आर एस एस की अंतर्शक्ति से हुआ था पुर्तगाल का प्रतिरोध और गोवा का भारत विलय

  2 अगस्त :दादरा नागर हवेली के भारत विलय दिवस और गोमान्तक सेना पर विशेष.  

भारत को जिस स्वरुप और जिन भौगोलिक सीमाओं को वर्तमान में हम देख पा रहे है वह स्वतन्त्रता प्राप्ति के बहुत बहुत बाद तक चले संघर्ष और एकीकरण के अनथक चले अभियान का परिणाम है. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी बहुत से क्षेत्र ऐसे बाकी थे जिन पर स्वाभाविक और नेसर्गिक तौर पर भारतीय गणराज्य का शासन होना ही चाहिए था. कहना न होगा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतन्त्रता के जो अर्थ भारतीय इतिहासकारों ने निकाले और जिस रूप में भारतीय को सत्ता हस्तांतरित की गई वह सब एक षड्यंत्र से कम और कुचक्र से अधिक कुछ नहीं था.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विषय में हम rssजब भी चर्चा करते है तो वर्तमान भारतीय भूगोल के कुछ भूभागो पर स्पष्ट और घोषित रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अमिट छाप पाते है. आर एस एस और इस राष्ट्र के लाखों राष्ट्रवादियों के ह्रदय में विभाजित भारत के जो घाव यदा कदा हरे होते रहते थे (और रहते है) का ही परिणाम था की अंग्रेजो के जाने के बाद भी इन राष्ट्रवादियों द्वारा कुछ तत्कालीन ओपनिवेशिक क्षेत्र जो कि फ़्रांस या पुर्तगाल के कब्जे में थे के लिए संघर्ष चलता रहा और इन क्षेत्रों में विदेशी शासन खत्म होकर ये क्षेत्र भारतीय गणराज्य का भाग बनते गए और इन पर भारतीय सुशासन स्थापित होता गया. संघ के इस अभियान का ही एक ज्वलंत उदाहरण है दादरा नगर हवेली जहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ1954 में भारत को स्वतंत्र हुए 7वर्ष हो चुके थे. अंग्रेजों के जाने के साथ ही फ़्रांस ने एक समझौते के अंतर्गत पुडुचेरी आदि क्षेत्र भारत सरकार को दे दिए, किन्तु अंग्रेजों के पूर्व आए पुर्तगालियों ने भारत के अनेक क्षेत्रों में अपना शासन अक्षुण्ण रखा. पुर्तगालियों ने अपने कब्जे के क्षेत्रो में चल रहे डा. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह को कुचलने का निर्णय लिया और इस हेतु सैनिको की बड़ी तैनाती, शास्त्रों की जमावट आदि की गई. गोवा, दीव-दमन और दादरा नगर हवेली के स्वतंत्र होने की आशा क्षीण होने लगी थी. स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारी मातृभूमि का कुछ हिस्सा परतंत्र था, इसका दु:ख सबको था.

ऐसे समय में कुछ राष्ट्रवादी संगठन के कार्यकर्ताओं ने “आजाद गोमान्तक दल’ की स्थापना कर इस दिशा में प्रयत्न किया. इन देशभक्तों की योजना से तत्कालीन केन्द्रीय सरकार साशय अपने आप को अलग रख रही थी. दिल्ली की बेरुखी के चलते हुए भी गोमांतक सेना ने हिम्मत नहीं हारी और इस अभियान के अंश रूप में महाराष्ट्र-गुजरात की सीमा से लगा दादरा नगर हवेली का एक हिस्सा लक्ष्य रूप में निश्चित किया गया. शिवशाहीर बाबा साहब पुरन्दरे, संगीतकार सुधीर फड़के, खेलकूद प्रसारक राजाभाऊ वाकणकर, शब्दकोश रचयिता विश्वनाथ नरवणे, मुक्ति के पश्चात्‌ दादरा नगर हवेली के पुलिस अधिकारी बने नाना काजरेकर, पुणे महानगर पालिका के सदस्य श्रीकृष्ण भिड़े, नासिक स्थित भोंसले मिलिट्री स्कूल के मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, ग्राहक पंचायत के बिन्दु माधव जोशी, पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्रीधर गुप्ते आदि उस नवयुवक ही थे. मन में पुर्तगालियों की परतंत्रता की पीड़ा लिए यह दल उस समय रा.स्व. संघ के महाराष्ट्र प्रमुख बाबाराव भिड़े व विनायक राव आप्टे से मिला और उन्हें सशस्त्र क्रांति की योजना बताई. इसके पश्चात संघ के नतृत्व में एक व्यवस्थित, गुप्त, सशस्त्र संघर्ष की योजना बनाई गई. दादरा नागर हवेली को मुक्त करने के इस अभियान को पूर्ण और सफल करने के लिए धन की आवश्यकता स्वाभाविक तौर पर थी जिसके लिए सुधीर फडके ने बीड़ा उठाया. फडके ने स्वर सम्राज्ञी लता जी से संपर्क कर एक कार्यक्रम आयोजित करने का निवेदन पूरा विषय बताते हुए किया जिसे लताजी ने तुरंत स्वीकार कर लिया. लता दीदी का संगीत कार्यक्रम पुणे के हीरालाल मैदान में हुआ जिससे बहुत धन एकत्रित हुआ किन्तु वह भी कम पड़ा अतः स्थानीय स्तर पर नागरिको और संगठनों समितियों आदि का उपयोग इस हेतु किया गया.

धन, साधन, संसाधन इकट्ठा करने के बाद इस योजना को कार्य रूप देने के लिए 31 जुलाई, 1954 को मूसलाधार वर्षा में लगभग दो सौ युवकों का जत्था दादरा नगर हवेली की राजधानी सिलवासा की ओर रवाना हुआ. यह सशस्त्र जत्था कहाँ, क्यों, किसलिए जा रहा था किसी को पता नहीं था. इस विषय में केवल एक वाक्य इस जत्थे ने सुना और कहा था जो कि बाबाराव भिड़े आप्टे के मुखारबिंद से निकला वह था -”वाकणकर जी के साथ जाइए”. आश्चर्यजनक रूप से इस वाक्य को आदेश मानकर सेकडो नवयुवक अनुशासित सैनिक की भांति दादरा नागर हवेली कि ओर कूच कर चले. विष्णु भोपले, धनाजी बुरुंगुले, पिलाजी जाधव, मनोहर निरगुड़े, शान्ताराम वैद्य, प्रभाकर सिनारी, बालकोबा साने, नाना सोमण, गोविन्द मालेश, वसंत प्रसाद, वासुदेव भिड़े एवं उनके साथी साहसी तरुणों ने अपने नेता के पीछे चलकर प्राणों को तो बलि पर चढाया किन्तु इस पुर्तगाल शासित क्षेत्र पर भारतीय ध्वजा फहरा दी. किसी ने भी अपने स्वजनों को यह नहीं बताया कि वे जा कहां रहे हैं तथा कब आएंगे. घर जाएंगे तो अनुमति नहीं मिलेगी, इस डर से कुछ लोग सीधे स्टेशन चले गए. सशस्त्र आन्दोलन कैसे करना है, इसकी जानकारी किसी को भी नहीं थी, फिर भी वे अपने अभियान में सफल रहे. राजाभाऊ वाकणकर, सुधीर फड़के, बाबा साहब पुरन्दरे, विश्वनाथ नरवणे, नाना काजरेकर आदि इस आन्दोलन के सेनानी थे, उन्होंने उस क्षेत्र में रहकर संग्राम स्थल की सारी जानकारी प्राप्त कर ली थी. विश्वनाथ नरवणे गुजराती अच्छी बोलते थे. उन्होंने स्थानीय जनता से गुप्तरूप में मिलकर बहुत जानकारी प्राप्त की थी. राजाभाऊ वाकणकर ने कुछ पिस्तौलें एवं अन्य शस्त्र जमा कर लिए थे. इस प्रकार युद्धस्थल की छोटी-छोटी जानकारी, शस्त्र सामग्री एवं पैसा इकट्ठा होने के पश्चात्‌ श्री बाबाराव भिड़े ने पुणे से तैयार हो रहे जत्थे के सैनिको को प्रतिज्ञा दिलाई. स्पष्ट शब्दों में सूचनाएं दीं और “मेरा रंग दे बसंती चोला’-गीत गाते-गाते रा.स्व. संघ के संस्कारों से संस्कारित देशभक्तों की टोली अदम्य साहस के साथ निकल पड़ी. 31 जुलाई की रात को सिलवासा पहुंचकर अंधेरे और मूसलाधार वर्षा में सावधानीपूर्वक आगे बढ़ने लगे और पुर्तगाली मुख्यालय के परिसर में आते ही योजनानुसार पटाखे फोड़ने लगे ;पुर्तगाली सैनिकों को वह आवाज बन्दूकों की लगी, अचानक बने भयभीत कर देने वाले वातावरण से वे सहम गए. इसके बाद जो हुआ वह पुर्तगालियों के पतन की कहानी बना. “आजाद गोमान्तक दल जिन्दाबाद, भारत माता की जय’- के जयघोष के साथ युवको के कई दल वहाँ प्रवेश कर गए. इस दौरान विष्णु भोपले ने एक पुर्तगाली सैनिक का हाथ काट डाला,यह देखकर बाकी सैनिक डर गए और इन सैनिकों ने शरण मांग ली. इन वीरों ने पुलिस चौकी एवं अन्य स्थानों से पुर्तगाली सैनिकों की चुनौती को समाप्त किया और 2अगस्त की सुबह पुतर्गाल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व में दादरा नागर हवेली गए राष्ट्रभक्त युवको के दल ने वहाँ से पुर्तगाली शासन के झंडे को उतारकर भारत का तिरंगा फहरा दिया. राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत स्वयंसेवकों के इस दल ने दादरा नागर हवेली के भारतीय गणराज्य में विलय के बाद भी सावधानी रखते हुए इस क्षेत्र से वापिस कूच नहीं किया बल्कि 15 अगुस्त तक वहीँ रहकर स्वतंत्रता दिवस की परेड और तिरंगा ध्वजारोहण कराकर ही वापिस लौटे और इस प्रकार दादरा नागर हवेली के भारत गणराज्य में विलय का अध्याय पूर्ण हुआ. आज उस घटना की वर्षगाँठ पर गोमांतक सेना के सभी जवानों का कृतज्ञ राष्ट्र गौरवपूर्ण स्मरण करता है और ऐसे वीर पुनः पुनः इस धरती पर जन्मे और इस भारत भूमि की मान प्रतिष्ठा वृद्धि करें यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी. पुनः स्मरण एवं शत शत नमन ….

13 COMMENTS

  1. पुरुषोत्तम जी की जिज्ञासा है – मैं बहुत बच्चा था( १९५५ का जन्मा ) पर मुझे १९६१ के गोवा मुक्ति के समय राजा भाऊ महाकाल के शहीद होने के बाद छपी (प्राय: पम्च्जन्य में एक चित्र की झलक अभी भी है )- मेरे एक मामाजी जो उस समय मेरे घर (फारबिसगंज , सिलिगुरी -दार्जीलिंग से सता बिहार- नेपाल सीमा) में रहते थे शायद गए थे . जगन्नाथ राव जोशी का ब्जाशन मैंने सूना है बाद में- ‘ऊपर टाटा, नीचे बाटा बीच में घाटा ही घाटा ‘
    वैसे यह सही है की संघ ने भारत के स्वातंत्र्य अन्दोलान्मे बहुत भाग नाहे एलिया- एक तो उसकी शक्ति उतनी थी नहीं- दूसरा दीर्घकालीक रणनीति के चलते शक्तिसंचय करना था पर किसी को यह नहीं लगे की संस्थापक डॉ. हेडगेवार अंगेजों के हिमायती थे (शायद सिवाय उनके अनुशासन को चाहते थे और उसी तरह से अनुशाशन बद्द्ध स्वयंसेवकों को बनाना चाहते थे- पर वे १९४० में ५१ वर्ष की अवस्था में ही स्वर्गीय हुवे- शायद वे जीवित रहते तो कुछ और कहानी होती – गोलवलकर एक साधू थे जो अतिदीर्घ्कालिक पारी खेलना चाहते थे – वैउसे भी सत्य है के एहम १७५७/ १८५७ में गुलाम नहीं हुवे- लुटेरों से लड़ते रहे ७००+ से और … अस्तु, दादरा नगर हवेली की कहानी मैंने भी आज ही पढी और अच्छा लगा .

  2. पुरुषोत्तम जी की जिज्ञासा है – मैं बहुत बच्चा था( १९५५ का जमना) पर मुझे १९६१ के गोवा मुक्ति के समय राजा भाऊ महाकाल के शहीद होने के बाद छपी (प्राय: पम्च्जन्य में एक चित्र की झलक अभी भी है )- मेरे एक मामाजी जो उस समय मेरे घर (फारबिसगंज , सिलिगुरी -दार्जीलिंग से सता बिहार- नेपाल सीमा) में रहते थे शायद गए थे . जगन्नाथ राव जोशी का ब्जाशन मैंने सूना है बाद में- ‘ऊपर टाटा, नीचे बाटा बीच में घाटा ही घाटा ‘
    वैसे यह सही है की संघ ने भारत के स्वातंत्र्य अन्दोलान्मे बहुत भाग नाहे एलिया- एक तो उसकी शक्ति उतनी थी नहीं- दूसरा दीर्घकालीक रणनीति के चलते शक्तिसंचय करना था पर किसी को यह नहीं लगे की संस्थापक डॉ. हेडगेवार अंगेजों के हिमायती थे (शायद सिवाय उनके अनुशासन को चाहते थे और उसी तरह से अनुशाशन बद्द्ध स्वयंसेवकों को बनाना चाहते थे- पर वे १९४० में ५१ वर्ष की अवस्था में ही स्वर्गीय हुवे- शायद वे जीवित रहते तो कुछ और कहानी होती – गोलवलकर एक साधू थे जो अतिदीर्घ्कालिक पारी खेलना चाहते थे – वैउसे भी सत्य है के एहम १७५७/ १८५७ में गुलाम नहीं हुवे- लुटेरों से लड़ते रहे ७००+ से और … अस्तु, दादरा नगर हवेली की कहानी मैंने भी आज ही पढी और अच्छा लगा .

      • प्रिय पुरुषोत्तमजी,
        मैं आपके संघर्षमय जीवन से तप्त लेखिनी की पीड़ा को समझ सकता हूँ और यद्यपि मैं किसी आधिकारिक पद पर नहीं हूँ फिर भी आपको विश्वास दिलाता हूँ की आपके तरह तथ्यपारखी जब तक होते रहेंगे हिन्दू समाज में विघटन का सपना देखनेवाले बिचौलियों को निराश होना पडेगा और जो स्वप्न हमारे पुरुखों ने कभी देखा था उस स्वर्णिम विहान को लाने में आप जैसे लोगों की अप्रतिम भूमिका रहेगी .

  3. भाई मीणाजी, अभी ऐसे बहुत से रहस्य हैं जिनसे पर्दा उठाना बाकी है.रा.स्व.स. का आदर्श प्रतिष्ठा प्रांगमुखता है.कभी आत्म प्रसिद्धि नहीं.देश की आजादी के संघर्ष में संघ की भूमिका के ऐसे बहुत से आयाम हैं जिनसे पर्दा उठना शेष है.विभाजन के समय करोड़ों लोगों के विस्थापन में लोगों की रक्षा करने में संघ के सेंकडों स्वयंसेवकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी.उनकी कहानी अभी सामने आना शेष है.जिस समय लेडी माऊंटबेटन के प्रभाव में २ जून १९४७ को नेहरूजी ने पाकिस्तान बनाने की मांग स्वीकार कर ली थी.उस समय किसी कांग्रेस के नेता को ये ख्याल नहीं आया था की इस निर्णय के फलस्वरूप जो हिन्दू पाकिस्तान में रह रहे हैं उनका क्या होगा? और इस लापरवाही के कारण बीस लाख लोगों की जान गयी.अधिकांश हिन्दू थे और कुछ मुसलमान भी जो जवाबी हिंसा में मारे गए थे.जस्टिस खोसला कमीशन की रिपोर्ट इस विषय में देख सकते हैं.कश्मीर पर कबायलियों के वेश में पाकिस्तान के हमले के समय संघ के स्वयंसेवकों ने तीन दिन तक किस प्रकार कश्मीर की रक्षा की थी ये स्वयं में एक लम्बी कहानी है.कश्मीर के भारत में विलय में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरूजी (गोलवलकर जी)के योगदान की कहानी क्या कभी सुनी है?लेकिन ये एक सच्चाई है.जिसका संघ ने कभी प्रचार नहीं किया.क्योंकि श्री गुरूजी का आदर्श था “मैं नहीं तू”.स्वयं श्रेय न लेकर दूसरे को श्रेय देना.इमरजेंसी के विरुद्ध लोकतंत्र के संघर्ष में संघ की भूमिका से क्या कोई इंकार कर सकता है?इंदिराजी ने संघ के नेतृत्व से संघ पर से प्रतिबन्ध हटाने का प्रस्ताव किया था और बदले में इमरजेंसी के विरुद्ध संघारह से संघ को हटने को कहा था. लेकिन संघ ने इंकार कर दिया और स्पष्ट कह दिया की अब मामला संघ से प्रतिबन्ध का न होकर लोकतंत्र की बहाली का है.आज भी समाज के विभिन्न वर्गों की समस्याओं, अभावों को दूर करने में संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा १,३२,००० से अधिक सेवा प्रकल्प चल रहे हैं.जिनका क्या कभी कोई प्रचार होता है?२२००० से अधिक विद्यालय चल रहे हैं जिनमे ५५ लाख विद्यार्थी संस्कारयुक्त शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.ऐसे और भी अनेकों काम संघ के स्वयंसेवकों द्वारा किये जा रहे हैं.लेकिन संघ इनका प्रचार नहीं करता है.भाई मीणाजी,थोडा मन बड़ा करो और खुले दिल से चीजों को देखो.

    • आदरणीय श्री अनिल गुप्ता जी आप द्वारा मेरी टिप्पणी पर विचार करने और संघ के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने के लिए आभार और धन्यवाद!
      जहाँ तक “मन” बड़ा करने की बात है, वो तो आप ही आकलन कर सकते हैं कि किसकी क्या स्थिति है! कोई भी खुद के बारे में आकलन नहीं कर सकता! लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि यहाँ “मन” के बजाय “हृदय या दिल” शब्द का उपयोग अधिक उपयुक्त होता! खैर? यदि मेरा ये मत सही है तो मेरा “हृदय” जरूर पर्याप्त बड़ा है! फिर भी सुझाव के लिए आभार!

  4. Tune diyaa des ko jeevan des tumhe kya dega,
    Apanee aag jala rakhane ko naam tumhara lega.– Shri Dinkar
    This fact is not known to the people of the nation that R.S.S. was involved in this freedom struggle and liberated part of the nation . It is a great tragedy with our Congress rule. This must be publicised extensively and included in our school teachings and history books so that younger generation learns the true history and sacrifices by our brave hearts.
    In order to achieve this we must remove Congress from power to liberate Bharat mata in true sense of the word freedom.
    vande bharat mataram

  5. इतना अवश्य जानता हूँ कि देश भर में जनसंघ के नेतृत्व में गोवा मुक्ति आन्दोलन चला था. मैं उन दिनों पंजाब में कालेज का छात्र था. फिरोजपुर नगर में स्थानीय कालेज के एक प्राध्यापक मनोहरलाल सोंधी, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक प्रमुख कार्यकर्ता भी थे, उनके नेतृत्व में पुर्तगाल विरोधी एक ज़बरदस्त जलूस निकला था. मैं स्वयम उस जलूस में शामिल था. हम छात्रों ने गोवा में तात्कालिक पुर्तगाली शासक “सलाज़ार” के विरुद्ध जम कर नारेबाजी की थी क्योंकि गोवा में पुर्तगालियों के विरुद्ध किए गए एक प्रदर्शन पर हुई भारी गोलाबारी में पुर्तगालियों ने हमारे कई लोगों को मार दिया था. नरेश भारतीय

  6. “गोमांतक सेना” के संघर्ष को “संघ” का अभियान बताने का प्रयास करने वाले इस लेख के लेखक से आशा की जा सकती है कि यदि उनकी ये कहानी सच है तो इसके समर्थन में कुछ तो ऐसे सन्दर्भ पेश करते जिन पर कोई निष्पक्ष व्यक्ति विश्वास कर पाता! पहली नज़र में आजादी की लड़ाई में देशभक्तों की खिलाफत करने वालों के सर आजादी की लड़ाई में शामिल होने का सेहरा बांधने का ये एक सुनियोजित षड्यंत्र लगता है!

    • (१)
      मीणा जी–निम्न लिखित आपको विकिपिडिया पर मिल जायेगा।बहुत सारे नाम इस प्रवक्ता के आलेख में भी आये हैं। संघ काम करता है, उसकी डिंग नहीं मारता। उसे काम से ही काम है।
      जगन्नाथ जोशी जी संघ के अखिल भारतीय कार्यकर्ता थे, उन्हों ने नेतृत्व भी किया हुआ, सुना है।
      मैं ने उनके जोशीले भाषण ओ. टी. सी. में सुने हुए हैं।
      पर निम्नांकित आपको वीकीपीडिया पर मिल जाएगा।
      (२)
      “A group of volunteers from the National Movement Liberation Organisation (NMLO), an umbrella organization involving revolutionary groups Rashtriya Swayamsevak Sangh and Azad Gomantak Dal, led an attack on Nagar Haveli on 28 July 1954, and liberated it on 2 August.[11]^ P S Lele, Dadra and Nagar Haveli: past and present, Published by Usha P. Lele, 1987,”
      (३)कुछ अलग निम्न।
      इमर्जंसी में अमरिका से संघ स्वयम्सेवकों ने ही बहुत काम किया था, उनके पासपोर्ट भी इंदिरा ने अवैध कर दिये थे।”Experiments with Untruth ” और “सत्य समाचार” ऐसे दो प्रकाशन निकले थे। मैं छात्र था। सुब्रह्मण्यं स्वामी, गोरे, मकरंद देसाई, ऐसे नेताओं के प्रवास और प्रबंध आर एस एस वालो नें ही किया था। बाकी एन आर आय डरते थे–प्रायः चुप थे।

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