राजनीति

लोकतंत्र में संघ का कु-संग और कम्युनिस्टों का सत्संग / जगदीश्वर चतुर्वेदी

‘भारत नीति प्रतिष्ठान और मंगलेश डबराल’ विवाद को लेकर हम ‘प्रवक्ता’ पर ‘वैचारिक छुआछूत’ पर केन्द्रित बहस चला रहे हैं. इसी क्रम में हमने सर्वश्री जगदीश्वर चतुर्वेदी और विपिन किशोर सिन्हा से आग्रह किया था कि इस विषय पर अपने विचार हमें भेंजे. यह प्रसन्नता का विषय है कि दोनों महानुभावों के लेख हमें प्राप्त हुए. गत १ जून से मेरे यहाँ इन्टरनेट कनेक्शन में गड़बड़ी है. इस बीच ‘प्रवक्ता’ पर प्रकाशनार्थ लेख भारतजी अपलोड करते रहे.. आज जब अपने मित्र के यहाँ मेल चेक कर रहा था तो पाया कि चतुर्वेदी जी का लेख मेरे आग्रह के अगले ही दिन मेरे इन्बौक्स में आ चुका था. समय से प्रस्तुत लेख का प्रकाशन नहीं होने पर हमें खेद है. (सं.) 

लोकतंत्र में अन्तर्विरोधी विचार,संगठन और संस्थान सक्रिय रहते हैं। लोकतंत्र में सबको आजादी है। लोकतंत्र में विचार की आजादी,संगठन बनाने की आजादी और निजी विचारों के प्रचार-प्रसार की आजादी सबको है। इस परिप्रेक्ष्य के आधार पर सतह पर यही लगता है कि लोकतंत्र तो अन्तर्विरोधों का पुंज है। वस्तुतःलोकतंत्र में लोकतांत्रिक और अ-लोकतांत्रिक विचारों और संगठनों के बीच निरंतर टकराव होता रहता है। लोकतंत्र की शक्ति इस तथ्य से पहचानी जाती है कि वह अ-लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कितनी भद्रता और सदाशयता से पेश आता है। यह सच है भारत में लोकतंत्र है और इस लोकतंत्र में संघ परिवार जैसे साम्प्रदायिक संगठन से लेकर अतिवादी-हिंसक माओवादी तक निवास करते हैं।

संघ परिवार के लोग अपने अच्छे निजी व्यवहारके लिए जाने जाते हैं। उनका निजी व्यवहार अपील करता है। लेकिन उनके विचारों में व्याप्त हिंसा, विद्वेष और असहिष्णुता के कारण लोकतंत्र बार-बार क्षतिग्रस्त हुआहै। भारत में संघ परिवार हिन्दुत्व में विश्वास करते हुए भारत को धर्म के आधार पर एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखता है। उसका यह नजरिया ही समस्या की प्रधान जड़है। संघ परिवार की तरह दुनिया के अनेक देशों में धार्मिक और नस्ली आधार पर अनेक संगठन और सत्ताएं काम कर रही हैं। पश्चिमी देशों में संघ के समानधर्मा संगठनों ने मानव सभ्यता को जितने बड़े पैमाने पर क्षतिग्रस्त किया है, उसकी समूचे मानव सभ्यता के इतिहास में मिसाल नहीं मिलती। इसी तरह संघ परिवार ने भारत की सभ्यता को जिस तरह क्षतिग्रस्त किया है वैसे तो औरंगजेब ने भी नहीं किया था। संघ ने कायिक और वैचारिक हिंसा में मध्यकाल के विदेशी हमलावरों को काफी पीछे छोड़ दिया है। महमूद गजनवी की लूट औरहिंसा से ज्यादा गुजरात-मुंबई के दंगों में संपत्ति और जिंदगी की क्षति हुई।

इसी तरह संघ परिवार के बुद्धिजीवियों ने इतिहास से लेकर समाजनीति तक भारत में जिस तरह का विकृतिकरण किया है ,वैसा तो ब्रिटिश शासकों के कलमघिस्सुओं ने भी नहीं किया। इससे भारत कमजोर हुआ है। आमलोगों में हिन्दुत्व के विचारों के प्रभाव ने भारत की सांस्कृतिक एकता और बहुलतावाद कोबार-बार क्षतिग्रस्त किया है। इस परिप्रेक्ष्य में सोचे तो पता चलेगा कि संघ के विचारों ने कायिक हिंसाचार से ज्यादा वैचारिक हिंसाचार किया है। वैचारिक हिंसाचार का अर्थ अन्य के विचारों को कुत्सा प्रचार से दबाना, सत्य के प्रति विभ्रम फैलाना, देश के बाशिंदों, खासकर अल्पसंख्यकों के भावों,विचारों,संवेदनाओं और धार्मिक मान्यताओंके बारे में आक्रामक और भड़काने वाली भाषा का इस्तेमाल करना। उनको दोयम-दर्जे का इंसान करार देना। संघ के प्रकाशनों के जरिए यह काम अहर्निश होता रहता है। किसी दंगे में की गई हिंसा से इस तरह का प्रचार ज्यादा हानिकारक है।

संघ परिवार के प्रचारकों औरबुद्धिजीवियों का भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा का वातावरण बनाने मेंमहत्वपूर्ण योगदान रहा है। इससे भारत की बहुलतावादी संस्कृति और विचारधारा क्षतिग्रस्त हुई है। ऐसी स्थिति में संघ के संस्थानों का बहुलतावाद की हिमायत मेंबोलना गले नहीं उतरता।

बहुलतावाद का अर्थ सिर्फ हिन्दुत्वमय बहुलतावाद नहीं है। बहुलतावाद की बुनियादी शर्त है किसी के भी खिलाफ घृणा के प्रचार का निषेध। बहुलतावाद की दूसरी प्रधान शर्त है व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करना, तीसरी शर्त है मानवाधिकारों का पूर्णतःसम्मान करना और उनके अनुरूप आचरण करना।

मानवाधिकारों में किसी भी किस्म की कतर-ब्यौंत बहुलतावाद की स्प्रिट को खत्म कर देती है। संघ परिवार को लोकतंत्र में अपने विचारोंकी आजादी है, वैसे ही अन्य को भी आजादी है। संघ परिवार निरंतर अन्य के अधिकारों (विशेषकर अल्पसंख्यकों) में कटौती की मांग करके, अन्य के प्रति घृणा फैलाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता रहा है। यह रास्ता मूलतः लोकतंत्र की मूल स्प्रिट के खिलाफ है।

कायदे से संघ परिवार को अन्य पर हमले करने, घृणा फैलाने के काम को बंद करके सकारात्मक एजेण्डे के आधार पर काम करना चाहिए। संघपरिवार की शक्ति का अधिकांश समय विद्वेष के प्रचार-प्रसार खर्च होता है ,इससे देश कमजोर बनता है , और संघ मजबूत बनता है।

संघ की शक्ति का अन्य के प्रति घृणा के आधार पर बढ़ना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटीहै। इससे बहुलतावाद,लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना टूटता है। आमतौर पर संघ के लोग अपने किसी सुदर्शन पुरूष को सामने रखकर बातें करते हैं। सवाल व्यक्तियों कानहीं ,विचारों का है। संघ परिवार जिस तरह के विचारों का प्रचार करता रहा है वेसमग्रता में देश के अहित और संघ के हितसाधन के लिए रचे गए हैं।

संघपरिवार के बुद्धिजीवी इस सवाल पर सोचें कि सारी दुनिया में धर्म आधारित समाज व्यवस्था के सपने ने लोकतंत्र को समृद्ध किया है या कमजोर किया है? वे इस सवाल का जबाब भी खोजें कि हिटलर–मुसोलिनी की नीतियों से विश्वसभ्यता का विनाश हुआ या विकास हुआ? यह भी सोचें कि हिटलर आदि क्यों आसानी से उनके विचारों के करीब आते हैं, प्रेरक की सूची में आते हैं ? भगवान कृष्ण की भूमि पर जन्मलेने वालों का हिटलर के विचारों और कर्म से प्रेरणा लेना शर्मिंदगी के साथ खतरनाक दिशा का संकेत भी है।

हिटलर ने कभी बहुलतावाद को पसंद नहीं किया। रही बात स्टालिन की तो समाजवादी व्यवस्था में भी बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है। समाजवादी व्यवस्था में अनेक मानवाधिकार विरोधी चीजें सामने आई हैं जिनको लेकर मार्क्सवादी खेमे में विश्वस्तर पर मंथन चल रहा है। इसका परिणाम है कि मार्क्सवादी भी बहुलतावाद और लोकतंत्र की सत्ता और महत्ता को मानने लगे हैं।

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन अपने जन्म से ही बहुलतावाद और लोकतंत्र का पक्षधर रहा है। लोकतंत्र की अग्रिम चौकियों में कम्युनिस्टों का योगदान रहा है। आधुनिक केरल पर आज सारा देश गर्व करता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिक केरल के निर्माताओं में कम्युनिस्टों की अग्रणी-नेतृत्वकारी भूमिका रही है।

खासकर ईएमएस नम्बूदिरीपाद ने आधुनिक केरलके सपने को साकार करने में जो योगदान किया है वह अतुलनीय है।ईमानदार राजनीति की वेबेमिसाल पहचान थे। सवाल यह है कि केरल जैसा राज्य देश में अन्यत्र कोई और बुर्जुआनेता या संघनेता क्यों नहीं बना पाए? क्या बात है कि केरल में बहुलतावाद, सांस्कृतिक उन्नयन के जो शिखर बनाए गए हैं उनको भारत का कोई भी राज्य छू नहीं पाया है।

आधुनिक केरल की परिकल्पना को साकार करने में कम्युनिस्टों ने पूंजीवादी विकास से भिन्न रास्ता चुना और गैर औद्योगिक संरचनाओं के वह सब कर दिखाया जो गुजरात-महाराष्ट्र-बंगाल-कर्नाटक-दिल्ली आदि नहीं कर पाए।

कम्युनिस्टों की भारत में लोकतंत्र में महत्वपूर्ण और सकारात्मक भूमिका रही है। कुछ अपवादों को छोड़कर। उल्लेखनीय है कि भारत के कम्युनिस्टों के लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम करने के अनुभवों और भारत के लोकतंत्र का समाजवादी मुल्कों पर गहरा असर पड़ा है और समाजवादी मुल्कों में समाजवाद की जगह लोकतंत्र के भारतीय मॉडल के अनुकरण की ओर लैटिन अमेरिका से लेकररूस तक प्रयास हो रहे हैं। पहले अक्टूबर क्रांति और समाजवाद के विचारों के विश्वव्यापीप्रवाह के परिप्रेक्ष्य में भारत में सोचा जाता था। लेकिन इन दिनों मामला थोड़ा पलटगया है।

भारतीय लोकतंत्र और कम्युनिस्टों के यहांके अनुभवों की रोशनी में सारी दुनिया के कम्युनिस्ट सोच रहे हैं। इस दिशा की ओर ध्यान खींचने में 1957 में पहली बार केरल में लोकतंत्र के जरिए चुनकर आई कम्युनिस्ट सरकार की बड़ी भमिका है। सारी दुनिया में पहली बार कम्युनिस्टों की वोट के जरिए सरकार बनी थी। कम्युनिस्ट वोटों के जरिए जब आए तो वे बूथ केप्चरिंग करके, गुण्डागर्दी करके नहीं आए थे बल्कि अपने पॉजिटिव कार्यक्रम के आधार पर आए थे। उस समय संघ से लेकर कांग्रेस तक सभी के दिग्गजनेता जिंदा थे और वे कम्युनिस्टों की जीत को अवाक् होकर देख रहे थे। कम्युनिस्टों की केरल में जीत के साथ ही आधुनिक केरल के सपने का आरंभ हो गया और उस सपने को साकार करने में कम्युनिस्ट अग्रणी कतारों में रहे हैं।

हमारा एक ही अनुरोध है संघ परिवार के लोग कमसे कम केरल जैसा एक राज्य बनाकर दिखाएं। कांग्रेस तो यह काम नहीं कर पायी है। क्या शिवराजसिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी कर पाए हैं? केरल जैसी शांति, सुरक्षा, शिक्षा, स्वस्थ राजनीति, मीडियाचेतना, साहित्यचेतना और बहुलतावादी सांस्कृतिक वातावरण, साम्प्रदायिक सदभाव, दंगारहित समाज, सुरक्षित अल्पसंख्यक क्या अन्यत्र संघ परिवार दे पाया है?