रेत के टीले
रेत का सागर,
मीलो तक इनका विस्तार,
तेज़ हवा से टीले उड़कर,
पंहुच रहे कभी दूसरे गाँव,
दूर दूर बसे हैं,
ये रीते रीते से गाँव,
सीमा पर कंटीले तार,
चोकस हैं सेना के जवान
शहर बड़ा बस जैसलमेर।
ऊँट की सवारी
पर व्यापारी,
शहर से लाकर
गाँव गाँव मे,
बेचें हैं सारा सामान।
ऊँट सजीले,लोग रंगीले,
बंधनी और लहरिया,
हरा लाल और नीला पीला
घाघरा चोली पगड़ी निराली,
लाख की चूडी मंहदी रोली,
और घरेलू सब सामान।
पानी बिना,
सब हैं बेहाल,
गाँव की छोरी,
गाँव की बींदनी,
पानी की तलाश मे,
मटके लेकर मीलो तक,
यो ही भटक रहीं हैं,
पैरों मे छाले,
सिर पर मटके,
दिन सारा इसी मे बीते
रात मे जाकर चूल्हा फूँके।
पगडी निराली लहरिये वाली,
धोती कुर्ता रंग रंगीला,
लौट के काम से,आये संवरिया
गाये फिर..
पिया आवो म्हारे देस रे…
पिया…..
अच्छी कविता के लिए बीनू जी को बधाई .