‘क्रांति अन्ना’ की असफलता के निहितार्थ

5
193

तनवीर जाफ़री

गत् तीन दशकों से भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुखरित होकर अपनी आवाज़ बुलंद करने वाले तथा गांधीवादी सिद्धांतों पर चलते हुए अनशन व सत्याग्रह कर कई मंत्रियों व अधिकारियों को उनकी कुर्सियों से नीचे उतार देने वाले अन्ना हज़ारे आखिकार जनलोकपाल विधेयक संसद में लाए जाने के मुद्दे को लेकर चलाए जाने वाले आंदोलन में ‘असफल’ होते नज़र आए। जनहित में कई बार अपनी आवाज़ बुलंद करने वाले तथा नि:स्वार्थ व बिना किसी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के सरकार के विरुद्ध संघर्ष छेडऩे वाले अन्ना हज़ारे जनलोकपाल के पक्ष में चलाए जाने वाले आंदोलन को लेकर आखिर क्यों मायूस हुए? सवाल यह भी है कि अन्ना हज़ारे जैसा क्रांतिकारी व्यक्ति जब भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में असफल साबित हो गया तथा सरकार इस मोर्चे पर जीतती हुई नज़र आई तो क्या देश में भविष्य में अब कभी भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध सख्त कानून बनाए जाने संबंधी इतनी बुलंद आवाज़ फिर कभी नहीं उठेगी? आंदोलन अन्ना की नाकामी से क्या ईमानदार व सदाचारी लोगों के हौसले पस्त हुए हैं? और ठीक इसके विपरीत भ्रष्टाचारियों व देश की व आम जनता की संपत्ति को दोनों हाथों से लूटकर खाने वालों के हौसले बुलंद हुए हैं? सवाल यह भी है कि अन्ना हज़ारे ने क्या सोचकर और किस बलबूते पर केंद्र सरकार के विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन छेड़ा था। और ऐसे क्या हालात पैदा हुए कि देश को राजनैतिक विकल्प देने की बात करने वाले अन्ना हज़ारे मात्र 24 घंटों के भीतर ही राजनैतिक विकल्प देने की अपनी घोषणा से तो पीछे हटे ही साथ-साथ जनलोकपाल विधेयक को लेकर भविष्य में किसी प्रकार के आंदोलन चलाए जाने की संभावनाओं से भी इंकार करते हुए देखे गए।

इसमें कोई शक नहीं कि कम शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद अन्ना हज़ारे अपनी उम्र व तजुर्बे के लिहाज़ से काफी बुद्धिमान, सूझबूझ रखने वाले तथा दूरदर्शी व्यक्ति हैं। परंतु जिस प्रकार शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल,मनीष सिसोदिया, संतोष हेगड़े व किरण बेदी जैसे उच्च शिक्षित लोगों ने टीम अन्ना के रूप में अन्ना हज़ारे को घेर रखा था तथा अन्ना की आवाज़ के रूप में इन्हीं में से कोई न कोई सदस्य आंदोलन संबंधी सूचनाएं अथवा घोषणाएं जारी करता रहता था उसे देखकर आलोचकों को यह संदेह होने लगा था कि अन्ना हज़ारे अपनी टीम के सदस्यों के दबाव में आकर या उनके कहने या बहकावे में आकर कोई $फैसला लेते हैं या घोषणाएं करते हैं। कुछ लोग तो यहां तक कहते थे कि अन्ना टीम के सदस्य उन्हें सरकार के विरुद्ध भडक़ाने व उकसाने का काम करते हैं। जनलोकपाल विधेयक संसद में पारित कराए जाने हेतु चलाए गए आंदोलन के दौरान भले ही इस प्रकार की स्थिति स्पष्ट रूप से देखने को न मिली हो परंतु गत् दिनों जंतरमंतर पर इस प्रकार का विरोधाभास तथा टीम अन्ना व अन्ना हज़ारे की योजनाओं के मध्य मतभेद सा$फतौर पर ज़रूर देखने को मिले। जनलोकपाल आंदोलन की समाप्ति के समय अन्ना हज़ारे व उनकी टीम के अलग-अलग सुर देखकर यह ज़रूर महसूस हुआ कि पूर्व में भी निश्चित रूप से ऐसे ही कई फैसलों को लेकर अन्ना को समय-समय पर आलोचना का सामना करना पड़ता था। उदाहरण के तौर पर हिसार के संसदीय उपचुनाव में टीम अन्ना द्वारा कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध किया जाना।

कुछ ऐसे ही हालात जंतरमंतर पर भी गत् 2 अगस्त को उस समय पैदा हुए जबकि टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल की अनशन के दौरान हालत बिगड़ गई और सरकार की ओर से अनशन के 9 दिनों तक कोई भी नुमाईंदा किसी अनशन कारी के स्वास्थय की जानकारी लेने या आंदोलन के विषय में पूछताछ करने जंतरमंतर तक नहीं पहुंचा। अरविंद केजरीवाल के जीवन के प्रति हमदर्दी का भाव जताने वाले कई लोगों ने जिनमें कई विशिष्ट लोग भी शामिल थे यह कह कर अनशन को समाप्त कराने की घोषणा कर दी कि अब टीम अन्ना 2014 के चुनाव में सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेकर देश को एक नया राजनैतिक विकल्प देगी। परंतु इस घोषणा के अगले ही दिन यानी 3 अगस्त को अन्ना हज़ारे ने अपनी टीम की सलाह के बिना अपने विशेष अंदाज़ में बोले जाने वाली हिंदी भाषा में अपने ब्लॉग पर जो कुछ लिखा उसे देखकर निश्चित रूप से न केवल अन्ना के अंतर्मन की पीड़ा का एहसास हुआ बल्कि उनके वक्तव्य में इस बात की भी साफ झलक दिखाई दी कि 24 घंटे पूर्व टीम अन्ना द्वारा राजनैतिक विकल्प देने की जो घोषणा की गई थी यहां तक कि प्रस्तावित राजनैतिक दल का नाम भी जनता से ही पूछा जाने लगा था इन सभी बातों में अन्ना हज़ारे की अपनी कोई सहमति नहीं थी। बजाए इसके टीम अन्ना के शिक्षित व बुद्धिजीवी सदस्यों द्वारा स्वयं ऐसी जटिल व विरोधाभासी योजनाएं बनाकर अन्ना हज़ारे के नाम से उन्हें सार्वजनिक किया जा रहा था।

अन्ना हज़ारे ने अपने ब्लॉग में साफतौर पर यह लिखा कि जनता ही अच्छे या बुरे सदस्यों का निर्वाचन करती है। उन्होंने यह भी लिखा कि जनहित के लिए ही उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेड़ी थी। परंतु राजनीति के दलदल में उतरने से उन्होंने इंकार किया। अन्ना ने यह भी लिखा कि भ्रष्टाचार के मुक़ाबले एक ईमानदार, राजनैतिक विकल्प दिए जाने हेतु पंचायत, वार्ड,मोहल्ला स्तर पर सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए। परंतु उन्होंने अपनी पार्टी बनाए जाने या स्वयं चुनाव लडऩे से सा$फ इंकार कर दिया। अन्ना ने अपनी टीम को भंग किए जाने की घोषणा भी लगे हाथों कर डाली। क्योंकि उनके अनुसार टीम का गठन जनलोकपाल विधेयक के लिए ही किया गया था। अन्ना द्वारा इस आंदोलन को समाप्त किए जाने की घोषणा के बाद अब यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या भविष्य में अब कभी भ्रष्टाचार विरोधी इतनी बड़ी मुहिम नहीं छिड़ेगी? क्या भ्रष्टाचारियों ने सदाचारियों पर बढ़त हासिल कर ली है? क्या जनता पुन: इतनी बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कभी आगे भी संगठित हो पाएगी? ज़ाहिर है ऐसे सवाल भी आंदोलन अन्ना के समाप्त होने के साथ ही पैदा हो गए हैं।

अनशन व भूख हड़ताल के जिस अहिंसक हथियार से महात्मा गांधी व उनके लाखों सत्याग्रही स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ों को देश छोडक़र जाने के लिए मजबूर कर दिया था आखिर वही अहिंसक अस्त्र स्वतंत्र भारत की सरकार को क्यों नहीं झुका सका? स्वयं अन्ना हज़ारे भी कई बार यह कहते हुए सुनाई दिए हैं कि देश अभी आज़ाद कहां हुआ है। गोरे गए और कालों ने आकर देश को फिर गुलाम बना लिया है। यदि हम इस विषय की गहराई से पड़ताल करें तो हम यह देखेंगे कि जहां महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में पूरा देश उनके नेतृत्व को स्वीकार कर रहा था, स्वतंत्रता हेतु हर प्रकार के संघर्ष करने को पूरा देश तैयार था। चाहे वह भूख-हड़ताल करते हुए अपने प्राण त्यागने की बात हो या फिर सीने पर गोली खाने की या अंग्रज़ों के बूटों की ठोकरें खानी हों या उनके घोड़ों की टापों के नीचे रौंदे जाने की बात हो या फिर फांसी के तख़्त पर लटकने की ज़रूरत हो, उस समय प्रत्येक हिंदुस्तानी हर प्रकार की क़ुर्बानी देने के लिए तैयार नज़र आता था। ज़ाहिर है ऐसे दृढ़ संकल्प व अभूतपूर्व इच्छाशक्ति के आगे इंसान तो क्या शायद ईश्वर भी झुक जाए। नतीजतन बलिदान देने का हौसला रखने वाली स्वतंत्रता सेनानियों की ऐसी जांबाज़ टोलियों के आगे अंग्रेज़ों को झुकना पड़ा और देश को स्वाधीनता हासिल हो गई। परंतु आज परिस्थितियां कुछ भिन्न हैं। क्या सरकार तो क्या आम आदमी। देश का बहुत बड़ा तब$का नि:संदेह देश के अधिकांश लेाग सुविधा भोगी वातावरण के पोषक हो गए हैं। कम से कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने की चाह लगभग हर व्यक्ति की दिखाई देती है। परिवार के सदस्य अपने परिवार के मुखिया से उसकी कमाई से अधिक चीज़ों की उम्मीद लगाए रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति ऐशपरस्त व सुविधाभोगी होता जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थय व दैनिक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें भी लोगों को अधिक कमाई करने हेतु प्रोत्साहित कर रही हैं। मोटी रिश्वत देकर लोगों को नौकरियां मिल रही हैं। स्वयं अन्ना हज़ारे ने यह स्वीकार किया कि चुनाव हेतु करोड़ों रुपये ख़र्च किए जाते हैं। यह पैसे कहां से आएंगे? ज़ाहिर है जो व्यक्ति करोड़ों रुपये ख़र्च कर चुनाव जीतेगा या लाखों $खर्च कर नौकरी हासिल करेगा क्या वह ख़र्चकिए गए अपने इन पैसों की वापसी की कोशिश नहीं करेगा?

उपरोक्त हालात में साफ है कि जब हमारे समाज का ही एक बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार का समर्थक, उसका पोषक,संरक्षक या कहीं न कहीं से भ्रष्टाचार में भागीदार हो फिर आखिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध समग्र कांति की बात ही कहां से आ सकती है। लिहाज़ा अन्ना हज़ारे सहित भ्रष्टाचार के विरुद्ध परचम उठाने वाले सभी समाज सुधारकों को चाहिए कि वे राजनैतिक दांवपेंच या कानूनी झंझटों में पडऩे के बजाए देश के प्रत्येक नागरिक को भ्रष्टाचार व उसके नुकसान के बारे में समझाने व जागरुक करने का प्रयास करें। जिस प्रकार आज देश में भ्रष्टाचारियों की एक ऐसी बड़ी जमात है जो प्रतिदिन हरामखोरी की कमाई के बिना रह नहीं सकती उसी प्रकार इस देश में तमाम लोग आज ऐसे भी हैं जो यदि चाहते तो अपने जीवन में अपने पद व सत्ता के बल पर अन्य भ्रष्टाचारी नेताओं व अधिकारियों की तरह अरबों रुपये कमा लेते। परंतु उन्होंने ऐसा करने के बजाए समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया। लिहाज़ा ऐसे ईमानदार लोगों को प्रेरक के रूप में जनता के बीच जाना चाहिए। धर्मगुरुओं, तथा समाजसेवी संगठनों को जन-जन को भ्रष्टाचार के विरुद्ध जागरुक करने में अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए। ऐसा दीर्घकालीन जनआंदोलन निश्चित रूप से एक न एक दिन ज़रूर अपना रंग दिखा सकता है।

5 COMMENTS

  1. Why U say there’s no alternative (VIKALPA)…. Gujarat C.M. narendra Modi has proved that he’s the best alternative & true grass root leader….. Let’s support him irrespective of our religious credentials & see the results….. But, Congress & all pol parties hv fractured the voters on religious & casteist lines——the worst sort of politics……
    SO, PLZ. UNDERSTAND THAT NARENDRA MODI IS A GREAT “VIKALPA” TO THE “SHIKHANDI SARDAR”, ANTONIA & HER DON QUIXOTE ‘BABA VINCI’……

  2. तनवीर साहब, आपने बड़ी सटीक बात कही है. वास्तव में देश की अधिकांश जनता ने भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया है. ट्रेन में टी टी ई को पैसे देकर बर्थ लेने से लेकर रोजमर्रा के छोटे छोटे कामों के लिए सुविधा शुल्क देकर काम कराना एक मजबूरी है. और लोग इससे समझौता कर चुके हैं. हालाँकि कोई भी इसे दिल से स्वीकार नहीं करता है. इसका एक बहुत बड़ा कारन हमारी अर्थ नीति भी है जिसके कारन वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता उतनी नहीं है जितनी मांग है. जो मांग की तुलना में सप्लाई बढाकर दूर की जा सकती है. ये काम नामुमकिन नहीं है. केवल इक्षा शक्ति की आवश्यकता है. अस्सी के दशक से पूर्व यदि किसी को स्कूटर खरीदना होता था तो या तो दशकों तक प्रतीक्षा सूची का इंतजार करो या ब्लेक में खरीदो. औद्योगिक नीति बदल कर आज स्थिति पूरी तरह ग्राहक के हक़ में बदल चुकी है. ट्रेनों की संख्या और बर्थ की संख्या में अपेक्षित व्रद्द्धि करके इस पर भी ब्रेक लग सकता है. सरकारी कार्यालयों के कामकाज में पारदर्शिता लेन के लिए ज्यादा से ज्यादा कामों का आऊटसोर्सिंग करने से गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है.
    वर्तमान में लोगों का भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश भ्रष्टाचार के बहुत बड़े -२ मामलों का भंडाफोड़ होने से फूट पड़ा है. जब पब्लिक के सामने हर घोटाला कई कई लाख करोड़ का सामने आ रहा है तो ऐसे में लोगों का गुस्सा फूटना लाजिमी है. लेकिन पिछले साल की तुलना में इस साल अन्नाजी का आन्दोलन अधिक प्रभावी न दिखाई देने का एक कारन टीम अन्ना के लोगों के विरुद्ध विभिन्न मामलों का खुलासा और उनका घमंडी रुख भी जिम्मेदार है.
    लेकिन वर्तमान दौर में अन्नाजी द्वारा कदम पीछे खींच लेने मात्र से आन्दोलन को समाप्त या असफल नहीं कहा जा सकता. युद्ध में बहुत से मोर्चे होते हैं और किसी एक या दो मोर्चों पर कदम पीछे खींच लेने मात्र से युद्ध समाप्त या असफल नहीं हो जाता. और इस आन्दोलन ने जनजागरण का महत्वपूर्ण काम किया है. और अब अन्नाजी को बड़ा आन्दोलन करने की बजाय छोटे छोटे शहरों में स्वयं जाकर लोगों को जागरूक करना चाहिए.लेकिन इसके लिए अपने प्रभाव को राजनीतिक दल खड़ा करने के काम में लगाकर नष्ट नहीं करना चाहिए.
    एक बात और. भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या है. लेकिन जनलोकपाल इसका कोई रामबाण समाधान नहीं है. सुब्रमण्यम स्वामीजी ने बिना लोकपाल के भी ऐ राजा और अन्य बड़े लोगों को महीनों तक जेल की हवा खिलव दी और सी बी आई को भी सर्कार की बजाय सर्वोच्च न्यायलय की देखरेख में जांच के लिए मजबूर कर दिया. तो क्यों नहीं शांति भूषण, प्रशांत भूषण और एनी विधिवेत्ता एक वास्तविक जनलोकपाल बना लेते और उसके द्वारा भ्रष्टाचार से सताए लोगों को कानूनी मदद देने का काम प्रारंभ कर देते ताकि ऐ राजा. कनिमोझी जैसे ही अन्य भ्रष्टाचारियों को भी जेल की हवा खिलाई जा सके. ये कार्य बिना सरकारी कानून के भी उसी प्रकार हो सकता है जैसे स्वामीजी ने किया है. ठोस काम करने के लिए भूख हड़ताल या भीड़ जुटाकर आन्दोलन करने की बजाय भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध मुक़दमे दायर करके ठोस पहल के द्वारा की जा सकती है. अँधेरे को कोसने से अच्छा है एक मोमबत्ती जला दो.

    • अनिल गुप्ता जी,
      आपने अच्छा विश्लेषण किया है .यह भी सही है कि वर्तमान परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि लोग समझौते के साथ जीने को मजबूर हैं.दूसरी बात जो आपने कही है और बहुत ही महत्त्व पूर्ण बात कही है कि सुब्रमण्यम स्वामी ने तो वर्तमान क़ानून के सहारे ही इतने लोगों को जेल की हवा खिला दी.पर क्या कुछ दिनों तक किसी नेता या पदाधिकारी को जेल में रख देने से ही भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा?या वे नेता फिर प्रतिनिधि नहीं बन सकेंगे?वर्तमान क़ानून की यही सीमा है और इसी का लाभ भ्रष्ट नेता और पदाधिकारी उठाते आ रहे हैं.जब तक क़ानून में परिवर्तन नहीं आएगा,तब तक भ्रष्टाचार एक कम जोखम और अधिक लाभ का सौदा बना रहेगा. इसको ज्यादा जोखिम और कम लाभ का सौदा बनाए बिना भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा.भारत को छोड़कर दुनिया का शायद ही ऐसा कोई प्रजातांत्रिक देश हो जहाँ लोकपाल के सदृश कोई संस्था नहीं हो.

  3. तनवीर जाफरी जी आप उम्र में मुझसे कम अवश्य हैं,पर आपके लेखों की परिपवक्ता आपको अपने उम्र से ज्यादा अनुभवी होने का अहसास दिलाती है,पर इस लेख में आप अच्छे खासे अपरिपक्व नजर आ रहे हैं.आप ने यह वर्णन ठीक ही किया है कि भारत में भ्रष्टाचार से लाभ उठाने वालों का एक बड़ा समुदाय बन चुका है.उसमे मैं यह भी जोड़ देना चाहता हूँ कि जो अभी तक भ्रष्टाचार से लाभ नहीं उठा सका है,उसमे भी अधिकतर लाभ उठाने के लिए तैयार बैठे है.इस वातावरण में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ना उससे ज्यादा कठिन है,जितना आजादी के लिए लड़ना था.दो बार की नाकामियाँ भी सामने है.१९७७ और १९८९ की.यह तो अन्ना हजारे का करिश्मा है या स्वामी राम देव का व्यक्तिगत प्रभाव है ,जिसके चलते लोग इतनी अधिक संख्या में इसके साथ जुड़े.नहीं तो इस देश में १०० से अधिक गैर सरकारीसंस्थाएं हैं,जो अपने ढंग से इस लड़ाई में लगी हुई है.उनमे आपसी ताल मेल न होने के कारण न उनका कोई प्रभाव है, न जनता को उनसे कोई उम्मीद.इस हालत में यह उम्मीद करना कि इस इस तरह के आन्दोलनों से तत्काल कोई लाभ होगा एक बड़ी गलतफहमी का शिकार होना है.वास्तविकता यह है कि इस तरह का लंबा आन्दोलन भी शायद ही कारगर सिद्ध हो,क्योंकि न अन्ना हजारे अमर हैं और न हीं स्वामी रामदेव.देश अभी विकल्प खोज रहा है.आज भी भारत की आम जनता विश्वसनीय विकल्प पर दाव लगाने को तैयार है.आवश्यकता है उस विकल्प को सामने आने की.टीम अन्ना के पूर्व सदस्यों और अन्ना को वह विकल्प देने सामने आना ही होगा और मुझे पूरी उम्मीद है कि वे आयेंगे और तब फैसला जनता के हाथ में होगा.मैंने साठके दशक में देखा है कि किस तरह कुछ पार्टियों के स्वयं सेवक दिन दिन भर अपना खाना खा कर पार्टी के प्रचार में लगे रहते थे.किस तरह वे घर का खाना लेकर पोलिंग बूथ पर दिन भर बैठे रहते थे..अगर अन्ना अपने स्वयं सेवकों में वह जज्बा जगा सकें तो कोई कारण नहीं कि वैसा दृश्य आज नहीं दिखे औरउनके पार्टी के उम्मीदवारों का खर्च भी कम न हो जाए.

  4. तनवीर जाफरी जी अंतिम पैरा में आपने बहुत उचित बात कही है,
    “जब हमारे समाज का ही एक बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार का समर्थक, उसका पोषक,संरक्षक या कहीं न कहीं से भ्रष्टाचार में भागीदार हो फिर आखिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध समग्र कांति की बात ही कहां से आ सकती है”.

    यही आज की हकीकत है, और जन चेतना ही इसका निराकरण है. साधुवाद एक सार्थक लेख के लिए.

Leave a Reply to आर.सिंह Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here