जन-जागरण

आरक्षण

राजीव गुप्ता

संविधान निर्माताओं ने बड़ी ही सूझबूझ एवं अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए संविधान की प्रस्तावना में ही सभी नागरिकों को सामान आधिकार देने की बात कही है , चाहे वह सामाजिक आधार हो , राजनीतिक आधार हो या फिर आर्थिक आधार ! वैसे भी हम सभी जानते है कि न्याय की बात तब तक सार्थक नहीं हो सकती जब तक उसका आधार समानता ना हो क्योंकि समानता ही न्याय का मेरुदंड है ! कभी यहाँ दूध की नदिया बहती थी , शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे जैसी उपमा लगभग हम सभी ने अपने देश के बारे में सुना ही है परन्तु इन सब के बीच हमें उन कडवे सच से भी दो-चार होना ही पड़ेगा जिन्होंने भारतीय समाज को अपनी कालिमा से महिमामंडित किया है ! जहां एक तरफ हमने अनेकों सभ्यताओं के आक्रमणों को करार जबाब देकर या तो उन्हें वापस भगा दिया अथवा उन्हें अपने में ही सम्मिलित कर लिया, परन्तु हम हार गए अपनी ही विभिन्न कुरीतियों जैसे बाल विवाह , सती प्रथा , छुआछूत से ! अब इसे हम हिंदुस्तान का दुर्भाग्य ना कहे तो भला इसे और कौन सी संज्ञा दें ! सबसे ज्यादा अगर भारतीय समाज का दोहन किसी कुरीति से हुआ है तो वह है छुआछूत ! यह भारतीय समाज का ऐसा कलंक है कि जब तक इसकी तह में जाकर इसका उन्मूलन ना किया जाय इसका उन्मूलन संभव ही नहीं है ! छत्रपति शिवाजी महाराज का ब्राह्मणों ने इसलिए राजतिलक नहीं किया क्योंकि वो एक क्षत्रिये नहीं थे , भीम राव अम्बेडकर अपनी पत्नी रमाबाई की अंतिम इच्छा जो एक बार पंढरपुर के मंदिर के दर्शन को जाना चाहती थी ना पूरा कर सके क्योंकि वो ऊँचे कुल के नहीं थे ! इन दो वाकयों से हम समाज में सुरसा की भांति पनपी छुआछूत जैसी कुरीति की पराकाष्ठा का अंदाजा लगा सकते है ! एक बहुत ही प्रसिद्ध सामाजिक चिन्तक बाला साहब देवरस ने यहाँ तक कह दिया कि ” अगर छुआछूत पाप नहीं तो पाप कुछ भी नहीं ” ! जिस देश के बहुसंख्यक लोगों के इष्ट देव ने निषाद को गले से लगाया हो , जटायु का अपने हाथों से अंतिम संस्कार किया हो , शबरी के जूठे बेर बड़े ही चाव से खाए हो , और तो और अहिल्या का ना केवल उद्धार किया अपितु उन्हें समाज में जगह भी दिलवाई , फिर भी ऐसे उत्कृष्ट समाज में कुरीतियों ने जन्म ले लिया और समाज को खोखला कर दिया ! इसी छुआछूत की प्रथा ने संविधान निर्माताओं के लिए समाज के एक वर्ग के नागरिक अधिकारों के हनन को मिली तत्कालीन सामाजिक मान्यता ने आरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया !

बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर थे ! उनका विचार था कि राजनीतिक लोकतंत्र आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र के बिना अधूरा हैं ! वे सामाजिक समानता और राजनैतिक स्वतंत्रता के मध्य सामंजस्य को अति आवश्यक मानते थे ! उनके अनुसार लोकतंत्र का उद्देश्य एक जाति विहीन , वर्ग विहीन तथा शोषण विहीन समाज की स्थापना करना है ! भारत में वास्तविक लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि उसकी बुनियाद सामाजिक न्याय पर नहीं खड़ी होती ! किसी भी सभ्य समाज के लिए सामाजिक और आर्थिक विषमता का दूर करना परम आवश्यक है ! उनका कहना था कि सामाजिक विषमता से एक संपन्न वर्ग असम्पन्न वर्ग का शोषण करता है इससे राष्ट्र की प्रगति में बाधा आती है ! विषमता के कारण देश का एक बड़ा वर्ग अभावों से ग्रसित है जिसके कारण देश के उत्थान में वह अपना योगदान देने से वंचित रह जाता है ! उनका मानना था कि जब तक देश का दलित जातियां ज्ञान और शक्ति से संपन्न नहीं होगी तब तक वे उन्नति नहीं कर सकती ! डा. अम्बेडकर के प्रयासों के फलस्वरूप संविधान में तीन अलग-अलग प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था की गयी है ! पहली व्यवस्था के अंतर्गत आरक्षण का प्रावधान उस समाज के लिए किया जो हिन्दू धर्म में व्याप्त छूआछूत का जबरदस्त शिकार था ! संविधान के सोलहवें अध्याय के अनुच्छेद 330 से 335 के तहत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण का प्रावधान किया गया है ! अनच्छेद 335 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है ! संविधान के इस भाग में निहित अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का आधार ” गवर्मेंट ऑफ इण्डिया एक्ट , 1935 ” की पृष्ठभूमि में ढूँढा जा सकता है ! यहाँ ध्यान देने योग्य एक बात है कि छूआछूत केवल हिन्दू धर्म के अनुयायियों में ही था अतः ईसाई और इस्लाम धर्म स्वीकार कर चुके अनुयायियों को इसके दायरे से बाहर रखा गया था ! वर्ष 1936 में अंग्रेजों ने दलित ईसाईयों को इसी कारण अनुसूचित जाती की श्रेणी में रखने से मना कर दिया था ! दूसरी व्यवस्था के अंतर्गत आरक्षण का प्रावधान उन जनजातियों के लिए किया गया था जो कि अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए और अपने अलग पहचान बनाये रखने की मुहीम में दुर्गम भूभागों में प्रतिस्थापित होती चली गयी और राष्ट्र की मुख्य धारा से कटती चली गयी ! इन सांस्कृतिक कारणों से आदिवासी जनजातियों के लए राजनीति और प्रशासन में आरक्षण का प्रावधान किया गया ताकि इन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में पुनः जोड़ सके ! अतः हम समझ सकते है अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण का आधार अनुसूचित जातियों के आधार से पूर्णतया भिन्न है ! आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रावधान देश की सांस्कृतिक सहिष्णुता और सभी वर्गों के नागरिकों को सामान रूप से प्रशासन और सत्ता में भागीदारी के अवसर प्रदान करने की राष्ट्रीय नीति का परिचायक है ! तीसरी व्यवस्था के अंतर्गत आरक्षण का प्रावधान उन “एंग्लों इंडियन” के लिए था जिनकी उपेक्षा का डर अंग्रेजों के चले जाने जाने के बाद, संविधान निर्मातों को था ! यही वो आरक्षण के तीन आधार थे जिसके लिए संविधान में अस्थायी रूप से आरक्षण का प्रावधान किया गया था ! अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए प्रारंभिक रूप से 10 वर्षों हेतु सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया गया जिसे बाद के वर्षों में 10 – 10 वर्ष के लिए बढाया गया और जो आज भी जारी है ! सरकारी नौकरियों के साथ-साथ आरक्षण की यह व्यवस्था विधायिका में भी लागू है !

संविधान के 93वें संशोधन के प्रावधानों के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़ी जातियों के सभी छात्रों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है ! वीरप्पा मोइली समिति की अनुशंसा पर शुरू किया गया यह आरक्षण एक साथ लागू ना करके इसे चरणों में लागू किया जायेगा ! वर्ष 2007 – 08 में 5 प्रतिशत , वर्ष 2008 – 09 में 10 प्रतिशत तथा वर्ष 2009 – 10 में 12 प्रतिशत के हिसाब से तीन चरणों में कुछ इस तरह से अपनाई गयी कि सामान्य वर्ग पर इसका असर ना पड़े ! उनके अनुसार इसके लिए चरण रूप से उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटों की संख्या बढाई जायेगी ! तीन वर्षों में कुल 80 ,557 सीटें बढाई जायेगी तथा इसके लिए जरूरी आधारिक संरचना के विकास हेतु 16563 .34 करोड़ रूपये व्यय किये जायेगें ! आरक्षण की यह व्ययस्था आई.आई.टी , आई.आई.एम्, एम्स तथा 20 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लागू है !

संविधान के प्रथम संशोधन 1952 में किया गया ! प्रथम संविधान संशोधन 1952 की धारा 2 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 15 में खंड 4 को स्थापित कर पिछड़े वर्गों हेतु राज्य को विशेष संरक्षण का उपाय करने की छूट दी गयी है ! संविधान में पिछड़ा वर्ग शब्द की कोई व्याख्या नहीं की गयी है ! पिछड़े वर्ग में उस समुदाय को सम्मिलित किया जाता है जिनका स्तर सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा हो ! अनुच्छेद 340 के अंतर्गत राष्ट्रपति को पिछड़े वर्गों की दशाओं और जिन कठिनाइयों में वें जी रहे हैं, उसके अन्वेषण के लिए तथा उन कठिनाइयों को दूर करने हेतु दिए जाने वाले उपायों की अनुशंसा हेतु आयोग का गठन करने का अधिकार प्राप्त है ! आयोग राष्ट्रपति द्वारा निर्देशित विषयों पर अपनी संस्तुतियां देगा और राष्ट्रपति इन संस्तुतियों को संसद के प्रत्येक सदन में रखवाएगा ! इसी अनुच्छेद के अंतर्गत प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए राष्ट्रपति द्वारा काका कालेलकर आयोग – 1935 , तथा मंडल आयोग – 1978 का गठन किया गया था !

काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को सामाजिक और शैक्षणिक मापदंड की अस्पष्टता के कारण केंद्र सरकार ने अमान्य कर दिया था ! जबकि मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने में 10 वर्ष का लम्बा समय लग गया ! मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने से उपजे विवादों के बाद रामनंदन प्रसाद की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया ! इस समिति ने ही पहली बार “क्रीमी लेयर” की अवधारणा को जन्म दिया ! इस समिति का ये कहना था कि संपन्न तथा सक्षम माता-पिता की संतानों जैसे उच्च संवैधानिक पदों,सेना में कर्नल से ऊपर के पदों, लेखक, डाक्टर इत्यादि को आरक्षण ना देने की सिफारिश इस समिति ने की ! उल्लेखनीय है कि कुछ इसी तरह का इंदिरा सहनी के प्रकरण में भी सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी ! खंडपीठ का कहना था कि इस क्रीमीलेयर तबके को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होने की संज्ञा नहीं दी जा सकती और इस वर्ग को इस लाभ में भागीदार बनाने से इनके ही वर्ग के वो लोग छूट जाते है जो वास्तव में सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए है तथा इस सुविधा के हक़दार है !

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरक्षण के इस प्रावधान से देश के दबे-कुचले वर्गों में सुधार आया है ! पिछले कई सौ सालों से शोषित इस समाज के लोग भी देश की प्रगति में अब अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे है ! देश के उच्च पदों जैसे वर्तमान लोक सभा अध्यक्ष व सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व सर्वोच्च न्यायधीश को भला कौन नहीं जनता ! इतना ही नहीं इस समाज के लोग अब सेना में , राजनीति में , यहाँ तक कि केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री , प्रतिष्ठित व्यवसायी सक्रिय रूप से देश की समाज की सेवा कर रहे है ! समय बदला ! बाबा साहेब के इस चिंतन ने जिसे सरकार ने अधूरा ही लागू किया, अब समाज में एक वैमनस्य की स्तिथिति को जन्म देना शुरू कर दिया ! कुछ दिनों पूर्व देश के प्रतिष्ठित हिंदी अखबार ने एक खबर छापी कि बुलंदशहर के एक क्षेत्र में दलित समाज के लोगों ने अपना दबदबा बनाने के लिए वहा के स्कूलों में पढ़ रही सवर्ण छात्रों के साथ बदसलूकी की जिससे लोगों में रोष था और प्रशासन को धारा 144 तक लगाना पड़ा ! मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद ना जाने कितने छात्रों ने आत्मदाह कर लिया या फिर आत्मदाह करने की कोशिश की ! आरक्षण का विरोध करने वाले छात्रों को लगता है कि इससे प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का हक मारा जाता है ! जो कि अब के समय में कुछ हद तक सही भी है ! क्योंकि अब ऐसे लोग भी आरक्षण का लाभ उठा लेते है हर दृष्टि से संपन्न है ! समाजशास्त्री कहते है अपना देश दो भागों में बंटा है – एक “भारत” और दूसरा “इंडिया” ! भारत से इनका तात्पर्य है ग्रामीण भारत से है और इंडिया से इनका तात्पर्य है शहरी भारत ! समयानुसार अब भारत और इंडिया आपस में घुलने मिलने लगे है अर्थात गावों में भी अब विकास की किरण पहुँच रही है और ग्रामीण लोगों ने भी चाहे सरकारी योजनाओं का लाभ लेकर अथवा जीविका के दूसरे आयाम से अपना जीवन स्तर सुधारना शुरू कर दिया है ! हो सकता है अभी इस तबके का प्रतिशत कम हो ! इधर इंडिया में भी एक बड़ा तबका है जिसे अपनी दो जून की दाल रोटी की जुगत भी बड़ी मुश्किल से करना पड़ता है ! अर्थात इन सबके बीच एक तबका “आम गरीब आदमी” का है जो सदैव दबा कुचला जाता रहा है इसका इतिहास साक्षी है ! और ये गरीबी आजादी के 64 साल बाद भी अपने देश पर वो कलंक है जिसे धोने का जिम्मा देश के राजनेताओं पर था परन्तु इन्होने कभी पूरी प्रमाणिकता के साथ और ईमानदारी के साथ अपने इस राजधर्म को नहीं निभाया ! हाँ अपना राजधर्म इन्होने निभाया है तो बस अपनी कुर्सी को कैसे बचाया जाय / पाया जाय, इसके लिए ये किसी भी हद तक जा सकते है , जाति के नाम पर , अगड़ा- पिछड़ा , अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के नाम पर समाज में विभेद पैदा किया है और अगर समय रहते समाज ना चेता तो आगे भी ये विभेद पैदा करते रहेगें ! कहने का तात्पर्य यह है कि गरीबी जाति या धर्म पर आधारित नहीं होती ! शहरों में भी किसी भी मत को मानने के लोग आर्थिक रूप से कमजोर हो सकते है और गाँव में भी आर्थिक संपन्न लोग किसी भी जाति के लोग हो सकते है ! एक निजी कंपनी के सर्वे के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में सुलभ शौचालयों में काम करने वाले 30 प्रतिशत लोग अगड़ी जाति के है ! इस सर्वे के आधार पर हम कह सकते है अब हमारा समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, जो कि एक स्वस्थ समाज की परिकल्पना भी देता है ! परन्तु इन सबके बीच यह सौ प्रतिशत सच है कि गरीब का बच्चा आज समयानुसार अच्छा पढ़ा लिखा नहीं हो सकता !

देश में जातिगत आधार पर नवीनतम आंकड़ों का बहुत ही आभाव है और हो भी क्यों ना 1931 में जातिगत आधार पर हुई जनगणना के बाद इतने लम्बे अन्तराल के बाद अब इस साल 2011 में पुनः जातिगत जनगणना हो रही है ! यही कारण है कि हमें आज भी 1931 की जनगणना को ही आधार मानना पड़ता है ! 1931 की जनगणना के आधार पर देश की कुल आबादी का 52 प्रतिशत पिछड़ी जातियों की आबादी है ! किन्तु इस गन्ना को लोग सच नहीं मानते ! 1998 के नेशनल फैमिली हेल्थ स्टेटिसटिक्स के अनुसार देश में पिछड़ी जातियों की आबादी 34 प्रतिशत है ! वही नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुमान के अनुसार यह आंकड़ा 37 प्रतिशत के आसपास है ! देश में आरक्षण व्यवस्था की शुरुआत सामाजिक न्याय के रूप में हुई थी परन्तु अब ये एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है ! यही कारण है कि देश में मंदक आयोग के समय जहा 2052 पिछड़ी जातियां थी वही 1994 में इनकी संख्या में इजाफा होकर 3700 तक पहुच गयी ! इस उछाल के लिए सीधे तौर पर राजनीति जिम्मेदार है ! अब थोडा इस बार का जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आने का इन्तजार कीजिये ! सारी तस्वीर साफ़ हो जायेगी !

आरक्षण की सुविधा से क्रीमीलेयर को वंचित कर न्यायलय ने सामाजिक न्याय की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है किन्तु वास्तविक न्याय तभी स्थापित हो सकता है जब आर्थिक पिछड़े हुए लोगों के उत्थान के लिए भी कुछ किया जाय ! अब समय आ गया है संविधान में संसोधन कर आरक्षण का आधार बदला जाय जिससे कि देश का विभेद ख़त्म हो सके ! अगर अब आरक्षण का आधार जाति से बदल कर आर्थिक अथवा शिक्षा कर दिया जाय तो इस सुरसा रूपी कलंक को खत्म किया जा सकता है ! सामाजिक न्याय को प्राप्त करने का बाबा साहेब का लक्ष्य तभी पूरा होगा !