महिला-जगत

आरक्षण या नेताओं के सिरदर्द की दवा

-संतोष कुमार मधुप

संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को लेकर पिछले दिनों जिस तरह हंगामा मचा वह अभूतपूर्व था। हंगामे की वजह और भी अद्भुत थी। लालू-मुलायम के नेतृत्व में कुछ दलों के सांसद, संसद में जिस बात के लिए जूतम-पैजार करने पर आमादा थे उसके निहितार्थ क्या हो सकते हैं? लालू, मुलायम और शरद रुपी यादवों की तिकड़ी मुसलमानों और पिछड़ों के लिए आरक्षण की मांग शुरु से ही करते रहे हैं। नीतिश कुमार के महिला आरक्षण के समर्थन में खड़े हो जाने से शरद यादव भले ही मुस्लिम संप्रदाय की सदभावना बटोरने में पीछे रह गए हों लेकिन लालू और मुलायम ने एक बार फिर यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोडी कि वे ही मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी हैं।

भारत के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो इस बात को लेकर कोई संशय नहीं रह जाता कि यहाँ मुस्लिम संप्रदाय शुरु से ही ”राजनीतिक टार्गेट”बनता रहा है। जब भी कोई राजनीतिक दल राजनीति के अखाड़े में कमजोर पड़ता है तो वह सबसे पहले मुस्लिम संप्रदाय को लुभाने की कोशिश करता है। इसकी ताजा मिसाल पश्चिम बंगाल सरकार का मुसलमानों को सरकारी नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला है। राज्य की वाम मोर्चा सरकार ममता बनर्जी के नेतृत्व में विपक्ष की बढ़ती ताकत से घबरा कर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए हरसंभव प्रयत्न कर रही हैं। सिर्फ पश्चिम बंगाल ही नहीं, भारत के हर क्षेत्र में मुसलमानों को लेकर सबसे ज्यादा राजनीति होती है। लगभग हर राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के लिए ‘सब कुछ’ करने को तैयार नजर आती है, इसके बावजूद अब तक मुसलमानों की स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हो पाया है। सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग के सर्वेक्षण रिपोर्ट में मुस्लिम संप्रदाय की जिस दशा का उल्लेख किया गया है वह इस बात का सबूत है कि राजनीतिक दल मुस्लिम संप्रदाय का हितैषी होने का सिर्फ दिखावा करते हैं। उनका असली मकसद मुसलमानों का अपने हित में इस्तेमाल करना होता है। मुसलमानों के लिए कुछ करने के प्रति वे कभी गंभीर नहीं होते।

एक सवाल यह भी है कि क्या हमारे देश में सिर्फ मुस्लिम संप्रदाय के लोग ही दरिद्रता का दंश झेल रहे हैं। गैर मुस्लिम आदिवासियों और पिछडे हिंदुओं की दशा भी कम बुरी नहीं है। लेकिन, उनकी स्थिति का जायजा लेने के लिए किसी कमिटी या आयोग गठित करने का जहमत कोई सरकार नहीं उठाती। राजनीतिक दलों के नेता इस बात से घबराते हैं कि हिंदुओं के पक्ष में बोलने से उन पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लग जाएगा। दूसरी तरफ मुसलमानों के सच्चे हितैषी होने का ढोंग कर वे खुद को ‘सेकुलर’ साबित करने की भरपूर कोशिश करते हैं। वोट के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण राजनीतिक दलों का प्रमुख हथियार बन चुका है। इन दलों में सभी समुदाय के लोग हैं लेकिन कोई भी मुसलमानों के सर्वांगीण विकास के लिए सच्चे दिल से कोशिश नहीं करता। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव अथवा किसी अन्य ‘धर्म-निरपेक्ष दल के नेता मुसलमानों को सिर्फ सब्जबाग दिखा कर उन्हें लूटने की कोशिश करते हैं। कांग्रेसी हों या कम्यूनिष्ट, सभी इस खेल में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं। मुसलमानों को मनाने का यह खेल सुनियोजित और गोपनीय तरीके से चलाया जाता रहा है। यह खेल भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इससे मुस्लिम समुदाय के लिए भी नई समस्याएं खड़ी होंगी।

हर प्रकार के चुनाव से पहले मुसलमानों को लुभाने के लिए उनके प्रति नाटकीय आत्मीयता प्रदर्शित की जाती है और चुनाव संपन्न होते ही सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। कई चुनाव हुए लेकिन साधारण गरीबों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। सरकारी नौकरी में आरक्षण की घोषणाएं भी उपेक्षित वर्ग के लिए अधिक लाभकारी सिध्द नहीं हो सकी। महज कुछ लोगों को आरक्षण का रिश्वत देकर किसी पिछड़े समुदाय को आगे नहीं लाया जा सकता। कुछ राजनेता जिस प्रकार मुसलमानों के पक्ष में ताल ठोंक रहे हैं वह मुस्लिम समुदाय के हितों के प्रतिकूल ही कहा जाएगा। राजनेताओं की इस कार्यशैली के कारण ही अन्य समुदायों की दृष्टि में मुसलमानों की स्थिति संदिग्ध होती जा रही है। सही अर्थों में देखा जाए तो किसी न किसी रूप में प्रत्येक राजनीतिक दल का एक गोपनीय सांप्रदायिक एजेंडा है। हालाँकि यह बात किसी से छुपी नहीं है कि आज दुनिया के अधिकांश देश जिस आतंकवाद की समस्या से जूझ रहे हैं उसके पीछे भी सांप्रदायिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसे में हमारे नेता अल्पसंख्यकों के लिए अनावश्यक शोर मचा कर देश के लिए नई समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। नेताओं को इस बात का इल्म जरूर होना चाहिए कि सामाजिक कुरीतियां, सांप्रदायिक संकीर्णता और अशिक्षा जैसी समस्याओं को दूर किए बगैर किसी को सरकारी नौकरी के काबिल नहीं बनाया जा सकता। देश के शैक्षणिक संस्थानों में हजारों पद रिक्त पड़े हैं। उन पदों पर नियुक्ति के लिए अल्पसंख्यक समुदाय को योग्य बनाने के बजाए उन्हें आरक्षण देना कहाँ तक न्यायोचित है।

आजकल भारतीय राजनीति आरक्षण रुपी पहिये के ईर्द-गिर्द चक्कर काटती नजर आ रही है। आरक्षण के अलावा आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों जैसे और कई ज्वलंत मुद्दे हैं जिन पर बहस की जरूरत है लेकिन आरक्षण के आगे सब फीके हैं। जो लोग यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि मुस्लिम या किसी अन्य समुदाय का उध्दार सिर्फ आरक्षण से ही हो सकता है, वे दरअसल पाखंड का सहारा ले कर अपना हित साधना चाहते हैं। ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’ का नारा देकर लगातार दो बार कांग्रेस को सत्ता दिलाने में कामयाब रहीं सोनिया गांधी को इस बात का अहसास जरूर होगा कि पिछले कुछ समय से ‘आम आदमी’ को जीने के लिए जिस तरह जूझना पड रहा है उसका खामियाजा उनकी पार्टी को अगले चुनावों में भुगतना पड सकता है। लिहाजा, कांग्रेस इस बार आरक्षण का मंत्र फूंक कर अपना रास्ता साफ करने की जुगत लगा रही है। ‘आरक्षण में आरक्षण’ की मांग करने वाले अन्य राजनीतिक दलों की भी कुछ इसी तरह की मजबूरिया हैं। इसलिए, ये सभी राजनीतिक पार्टिया इस मुद्दे पर अनावश्यक शोर मचा कर आरक्षण का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहती हैं।

आरक्षण से महिलाओं को कितना फायदा होगा इसका अनुमान लगाने के लिए समय-समय पर धर्म के आधार पर दिए गए आरक्षण के नतीजों से लगाया जा सकता है। आरक्षण से मुस्लिम समाज अगर सशक्त होता तो सच्चर कमिटी की रिपोर्ट शायद इतनी निराशाजनक नहीं होती। बिहार सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दे रखा हैलेकिन अभी तक महिलाओं को इसका कोई ठोस लाभ नहीं मिल सका है। उनकी जिम्मेदारी चुनाव के दौरान नामांकन पत्र तथा चुनाव में जीतने के बाद विभिन्न दस्तावेजों पर अपने पति या परिवार के किसी अन्य पुरुष सदस्यों के निर्देशानुसार हस्ताक्षर करने या अंगूठा लगाने तक सीमित है। पंचायत प्रतिनिधि के तौर पर महिलाओं को मिलने वाले सभी अधिकारों का इस्तेमाल उनके पति या कोई अन्य पुरुष परिजन ही करते हैं। पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर पहले मुसलमानों को सरकारी नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की और अब बिहार की तर्ज पर पंचायतों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है। इन घोषणाओं से जनता को फायदा मिले न मिले लेकिन इतना तय है कि राजनीतिक पार्टियां आरक्षण का अधिक से अधिक लाभ उठाने से नहीं चूकना चाहती। राजनीतिक दलों के बीच आरक्षण को लेकर शुरु हुए दंगल के बीच आम आदमी हमेशा की तरह खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।