शैक्षणिक व्यवस्था के विकास की आधारशिला है शोध

शोध उस प्रक्रिया अथवा कार्य का नाम है जिसमें बोधपूर्वक प्रयत्न से तथ्यों का संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धि से उसका अवलोकन- विश्‌लेषण करके नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्‌घाटन किया जाता है।

रैडमैन और मोरी ने अपनी किताब  “दि रोमांस ऑफ रिसर्च” में शोध का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते हैं। एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ करेंट इंग्लिश के अनुसार- किसी भी ज्ञान की शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जांच- पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है। स्पार और स्वेन्सन ने शोध को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य के लिए, तथ्यों के लिए, निश्चितताओं के लिए अन्चेषण है।वहीं लुण्डबर्ग ने शोध को परिभाषित करते हुए लिखा है, कि अवलोकित सामग्री का संभावित वर्गीकरण,साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक और व्यवस्थित पद्धति है।शोध के अंग-  ज्ञान क्षेत्र की किसी समस्या को  सुलझाने की प्रेरणा,प्रासंगिक तथ्यों का संकलन ,विवेकपूर्ण विश्लेषण और अध्ययन, परिणाम स्वरूप निर्णय |शोध का महत्त्व- शोध मानव ज्ञान को दिशा प्रदान करता है तथा ज्ञान भंडार को विकसित एवं परिमार्जित करता है।  शोध से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान होता है | शोध से व्यक्तित्व का बौद्धिक विकास होता है |                                                    

           शोध सामाजिक विकास का सहायक है | शोध जिज्ञासा मूल प्रवृत्ति  की संतुष्टि करता है |   शोध अनेक नवीन कार्य विधियों व उत्पादों को विकसित करता है | शोध पूर्वाग्रहों के निदान और निवारण में सहायक है |                                                             

  शोध ज्ञान के विविध पक्षों में गहनता और सूक्ष्मता प्रदान करता है। शोध करने हेतु प्रयोग की जाने वाली पद्धतियाँ | सर्वेक्षण पद्धति -आलोचनात्मक पद्धति ,समस्यामूलक पद्धति  ,तुलनात्मक पद्धति,वर्गीय अध्ययण पद्धति ), क्षेत्रीय अध्ययन पद्धति,आगमन,निगमन ,काव्यशास्त्रीय पद्धति ,समाजशास्त्रीय पद्धति , भाषावैज्ञानिक पद्धति  (शैली वैज्ञानिक पद्धति ,मनोवैज्ञानिक पद्धति ,शोध के प्रकार-(उपयोग के आधार पर) -विशुद्ध / मूल शोध,प्रायोगिक /प्रयुक्त या क्रियाशील शोध,काल के आधार पर,ऎतिहासिक शोध , वर्णनात्मक / विवरणात्मक शोध | शोध के कुछ मुख्य प्रकार- वर्णनात्मक शोध-  शोधकर्ता का चरों  पर नियंत्रण नहीं होता। सर्वेक्षण पद्धति का प्रयोग होता है। वर्तमान समय का वर्णन होता है। मूल प्रश्न होता है: “क्या है?” विश्लेषणात्मक शोध  – शोधकर्ता का चरों  पर नियंत्रण होता है। शोधकर्ता पहले से उपलब्ध सूचनाओं व तथ्यों का अध्ययन करता है। विशुद्ध / मूल शोध  – इसमें सिद्धांत निर्माण होता है जो ज्ञान का विस्तार करता है। गणित तथा मूल विज्ञान के शोध। प्रायोगिक / प्रयुक्त शोध : समस्यामूलक पद्धति का उपयोग होता है। किसी सामाजिक या व्यावहारिक समस्या का समाधान होता है। इसमें विशुद्ध शोध से सहायता ली जाती है। मात्रात्मक शोध :  इस शोध में चरों  का संख्या या मात्रा के आधार पर विश्लेषण किया जाता है। गुणात्मक शोध  :  इस शोध में चरों  का उनके गुणों के आधार पर विश्लेषण किया जाता है।सैद्धांतिक शोध:सिद्धांत निर्माण और विकास पुस्तकालय शोध या उपलब्ध डाटा के आधार पर किया जाता है।आनुभविक शोध : इस शोध के तीन प्रकार हैं–क) प्रेक्षण   ख) सहसंबंधात्मक  ग) प्रयोगात्मक , अप्रयोगात्मक शोध वर्णनात्मक शोध  के समान, ऎतिहासिक शोध : इतिहास को ध्यान में रख कर शोध होता है। मूल प्रश्न होता है: “क्या था?” नैदानिक शोध : समस्याओं का पता लगाने के लिए किया जाता है। शोध प्रबंध की रूपरेखा- सही शीर्षक का चुनाव विषय वस्तु को ध्यान में रख कर किया जाए। शीर्षक ऎसा हो जिससे शोध निबंध का उद्देश्य अच्छी तरह से स्पष्ट हो रहा हो।शीर्षक न तो अधिक लंबा ना ही अधिक छोटा हो।शीर्षक में निबंध में उपयोग किए गए शब्दों का ही जहाँ तक हो सके उपयोग हॊ।शीर्षक भ्रामक न हो।शीर्षक को रोचक अथवा आकर्षक बनाने का प्रयास होना चाहिए। शीर्षक का चुनाव करते समय शोध प्रश्न को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।शोध समस्या का निर्माण  चरण | समस्या का सामान्य व व्यापक कथन समस्या की प्रकृति को समझना,संबंधित साहित्य का सर्वेक्षण ,परिचर्चा के द्वारा विचारों का विकास ,शोध समस्या का पुनर्लेखन | बंधित साहित्य के सर्वेक्षण से तात्पर्य उस अध्ययन से है जो शोध समस्या के चयन के पहले अथवा बाद में उस समस्या पर पूर्व में किए गए शोध कार्यों, विचारों,सिद्धांतों, कार्यविधियों, तकनीक, शोध के दौरान होने वाली समस्याओं आदि के बारे में जानने के लिए किया जाता है।संबंधित साहित्य का सर्वेक्षण मुख्यत: दो प्रकार से किया जाता है:   प्रारंभिक साहित्य सर्वेक्षण  -प्रारंभिक साहित्य सर्वेक्षण शोध कार्य प्रारंभ करने के पहले शोध समस्या के चयन तथा उसे परिभाषित करने के लिए किया जाता है। इस साहित्य सर्वेक्षण का एक प्रमुख उद्देश्य यह पता करना होता है कि आगे शोध में कौन-कौन सहायक संसाधन होंगे।  व्यापक साहित्य सर्वेक्षण -व्यापक साहित्य सर्वेक्षण शोध प्रक्रिया का एक चरण होता है। इसमें संबंधित साहित्य का व्यापक अध्ययन किया जाता है। संबंधित साहित्य का व्यापक सर्वेक्षण शोध का प्रारूप के निर्माण तथा डाटा/तथ्य संकलन के कार्य के पहले किया जाता है |साहित्य सर्वेक्षण के स्रोत- पाठ्य पुस्तक और अन्य ग्रंथ, शोध पत्र,  सम्मेलन / सेमिनार में पढ़े गए आलेख,शोध प्रबंध \, पत्रिकाएँ एवं समाचार पत्र, इंटरनेट,  ऑडियो-विडियो,   साक्षात्कार ,   हस्तलेख अथवा अप्रकाशित पांडुलिपि,परिकल्पना |जब शोधकर्ता किसी समस्या का चयन कर लेता है तो वह उसका एक अस्थायी समाधान  एक जाँचनीय प्रस्ताव  के रूप में करता है। इस जाँचनीय प्रस्ताव को तकनीकी भाषा में परिकल्पना/प्राक्‍कल्पना कहते हैं। इस तरह परिकल्पना / प्राकल्पना किसी शोध समस्या का एक प्रस्तावित जाँचनीय उत्तर होती है। किसी घटना की व्याख्या करने वाला कोई सुझाव या अलग-अलग प्रतीत होने वाली बहुत सी घटनाओं को के आपसी सम्बन्ध की व्याख्या करने वाला कोई तर्कपूर्ण सुझाव परिकल्पना कहलाता है। वैज्ञानिक विधि के नियमानुसार आवश्यक है कि कोई भी परिकल्पना परीक्षणीय होनी चाहिये। सामान्य व्यवहार में, परिकल्पना का मतलब किसी अस्थायी विचार  से होता है जिसके गुणागुण  अभी सुनिश्चित नहीं हो पाये हों। आमतौर पर वैज्ञानिक परिकल्पनायें गणितीय माडल के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं। जो परिकल्पनायें अच्छी तरह परखने के बाद सुस्थापित  हो जातीं हैं,उनको सिद्धान्त कहा जाता है।परिकल्पना की विशेषताएँ -परिकल्पना को जाँचनीय होना चाहिए । बनाई गई परिकल्पना का तालमेल (अध्ययन के क्षेत्र की अन्य   परिकल्पनाओं के साथ होना चाहिए।परिकल्पना को मितव्ययी ( होना चाहिए ।  परिकल्पना में तार्किक पूर्णता  और व्यापकता का गुण होना चाहिए।  परिकल्पना को मितव्ययी  होना चाहिए। परिकल्पना को अध्ययन क्षेत्र के मौजूदा सिद्धांतों एवं तथ्यों से संबंधित होना चाहिए ।परिकल्पना को संप्रत्यात्मक  रूप से स्पष्ट होना चाहिए।परिकल्पना को अध्ययन क्षेत्र के मौजूदा सिद्धांतों एवं तथ्यों से संबंधित होना चाहिए । परिकल्पना से अधिक से अधिक अनुमिति  किया जाना संभव होना चाहिए तथा उसका स्वरूप न तो बहुत अधिक सामान्य होना चाहिए और न ही बहुत अधिक विशिष्ट ।परिकल्पना को संप्रत्यात्मक  रूप से स्पष्ट होना चाहिए: इसका अर्थ यह है कि परिकल्पना में इस्तेमाल किए गए संप्रत्यय /अवधारणाएँ वस्तुनिष्ठ ढंग से परिभाषित होनी चाहिए।परिकल्पना निर्माण के स्रोत- व्यक्तिगत अनुभव, पहले किए शोध के परिणा, पुस्तकें, शोध पत्रिकाएँ, शोध सार आदि,उपलब्ध सिद्धांत, निपुण विद्वानों के निर्देशन में |शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण- अनुसंधान समस्या का निर्माण, संबंधित साहित्य का व्यापक सर्वेक्षण,   परिकल्पना/प्राकल्पना  का निर्माण,शोध की रूपरेखा/शोध प्रारूप  तैयार करना,  आँकड़ों का संकलन / तथ्यों का संग्रह, आँकड़ो / तथ्यों का विश्‍लेषण, प्राकल्पना की जाँच,  सामान्यीकरण एवं व्याख्या, शोध प्रतिवेदन तैयार करना | किसी भी देश का विकास वहाँ के लोगों के विकास के साथ जुड़ा हुआ होता है। इसके मद्देनज़र यह ज़रूरी हो जाता है कि जीवन के हर पहलू में विज्ञान-तकनीक और शोध कार्य अहम भूमिका निभाएँ। विकास के पथ पर कोई देश तभी आगे बढ़ सकता है जब उसकी आने वाली पीढ़ी के लिये सूचना और ज्ञान आधारित वातावरण बने और उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध तथा अनुसंधान के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों।जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान के साथ जय अनुसंधान भी कहना उचित होगा | एक समारोह कार्यक्रम में   प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान में “जय अनुसंधान” भी जोड़ दिया था। उनका कहना था कि यह विज्ञान ही है जिसके माध्यम से भारत अपने वर्तमान को बदल रहा है और अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का कार्य कर रहा है। भारतीय वैज्ञानिकों का जीवन और कार्य प्रौद्योगिकी विकास तथा राष्ट्र निर्माण के साथ गहरी मौलिक अंतःदृष्टि के एकीकरण का शानदार उदाहरण रहा है। लेकिन कुछ तथ्य ऐसे भी हैं जो इशारा करते हैं कि भारत आज विश्व में वैज्ञानिक प्रतिस्पर्द्धा के क्षेत्र में कहाँ ठहरता है? भारत की अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में क्या स्थिति है? आखिर क्यों भारत शोध कार्यों के मामले में चीन, जापान जैसे देशों से पीछे है? ऐसी कौन-सी चुनौतियाँ हैं जो अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत की प्रगति के पहिये को रोक रही हैं? इस दिशा में क्या कुछ समाधान किये जा सकते हैं? यूनेस्को के अनुसार, ज्ञान के भंडार को बढ़ाने के लिये योजनाबद्ध ढंग से किये गए सृजनात्मक कार्य को ही रिसर्च यानी अनुसंधान एवं डेवलपमेंट यानी विकास कहा जाता है। इसमें मानव जाति, संस्कृति और समाज का ज्ञान शामिल है और इन उपलब्ध ज्ञान के स्रोतों से नए अनुप्रयोगों को विकसित करना ही अनुसंधान और विकास का मूल उद्देश्य है। रिसर्च एंड डेवलपमेंट  के तहत प्रमुखतः तीन प्रकार की गतिविधियाँ शामिल हैं- बुनियादी अनुसंधान  अनुप्रयुक्त अनुसंधान  और प्रयोगात्मक विकास |अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियाँ-इंडियन साइंस एंड रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंडस्ट्री रिपोर्ट 2019 के अनुसार भारत बुनियादी अनुसंधान के क्षेत्र में शीर्ष रैंकिंग वाले देशों में शामिल है।विश्व की तीसरी सबसे बड़ी वैज्ञानिक और तकनीकी जनशक्ति भी भारत में ही है।वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद  द्वारा संचालित शोध प्रयोगशालाओं के ज़रिये नानाविध शोधकार्य किये जाते हैं। भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में सातवें स्थान पर है। मौसम पूर्वानुमान एवं निगरानी के लिये प्रत्युष नामक शक्तिशाली सुपरकंप्यूटर बनाकर भारत इस क्षेत्र में जापान, ब्रिटेन और अमेरिका के बाद चौथा प्रमुख देश बन गया है। नैनो तकनीक पर शोध के मामले में भारत दुनियाभर में तीसरे स्थान पर है। वैश्विक नवाचार सूचकांक  में हम 57वें स्थान पर हैं। भारत ब्रेन ड्रेन से ब्रेन गेन की स्थिति में पहुँच रहा है और विदेशों में काम करने वाले भारतीय वैज्ञानिक स्वदेश लौट रहे हैं। व्यावहारिक अनुसंधान गंतव्य के रूप में भारत उभर रहा है तथा पिछले कुछ वर्षों में हमने अनुसंधान और विकास में निवेश बढ़ाया है। भारत में अनुसंधान और विकास कार्यों की रफ्तार कई क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रही है। सरकार के सहयोग और समर्थन के साथ, वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य, अंतरिक्ष अनुसंधान, विनिर्माण, जैव-ऊर्जा, जल-तकनीक, और परमाणु ऊर्जा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में पर्याप्त निवेश और विकास भी हुआ है। हम धीरे-धीरे परमाणु प्रौद्योगिकी में भी आत्मनिर्भर हो रहे हैं। कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में उपलब्धियों को छोड़ दें तो वैश्विक संदर्भ में भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास तथा अनुसंधान की स्थिति धरातल पर उतनी मज़बूत नहीं, जितनी कि भारत जैसे बड़े देश की होनी चाहिये। ऐसे में कुछ तथ्यों पर गौर करना ज़रूरी है। जैसे- भारत विश्व में वैज्ञानिक प्रतिद्वंद्विता के नज़रिये से कहाँ है? नोबेल पुरस्कार एक विश्व-प्रतिष्ठित विश्वसनीय पैमाना है जो विज्ञान और शोध के क्षेत्र में हासिल की गई उपलब्धियों के जरिये किसी देश की वैज्ञानिक ताकत को बतलाता है। इस मामले में हमारी उपलब्धि लगभग शून्य है। वर्ष 1930 में सर सी.वी. रमन को मिले नोबेल पुरस्कार के बाद से अब तक कोई भी भारतीय वैज्ञानिक इस उपलब्धि को हासिल नहीं कर पाया। कारण स्पष्ट है कि देश में मूलभूत अनुसंधान के लिये न तो उपयुक्त अवसंरचना है, न वांछित परियोजनाएँ हैं और न ही उनके लिये पर्याप्त धन उपलब्ध है। पहले और आज में ज़मीन-आसमान का अंतर |40-50 साल पहले की बात करें तो देश में लगभग 50% वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वविद्यालयों में ही होते थे। लेकिन धीरे-धीरे हमारे विश्वविद्यालयों में अनुसंधान के लिये धन की उपलब्धता कम होती चली गई। अब हालत यह है कि युवा वर्ग की दिलचस्पी वैज्ञानिक शोध में कम तथा अन्य क्षेत्रों में ज़्यादा होती है। महिलाओं की बात करें तो अमूमन उनकी शिक्षा का उद्देश्य मात्र डिग्री हासिल करना रहता है; समाज की बेड़ियाँ उन्हें शोध कार्यों और प्रयोगशालाओं तक पहुँचने ही नहीं देतीं। सी एस आई आर  का एक हालिया सर्वे बताता है कि हर साल लगभग 3000 अनुसंधान/शोध-पत्र तैयार होते हैं, लेकिन इनमें कोई नया आइडिया या विचार नहीं होता। विश्वविद्यालयों तथा निजी और सरकारी क्षेत्र की प्रयोगशालाओं में सकल खर्च भी बहुत कम है। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार यह कुल सकल घरेलु उत्पाद  का 1% भी नहीं है। वैज्ञानिक न जाने कब से यह सीमा 2% तक बढ़ाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन कोई भी सरकार इस दिशा में शायद ही कुछ कर पाई। यही नहीं कई प्रतिष्ठित राष्ट्रीय मंचों पर भी यह मुद्दा चर्चा से गायब रहता है। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि अनुसंधान/शोध पत्रों के नज़रिये से भी वैश्विक विज्ञान में भारत का योगदान केवल 2-3% है। स्पष्ट है कि आर्थिक प्रगति और सामाजिक विकास सुनिश्चित करने के लिये जितना ज़ोर राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास पर दिया जाना चाहिये, उतका लेशमात्र भी नहीं दिया जाता। इसमें संदेह नहीं कि उभरते परिदृश्य और प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्था में विज्ञान को विकास के सबसे शक्तिशाली माध्यम के रूप में मान्यता मिल रही है। इसके पीछे सरकार द्वारा किये गए प्रयासों को नकारा नहीं जा सकता। देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नए क्षेत्रों को बढ़ावा देने के लिये 1971 में ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग  की स्थापना की गई थी, जो देश में विज्ञान और तकनीकी गतिविधियों के आयोजन, समन्वय और प्रचार के लिये एक नोडल सेंटर की भूमिका निभाता है। 2035 तक तकनीकी और वैज्ञानिक दक्षता हासिल करने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने ‘टेक्नोलॉजी विज़न 2035’ नाम से एक रूपरेखा भी तैयार की है। इसमें शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य, खाद्य और कृषि, जल, ऊर्जा, पर्यावरण इत्यादि जैसे 12 विभिन्न क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिये जाने की बात कही गई है। महिला वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने और एप्लाइड साइंस में शोध करने के उद्देश्य से सरकार ने कई परियोजनाओं का भी चयन किया।किसानों को जड़ी-बूटी के उत्पादन के लिये प्रोत्साहित करने तथा इस दिशा में शोध करने के लिये जम्मू-कश्मीर आरोग्य ग्राम परियोजना, भारत को विश्व स्तरीय कंप्यूटिंग शक्ति बनाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय सुपर कंप्यूटिंग मिशन, नवाचार को बढ़ावा देने के लिये अटल इनोवेशन मिशन, अटल टिकरिंग लैब तथा विद्यार्थियों में शोध कार्यों के प्रति रुचि बढ़ाने के लिये छात्रवृत्ति प्रोग्राम इंस्पायर स्कीम इत्यादि सरकार की कुछ सराहनीय पहलें हैं। वाहनों के प्रदूषण से निपटने के लिये वायु-डिवाइस लगाए गए ।विदेशों में एक्सपोज़र और प्रशिक्षण प्राप्त करने के उद्देश्य से विद्यार्थियों के लिये ओवरसीज विजिटिंग डॉक्टोरल फेलोशिप प्रोग्राम चलाया गया । जनसामान्य के बीच भारतीय शोधों के बारे में जानकारी देने और उनका प्रसार करने के लिये अवसर- (ऑगमेंटिंग राइटिंग स्किल्स फॉर आर्टिकुलेटिंग रिसर्च) स्कीम इत्यादि जैसी अन्य कई योजनाएँ चलाई गईं । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने दूरदर्शन और प्रसार भारती के साथ मिलकर विज्ञान संचार के क्षेत्र में डीडी साइंस और इंडिया साइंस नाम की दो नई पहलों की भी शुरुआत की ।हालाँकि विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में नवाचार को बढ़ावा देने के लिये सरकार प्रयास कर रही है, फिर भी इस दिशा में और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है।शोध कार्यों में भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बेहतर राष्ट्रीय सुविधाओं के निर्माण की ज़रूरत है।केंद्र और राज्यों के मध्य प्रौद्योगिकी साझेदारी को बढ़ावा देने के लिये उपयुक्त कार्यक्रम चलाए जाने चाहिये। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए ताकि विश्वविद्यालयों में शिक्षकों का अभाव जैसी मूलभूत समस्या को दूर किया जा सके। भारत और विदेशों में आर एंड डी अवसंरचना निर्माण के लिये मेगा साइंस प्रोजेक्ट में निवेश भागीदारी, अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों को बढ़ाने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों में उचित संस्थागत ढाँचे, उपयुक्त अवसंरचना, वांछित परियोजनाएँ और पर्याप्त निवेश की भी ज़रूरत है।प्रतिभाशाली छात्रों के लिये विज्ञान, शोध और नवाचार में करियर बनाने के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है।इन सब बातों के मद्देनज़र एक ऐसी नीति बनानी होगी जिसमें समाज के सभी वर्गों में वैज्ञानिक प्रसार को बढ़ावा देने और सभी सामाजिक स्तरों से युवाओं के बीच विज्ञान के अनुप्रयोगों के लिये कौशल को बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया हो।भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान का स्तर गिरता जा रहा है, क्योंकि शोध कार्यों के क्षेत्र में करियर उतना आकर्षक नहीं है, जितना कारोबार, व्यवसाय, इंजीनियरिंग या प्रशासन में है।‘

डॉ शंकर सुवन सिंह

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