समाज

मानव अधिकार की तलाश में ग्रामीण समाज

-आलोक कुमार यादव

”विविधताओं में एकता ” को सदियों से अक्षुण्य बनायें रखनें वाला विश्व में एकमात्र ”भारतीय समाज” है। भारतीय समाज विश्व के अन्य समाजों से इस अर्थ में विलक्षण है कि इसमें विभिन्न धर्मो, संस्कृतियों और भाषाओं का अद्भुत सामंजस्य है। फिर भी अनेक विविधताओं में जीने वाले लोग किसी न किसी तरह एक सूत्र में बधें हुए है सभी भारतीय है। भारतीयता की यह व्यापक अवधारणा चलती रहें और समाज के ताने-बानें को सुदृढ करती रहें, इसके लिए आवश्यक है कि हम उन व्यापक मानवीय सरोकारों के प्रति सचेत रहे जो सबके लिए समान रूप से प्रासंगिक है। इस दृष्टि से मानव-अधिकारों पर विचार-विमर्श और चिंतन की महत्वपूर्ण भूमिका है।

आज सम्पूर्ण विश्व ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था के रूप में न केवल अंगीकार किया है अपितु उसे अपने जीवन में आत्मसात किया गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल आधार है कि वह सभी के लिए समानता का अवसर, जीवन स्तर सुधारने के लिए अपनी तरफ से पहल करें।

इक्कीसवी सदी में कदम रखने के साथ आज भारत आर्थिक सामाजिक वैज्ञानिक और शैक्षणिक दृष्टि से अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है। स्वतंत्रता मिलने के बाद पिछले छह दशकों में समाज का खाका बदला है। सामाजिक-राजनैतिक समीकरण बदले है और मध्य वर्ग का उदय हुआ है इसके साथ सूचना क्रान्ति ने जीवन की गति तीव्र की है और साथ ही कई समस्याओं को भी जन्म दिया है। वर्तमान में मानव जाति के सामने सबसे बडी समस्या सम्मानपूर्वक जीवन-यापन की है और इन्हे सम्मानपूर्वक जीवन की राह दिखाने का नाम ही ”मानवाधिकार” है।

भारत में मानवाधिकार कोई नई अवधारणा नही है। भारतीय संस्कृति में मानव अधिकारों की अवधारणा का बीज पहले से ही विद्यमान है। हमारे देश के सभी प्रमुख धर्मग्रन्थों में अधिकार और कर्तव्य की अवधारणा का संकेत बीज मंत्र के रूप में सर्र्वत्र दृष्टि गाेंचर होता है। दूसरे शब्दों में हमारी संस्कृति मानव अधिकारों को केन्द्र में रखकर ही पुष्पित एवं पल्लवित हुई।

वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकारों का संरक्षण आज विश्व के समक्ष सबसे बडी चुनौती है। सम्पूर्ण मानव जाति शोषण, भ्रष्टाचार, उत्पीडन एवं आतंकवाद से पीडित है। भारतीय संविधान में ऐसे समाज की परिकल्पना की गई है जो सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रतिष्ठा और अवसर की समानता पर आधारित हों। परन्तु जब हम भारतीय समाज के संदर्भ में मानवाधिकारों की चर्चा करते है तो हमारे मस्तिष्क में यहां की सामाजिक व्यवस्था से सम्बध्द लिंग तथा जातिगत भेदभाव, छुआछुत, अस्पृश्यता की भावना साकार हो उठती है। मानवाधिकार और उनकी रक्षा एक सार्वभौमिक तथ्य है मानवाधिकार के संरक्षण व उनके प्रति आदर चिंता आज समय की आवश्यकता है।

भारत की मानव अधिकार संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति जागरूपता इसी बात से स्पष्ट है कि 26 जून 1945 को 50 देशों ने जिनमें भारत भी सम्मिलित था, सयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के चार्टर पर हस्ताक्ष्र किये और एक नये युग का शुभारभ्भ हुआ। यहां यह महत्वपूर्ण है, कि इस चार्टर में सात स्थानों पर मानव अधिकारों का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही इनके सुझावों को ध्यान में रखकर ही भारत सरकार ध्दारा 27 सितम्बर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई। मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को आयोग गंभीरता से लेता है इसका कारण यह है कि आयोग का लक्ष्य दोषी व्यक्ति को दंडित करना ही नही बल्कि पीडित व्यक्ति को तत्काल सहायता पहुचाना भी होता है।

लेकिन किसी भी कानून की सार्थकता तभी सिध्द हो सकती है जब कि इसका लाभ प्रत्येक व्यक्ति को मिलें। वर्तमान परिदृश्य पर गौर करें तो ज्ञात होगा कि आज भी देश की एक तिहाई आबादी जहां निवास करती है उस ग्रामीण्ा क्षेत्रों में आज भी जनता आयोग के बारें में अनभिज्ञ है। उसे आयोंग ध्दारा जनहित के लिए बनायें गये नियमों की जानकारी भी नही है स्वतंत्र भारत के 6 दशकों में मानवाधिकारो की स्थिति विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों में नितांत शोचनीय रही है। ग्रामीण समाज में बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, नारी उत्पीडन, वेश्यावृत्ति, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता तथा साहूकारों से ऋण लेकर व्यतीत होने वाले जीवन इत्यादि रूपों में नित्य मानवाधिकारो का हनन होता रहा है।

मानवाधिकार हनन के प्रमुख कपितय कारण निम्न है –

शिक्षा :- मानवाधिकारों के प्रति किसी भी व्यक्ति का उदासीनता का सबसे प्रमुख कारण शिक्षा का अभाव है। जनगणना 2001 के अनुसार भारत की साक्षरता 64.84 प्रतिशत ही है। सरकार के लाख प्रयास करने के बाद भी देश में विशेषकर ग्रामीण भारत में शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नही हुआ । सरकार ध्दारा नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान किया हुआ है, इसके साथ स्कूलो में दोपहर का भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है। इसके बावजूद बच्चों को विद्यालय तक ला पाना एक कठिन कार्य बना हुआ है। सन् 2007 तक 6-11 वर्ष के स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 39 लाख 76 हजार बनी हुई है। स्कूल जाने वाले बच्चों का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत पांचवी के बाद पढाई को जारी नही रखता। इस प्रकार आबादी का एक बडा भाग अशिक्षित है और जब देश के अधिकांश लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान ही नही होगा तो वे किस प्रकार उनके हनन का विरोध करेगे।

गरीबी एवं बेरोजगारी :- भारत गांवों का देश है अत: ग्रामीणों के उत्थान किए बिना कोई भी अधिकार व योजना पूर्ण नही मानी जा सकती। आज भारत विश्व में मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। विश्व बैक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बडी अर्थव्यवस्था हो गई है लेकिन फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में बदहाली बनी हुई है। जिसका खुलासा 2003 की यू0एन0डी0पी0 रिपोर्ट से होता जिसके अनुसार भारतीय समाज अत्यधिक असमान समाज है जिसमें मात्र 10 प्रतिशत लोग धनी है और जो 33.5 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग करते है और अति गरीब 10 प्रतिशत लोग केवल 3.5 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग करते है सरकारी ऑंकडों के अनुसार हमारें यहां 26 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे है। एक आंकडें के अनुसार सन् 1994 में बेरोजगारों की संख्या 3 करोड 77 लाख हो गई थी इनमें 62 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 38 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों से थे। देश की आजादी प्राप्ति के इतने वर्षो बाद भी करीब 24 करोड लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजारने के लिए मजबूर है। इन विकासशील देशों के नागरिकों की गरीबी उन्हें मानव अधिकारों से वंचित रखती है। परन्तु आज समय आ गया है, जब मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में अन्तर्निहित सिध्दान्तों व मूल्यों का पालन करने हेतु सभी संकल्प लें।

स्वास्थ्य (एड्स) :- स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता विशेष रूप से गरीबों व पीडित वर्गो को उनके मानव अधिकारों से वंचित रखती है। आज स्वास्थ्य के क्षेत्र में HIV \ AIDS एक बडी चुनौती के रूप में सामने आया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार हमारे देश में इस रोग से संक्रमित या प्रभावित लोगो की संख्या विश्व के अन्य देशों की तुलना में दूसरे नम्बर पर है। इस दिशा में हुए अध्ययन बतातें है, कि यह रोग अब संक्रमित समूहो से आम जनता के बीच फैलने लगा है, शहरों से इसने गांवों की ओर रूख किया है, और चिंता की बात यह है कि इस रोग से प्रभावित पुरूष एवं महिलाओं की संख्या धीरे-धीरे बढती जा रही है। इस बीमारी के साथ जुडा सामाजिक दाग व सामाजिक बहिष्कार जैसे हालताें ने उनके मानव अधिकारों को प्रभावित किया है। इस दिशा में इस रोग से लडने व पीडितो की चिकित्सा एवं राहत का बीडा उठाना होगा।

बच्चों के अधिकार :- मानव अधिकारों के अभ्युदय के इस दौर में बच्चों का आगमन इस क्षेत्र में विलम्ब से हुआ है। बच्चों के अधिकार को लेकर पहले अभिसमय पर 1989 में जाकर हस्ताक्षर हुए है। इस प्रकार बच्चों के अधिकारों की दिशा में इतना विलम्ब विश्व स्तर पर संवेदन के स्तर में कमी को उजागर करता है। मानव समाज के इस कमजोर सदस्य के प्रति हमारी उदासीनता दु:खद व चिन्तनीय है।

आज बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण किया जा रहा है। उनके साथ बलात्कार होता है, उन्हें यातनायें दी जाती है, हिंसा व युध्दों में उन्हें ढकेला जाता है। बच्चे आज गरीबी के शिकार है, उनसे बधुआ मजदूरी करवाई जाती है, उनके पोषण व स्वास्थ्य की दशा शोचनीय है। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 1998-99 के अनुसार 47 प्रतिशत बच्चे आज भी कुपोषण के शिकार है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी खराब है, 74 प्रतिशत बच्चे जो कि 6 से 35 महीने की आयु के है, रक्ताल्पता (एनीमिया) के शिकार है। रक्ताल्पता से पीडित बच्चों का प्रतिशत जहां केरल व नागालैण्ड में 44 प्रतिशत है, वही हरियाणा, राजस्थान, बिहार, पंजाब में इनका प्रतिशत 80-84 प्रतिशत है।

बाल मजदूरी हमारे देश में एक ऐतिहासिक सत्य है तथा बच्चों से मजदूरी करवाना एक कटु वास्तविकता है। आज भी हमारे देश में 150 मिलियन बच्चं दासता की जंजीरों में जकडे हुए है। गरीब व कमजोर बच्चों को इतिहास के निचले पायदान का स्थान मिला हुआ है। आज बच्चें शायद बडों के ध्दारा शासित इस भूमंडल के सबसे कमजोर तत्व है। बाल मजदूरी को रोकने, इसे प्रतिबंधित करने, समाप्त करने व इन बच्चों का पुनर्वास करने की चुनौती का इसी सदी में मुकाबला करना पडेगा तथा इस हेतु ठोस कानूनी पहल समय की मांग है।

न्याय पंचायतें :- भारत में प्राचीन काल से ही ग्राम पंचायते या जाति पंचायते या पेशे (वृत्ति ) पर आधारित व्यक्तियों की पंचायते स्थानीय स्तर पर न्याय पंचायतों का कार्य भी करती रही है। स्वतंत्रता के पश्चात अपनाए गए संविधान के बाद देश में विधि का शासन प्रवर्तित है तथा कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नही है। देश में न्यायपालिका को स्वतंत्र रखते हुए निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था की गई किन्तु आज भी भारतीय ग्रामों में स्थानीय पंचायते विशेषत: जाति पंचायतें अपनी परम्परागत मान्यताओं, रूढियों, सामाजिक मूल्यों के अनुसार निर्णय करती है सामाजिक दबाब के चलते प्राय: इन पंचायतों के निर्णय बाध्यकारी होते है चूकि इनकी न्याय निर्धारण प्रक्रिया में अनौपचारिक व कानूनी प्रविधि नही अपनायी जाती है अत: व्यक्ति के मानवाधिकारों का खुला उल्लंधन होता रहता है। जिसका कपितय उदाहरण है –

• सितम्बर 2007 में हरियाणा के करनाल जिले की कतलाहेडी गांव की बाल्मिकी समाज की पंचायत ने एक ही गोत्र में शादी करने पर पवन एवं कविता को न केवल भाई-बहिन की तरह रहने का आदेश दिया बल्कि उनसे 6 दिन की बेटी को भी छीनकर एक नि:सन्तान दम्पत्ति को सौप दिया । साथ ही पवन एवं कविता पर 60 हजार रूपये का जुर्माना भी ठोंक दिया गया।

उपर्युक्त घटनाएं समाज में न केवल अव्यवस्था फैलाती है अपितु वे प्रगति के मार्ग में बाधा एवं मनुष्यों जीवन स्तर गिराने का भी कारण बनती है। वर्तमान युग विज्ञान एवं तकनीकी का होने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्र आज भी विधि सुविधाओं से वंचित है। आजादी के 50 वर्ष बीत जाने पर भी भारत की आबादी का बृहद भाग अशिक्षित है और जो शिक्षित भी है उनमें विधिवेत्ताओं को छोडकर आज शिक्षित नागरिको को भी विधि का ज्ञान नही होता। अत: सरल भाषा में विधि का ज्ञान विधि साक्षरता के अन्तर्गत आज की आवश्यकता है मानवाधिकार के सम्बन्ध में भी यही बात है आज निरंतर मानवाधिकार का हनन हो रहा है।

ऐसी स्थिति में जब कि हम सभी दिन-प्रतिदिन प्रगति के मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहे हो, अपने ही राष्ट्र में अपने ही लोगो के अधिकारो का हनन करना मानवीयता के बिलकुल ही खिलाफ है। भारत तो गांवों का देश है, राष्ट्र की अधिकांश जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, उनके अधिकारो से परिचित कराना और आवश्यकता पडने पर उन्हे न्याय दिलाना समय की मांग है।इन्ही बातों को ध्यान में रखकर भारत ध्दारा मानव अधिकारो के संरक्षण एवं संवर्धन का निंरतर प्रयास होता रहा है। भारत भी इस प्रयास में बहुत ही निष्ठा एवं प्रतिबध्दता से जुडा है। आइये ,इस सदी में मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में कार्य करने का संकल्प लें, तथा इस महान अभियान में अग्रणी योगदान देकर इस चुनौती को पूरा करने का प्रयास करें।