छा होने से नगर में प्रतिष्ठा भी खूब है।

दिल्ली से हरिद्वार जाने पर रास्ते में मोदीनगर आता है। 1933 में इसे मोदी परिवार ने बसाया था। मोदी परिवार सदा अंग्रेजों को खुश रखता था। अतः उन्होंने गूजरमल जी को ‘रायबहादुर’ का सम्मान और यहां नया नगर बसाने की अनुमति दी। मोदी परिवार ने यहां अनेक मिलें और उद्योग लगाये। इससे आसपास के हजारों लोगों को काम मिला। मोदी परिवार का कांग्रेस वालों से भी अच्छा सम्पर्क था। अतः आजादी के बाद उन्हें कई तरह की सुविधाएं मिलीं। इससे उनके उद्योगों के साथ ही मोदीनगर और आसपास के गांवों का भी विकास होने लगा।

सुंदरलाल जी गांव मोदीनगर के पास ही था। वहां ईंटों के कई भट्टे थे। मोदीनगर में उन दिनों हर तरफ निर्माण चल रहा था। अतः उन्होंने वहां ईंटों की सप्लाई शुरू कर दी। कुछ पैसा हो गया, तो उन्होंने मोदीनगर के बाजार में एक दुकान और एक मोटरसाइकिल ले ली। क्रमशः उनका परिवार भी बढ़ा। सबसे पहले एक बेटा हुआ, फिर दो बेटी, और फिर एक बेटा। बच्चों की शिक्षा के लिए वे मोदीनगर में ही मकान बनाकर रहने लगे।

मेरा मित्र आनंद सुंदरलाल जी का ही बड़ा बेटा है। कक्षा बारह तक हम एक साथ पढ़े। फिर मैं दिल्ली आ गया; लेकिन आनंद ने बी.एस-सी. की। यद्यपि उसके पिताजी का काम बहुत अच्छा था; पर उसकी रुचि नौकरी में थी। वह देखता था कि उसके पिताजी दिन भर भागते रहते हैं। शाम को जब वे घर आते, तो पूरा शरीर धूल-मिट्टी से रंगा होता था। कई बार तो दिन में खाने का भी समय नहीं मिलता था।

सुंदरलाल जी ने गांव के कष्ट झेले थे; लेकिन आनंद ने शहरी जीवन का स्वाद लिया था। वह देखता था कि मोदीनगर में लोग साफ कपड़े पहनकर सुबह काम पर जाते हैं और शाम को ठाठ से घर लौट आते हैं। अफसरों को शानदार घर और कारें मिली हुई थीं। छुट्टी में वे परिवार सहित घूमने निकल जाते थे। उनके बच्चे ‘मोदी पब्लिक स्कूल’ में पढ़ते थे। घर में कोई बीमार हो, तो ‘मोदी अस्पताल’ में तुरंत उनका इलाज हो जाता था। आनंद भी इसी तरह आराम का जीवन जीना चाहता था।

लेकिन नौकरी मिलना इतना आसान तो नहीं था। साल भर की कोशिश के बाद उसे गाजियाबाद के एक निजी विद्यालय में पढ़ाने का काम मिला; पर वहां वेतन केवल 1,500 रु. था। इसमें से भी 500 रु. तो आने-जाने में ही खर्च हो जाते थे। विद्यालय के प्रबंधक और उनकी पत्नी का रौब भी सहना पड़ता था। इससे आनंद सामंजस्य नहीं बैठा सका और उसने त्यागपत्र दे दिया।

एक बार बुखार के कारण सुंदरलाल जी को कुछ दिन आराम करना पड़ा। इस दौरान उनकी देखभाल आनंद ही करता था। एक दिन सुंदरलाल जी ने पूछा – क्या बात है बेटा, तुम आजकल कुछ परेशान नजर आते हो ?

– नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पिताजी।

– देखो बेटा, कोई समस्या हो तो मुझे बताओ।

– बस पिताजी, काम के लिए ही परेशान हूं।

– काम तो तुम्हें गाजियाबाद में मिला था। फिर… ?

– वहां पैसा बहुत कम था और मेहनत ज्यादा। स्कूल के प्रबंधक और उनकी पत्नी सबको अपना गुलाम समझते थे।

– तो तुम्हें मेहनत करना पंसद नहीं है ?

– मेहनत से तो मैं नहीं डरता पिताजी; पर उस हिसाब से पैसा भी तो हो। फिर किसी की गुलामी करना भी मुझे पसंद नहीं है।

– फिर तुम कैसा काम करना चाहते हो ?

– काम ऐसा हो कि सुबह नौ-दस बजे जाकर शाम को पांच-छह बजे तक लौट आएं। कम से कम 5,000 रु. वेतन हो और किसी की जी-हुजूरी न करनी पड़े।

– ऐसा एक काम मोदीनगर में ही मेरी निगाह में है। वहां सुबह दस से शाम छह बजे तक बैठने पर तुम्हें छह हजार रु. मिल सकते हैं।

– जी बताइये, कहां है वह काम। मैं कल से ही जाने लगूंगा।

– तुम्हें ‘सुंदर स्टोर’ पर बैठना होगा।

– सुंदर स्टोर पर… ?

– हां। देखो बेटा, तुम्हें नौकरी करनी है, तो मेरी दुकान पर ही कर लो। दूसरी जगह तो थोड़ी बहुत जी-हुजूरी करनी ही होेगी। मेरे यहां इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। वहां तुम खुद को नौकर भी समझ सकते हो और मालिक भी।

– पर पिताजी, वहां का माहौल बड़ा अजीब सा रहता है। सब तरफ बिखरी हुई ईंटें। टूटी-फूटी कुर्सियां, मेज और मूढ़े ?

– तो तुम दुकान को ठीक करा लो।

– पर मैंने बी-एस.सी. किया है। गांवों में धक्के खाना और ठेकेदारों के आगे-पीछे घूमना तो मैं दसवीं के बाद भी कर सकता था ?

– देखो बेटा, बहुत बड़ी बातें तो मैं नहीं जानता; पर दुनिया में पैसे के बिना काम नहीं चलता। अब मैं गांव में नहीं रहता, फिर भी गांव वाले चाहते हैं कि मैं ग्राम प्रधान बन जाऊं; क्यों.. ? सिर्फ इसलिए कि मेरे पास पैसा है। हमारे नगरपालिका अध्यक्ष 20 साल पहले इसी बाजार में सब्जी बेचते थे। फिर उन्होंने सब्जी मंडी में थोक का काम शुरू किया। पहले वे सब्जी मंडी के अध्यक्ष बने और फिर नगरपालिका के। आज कोई उनकी शिक्षा या जाति नहीं पूछता। जहां तक बी-एस.सी. की बात है, तो शिक्षा से ज्ञान के दरवाजे खुलते हैं और बुद्धि का विकास होता है; पर केवल डिग्री से ही सब कुछ नहीं होता।

– जी कैसे ?

– देखो, हमारी दुकान के पड़ोस में गुप्ता जी की साइकिलों की दुकान है। वे छठी पास हैं। रोज शाम को उनका हिसाब लिखने एक मास्टर जी आते हैं। वे अंग्रेजी में आये पत्र पढ़कर गुप्ता जी को सुनाते हैं और उनके जवाब देते हैं। उन्होंने भी बी-एस.सी. की है। वे भी एक स्कूल में पढ़ाते हैं; पर उनका परिवार बड़ा है। गुप्ता जी उन्हें हजार रु. महीना देते हैं। बी-एस.सी. पास मास्टर जी एक छठी पास व्यक्ति को हाथ जोड़कर नमस्ते करते हैं। इसका कारण है सिर्फ पैसा।

– पर इस काम में कपड़े ऐसे गंदे हो जाते हैं कि आदमी बिल्कुल मजदूर लगने लगता है ?

– आनंद बेटे, जब जेब में नोट हों, तो कपड़ों का मैलापन नहीं देखा जाता। आदमी राजा अपने कपड़ों से नहीं, उसमें लगी जेब के भारीपन से होता है।

– पर ईंटों के अलावा और कोई काम नहीं हो सकता ?

– बिल्कुल हो सकता है। तुम चाहो, तो सीमेंट की एजेंसी ले लो। दिल्ली रोड पर हमारा जो प्लॉट है, वहां सीमेंट का गोदाम बना लेंगे।

– फिर ईंटों के काम का क्या होगा ?

– अभी तो मैं इसे कर ही रहा हूं। फिर इसे तुम्हारे छोटे भाई को सौंप दूंगा। देखो बेटे, चाहे मकान हो या दुकान। बाजार हो या सड़क। ईंट, सीमेंट और रेत के बिना कुछ नहीं बनता। किस्मत ही खराब हो तो बात दूसरी है। वरना इस व्यापार में आदमी कभी मात नहीं खा सकता। और बेटा, तुम पांच हजार की नौकरी ढूंढ रहे हो। इतने पैसे तो हम कभी-कभी एक दिन में ही कमा लेते हैं। फिर आजकल पांच हजार रु. में तुम परिवार नहीं पाल सकते। तुम ईमानदारी से अपना व्यापार करो, तो इससे मन भी खुश रहेगा और घर भी।

कई दिन तक आनंद पिताजी से हुई बात के हर पहलू पर विचार करता रहा। आखिर कारोबार में उतरने का निश्चय कर वह पिताजी के साथ काम पर डट गया। इसके बाद तो समय का चक्र तेजी से घूमा। आनंद क्रमशः व्यापार और घर-गृहस्थी में व्यस्त होता गया। आनंद का छोटा भाई सानंद जब काम लायक हुआ, तो पिताजी ने उसे सरिये की एजेंसी दिलवा दी। पिताजी के आशीर्वाद और अपने परिश्रम से दोनों भाइयों ने खूब उन्नति की।

आनंद की इस कहानी में दूसरा मोड़ तब आया जब उसके बेटे मधुकर ने एम.बी.ए. कर लिया। उसे एक संस्थान में 50 हजार रु. महीने की नौकरी तो मिल गयी; पर वह इससे संतुष्ट नहीं था। वह भी उसी मनस्थिति में से गुजर रहा था, जो किसी समय आनंद की थी। वह भी आरामदायक, लेकिन मोटे वेतन वाली नौकरी चाहता था। आनंद चाहता था कि वह उसके साथ काम में लगे; पर मधुकर का मन इधर नहीं था।

एक बार आनंद ने मुझसे बात की। मेरा मत था कि यदि जबरदस्ती करेंगे, तो जीवन भर उसके मन में गांठ बनी रहेगी। अतः उसे एक-दो साल धक्के खाने दो। इससे उसे कुछ अनुभव भी हो जाएगा। इसके बाद तो ‘ऊंट पहाड़ के नीचे’ आएगा ही।

और सचमुच ऐसा ही हुआ। दो साल में मधुकर ने तीन बार नौकरी बदली। फिर भी उसे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई। मेरे आग्रह पर वह एक बार मेरे घर दो दिन तक रहा। इस दौरान उससे कई विषयों पर खुल कर बात हुई। मैंने भी उसे नये संदर्भों के साथ वही तर्क दिये, जो किसी समय सुंदरलाल जी ने आनंद को दिये थे। अंततः वह भी कारोबार के लिए राजी हो गया। आनंद ने उसके लिए टाइल्स, पानी और सेनेटरी आदि के सामान का शोरूम खोल दिया।

उस दिन आनंद ने फोन पर नये शोरूम के उद्घाटन की ही सूचना दी थी। उद्घाटन में मैं भी गया था। शोरूम बहुत भव्य बना था। मधुकर भी बहुत उत्साहित था। खुश मैं भी था, क्योंकि उसे इस दिशा में प्रेरित करने में मेरी भी कुछ भूमिका थी। दिन भर वहां रहने के बाद मुझे विश्वास हो गया कि सचमुच इतिहास अपने आप को दोहराता है।

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