वैचारिक बहस को वैचारिक ही रखे

साक्षी श्रीवास्‍तव

विचार में ताकत होती है और यह लोगों को सोचने और बदलने के लिए बाध्य करती है. हर युग में एक बौद्धिक वातावरण होता है. जो उस बौद्धिक वातावरण में एजेंडा तय करता है और विमर्श का नेतृत्व करता है उसे dominant ideology कहते हैं. भारत के वर्तमान परिपेक्ष्य में जब नई चुनौतियां दस्तक दे रही हैं और समाज को अर्थव्यवस्था के माध्यम से विखंडित किया जा रहा है तब सोच, समझ और नया ध्रुवीकरण आवश्यक हो जाता है. इसलिए प्रो राकेश सिन्हा के बौद्धिक गतिविधियों ने उस वातावरण को जन्म दिया, जिसमे हर कोई यह प्रश्न कर रहा है कि मैं उसके पास क्यों जाऊ और उसे हम क्यों बुलाये? जब परम्परागत ढांचा ढहता है तो ऐसी व्‍याकुलता और हाय तोबा अति स्वाभाविक है. प्रो सिन्हा की यह उक्ति बहुत ही अच्‍छी लगी कि अभी और भी पत्थर फेंके जाएँगे.

संवाद से ही वर्तमान संवारता है और भविष्य का रास्ता तय होता है. दो उदहारण; प्रथम, जमींदारी और जागीरदरी के खिलाफ जब वैचारिक माहौल बन रहा था तब जनसंघ को conservative party की तरह देखा जाता था और लोग सोचते थे कि यह ज़मींदारों के समर्थन में जाएगा. पर हुआ इसके विपरीत. राजस्थान विधान सभा में जब इसे हटाने के लिए विधेयक आया तब जनसंघ के पास तेरह विधायक थे. उनमे ११ ज़मींदारी के समर्थक थे. जनसंघ ने उन्हें दल से निकल दिया और पार्टी के पास मात्र २ विधायक रह गए. दूसरी घटना १९६७ की है. तब जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय और समाजवादी राममनोहर लोहिया के बीच संवाद ने गैर कांग्रेसवाद को जन्म दिया और विपक्ष की सरकार हिंदी प्रदेशों में बनी. तब जो महत्वपूर्ण बात थी वह समझने की जरूरत है. कम्‍युनिस्ट पार्टी स्वतंत्र और जनसंघ पार्टी के साथ सरकार में शमिल हुई. राजस्‍थान में कम्‍युनिस्ट के एक विधायक पर था कि सरकार कांग्रेस की बने या विपक्ष की. कम्युनिस्ट पार्टी ने विपक्ष का साथ दिया. यहाँ तक कि कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्ता और स्वतंत्र पार्टी की महारानी गायत्री देवी ने एक साथ संवादाता सम्मलेन किया. इसके साथ तीसरी घटना है. जेपी जब जनसंघ के सम्मलेन में १९७३ में गए तो उन्हें कितनी गलियां पड़ीं. पर वे दूरद्रष्टा थे. तब जेपी आन्दोलन के दौरान विपक्ष ने विधान सभा से इस्तीफा देने का निर्णय लिया. इस पर जनसंघ के २५ विधायकों में १४ ने विरोध किया. पार्टी ने उन सबको निकल दिया, जिन्होंने बाद में जनार्दन तिवारी के नेतृत्‍व में लोकतान्त्रिक विधायक दल का गठन किया. सम्वाद साहस और धैर्य की परीक्षा करता है. इसमें ईमानदारी की जरूरत होती है और दिनदयाल एवं लोहिया की तरह प्रतिबद्धता की. इसी से नई लकीर खींची जाती है और सामायिक चुनौतियों का मुकाबला भी किया जाता है. भारत नीति प्रतिष्ठान ने कुछ ऐसा ही कर दिखया है. आप देखिये आज बहस का एजेंडा किसने सेट किया? अगर प्रो. राकेश सिन्हा पिछले कुछ वर्षों से प्रतिबद्धता और एक दूरगामी समझ के आधार पर निरंतर प्रयास नहीं करते तो क्या यह स्थिति बन पाती? उन्होंने जनसत्ता जैसे अख़बार को बाध्य कर दिया कि एक महीने तक इस प्रकरण में उलझ जाए. वामपंथी कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि पहली बार आरएसएस के एजेंडा के आधार पर वे बौद्धिक बहस में उलझे हैं. मैंने भी मोहल्ला और जनपथ जैसे वेब पत्रिका को पढ़ा है और आप भी पढ़िए और फिर गौर कीजिये. राकेश सिन्हा द्वारा डॉ हेडगेवार पर शोध कोई सामान्य जीवनी नहीं है. आप संघ एवं संघ के विरोधी दोनों प्रकार के लोगों जिन्होंने उसे पढ़ा है पूछिए! वे एक स्‍थापित चिन्तक के रूप में उभरे हैं। इसे मार्क्सवादी पत्रिका समयांतर ने अपने नवीनतम अंक में एक तरह से स्वीकार किया है.

प्रो. सिन्हा ने कई पहलुओं को छुआ है. उनमें एक व्यक्तिगत जीवन में सच्चरित्रता की बात की है. लोग बौद्धिकता का मतलब जैसे-तैसे किताब छापना समझते है. राकेश सिन्हा के सामने की चुनौतियों को देखें. कौन है उन्हें बौद्धिक स्‍तर पर समर्थन के लिए? क्या वे किसी महत्वपूर्ण पद पर है? वे मार्क्सवादी माफिया के सबसे बड़े पीडि़त व्यक्ति हैं. मार्क्सवादियों के दुर्ग दिल्ली विश्विद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग में प्रथम आ जाना और स्वर्ण पदक लेना उन्हें ललकारने और चुनौती देने के समान था. तभी तो उन्होंने उनसे और गोडसे में समानता सम्बंधित प्रश्न पूछा था जिसका ऐसा जवाब दिया कि वे भी चुप रह गए. यह व्यक्तिगत प्रशंसा नहीं है बल्कि एक phenomena है. उनके जीवन के इन प्रश्‍नों को उनसे अलग कैसे किया जा सकता है? आखिर टी व चैनल उन्हें ही क्यों बुलाता है? क्या वे संघ में कोई पद या भाजपा में किसी पद पर हैं? एक सांध्य कॉलेज के प्राध्यापक को कौन पूछता है पर सिन्‍हा ने साबित कर दिया है कि व्यक्ति यदि संपन्न हो तो मंच या पद का महत्व वह निर्धारित करता है. सच्चर कमिटी के ऊपर किसने हजारों पृष्‍ठ पढ़कर पूरे सेकुलर तंत्र और बौद्धिक धारा को कठघरे में खड़ा किया? उन्होंने चालीस हजार पृष्ठों को पढ़कर इस कमिटी की असलियत को उजागर किया. क्या मिला इसके एवज में उन्हें? ईमानदार और प्रतिबद्ध व्यक्ति इसी तरह समर्पण भाव से काम करता है. अगर ऐसे दस लोग हो जाए तो वैकल्पिक धारा के सामाजिक दर्शन का आधिपत्य स्थापित हो जाएगा.

संवाद एक मजबूत शस्‍त्र है जो समाज का परिष्कार और बौद्धिक आन्दोलन को समाजोपयोगी बनता है. दूर के पंगत में बैठकर या अपने घर में ही वह वही लुटाकर आप समाज का नेतृत्‍व नहीं कर सकते हैं. आपको तो अपने अफसाने के सतत् दूसरों का भी अफसाना सुनना होगा. यही प्रक्रिया भारत नीति प्रतिष्‍ठान ने आरम्भ किया है.

‘प्रवक्ता’ को इसके लिए साधुवाद देना चाहिए कि इसने इसे आगे बढ़ाने का काम किया है. इस संवाद में कितनी ताकत है कि ऐसे अनेक लोग आज ‘प्रवक्ता’ से जुड़ गए जो अब तक इस तक नहीं पहुँच सके थे. आप के पास तो statistics होगा ही.

एक ही बात दुखद है कि लोग पूरे बहस को गाली-गलौज के स्‍तर पर ले जाते हैं. अराजकता से बहस नहीं होती है. शब्दों के सार्थक स्वरूप से रचनात्‍मक बहस होती है जो जारी रहनी चाहिए।

2 COMMENTS

  1. सटीक बात. कई ऐरिहासिक प्रसंगों और राकेश जी के बारे में प्रमाणिक जानकारी वाकई में ज्ञानवर्धक है. आशा है कम्युनिस्ट लोग वैचारिक शुचिता का रथ समझेंगे. इससे उनकी खुद की और समाज की भलाई है.

  2. वैचारिक मतभेद बातचीत से ही सुलझ सकते हैं जब दो सोच के लोग आपस में बात ही नही करेंगे तो मसला कभी भी हल नही होगा.

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