साधू नहीं__ शैतान हूं __मैं

गुरमीत सिंह उर्फ़ रामरहीम के अत्याचारों, दुराचारों व झूठे चमत्कारों के नित्य आने वाले समाचारों से यह ज्ञात हो रहा है कि सच्चा डेरा सौदा का मुखिया कोई बाबा नहीं किसी बल्कि किसी अंधविश्वासियों का माफिया डॉन है |  उसके अत्याचारों का कच्चा चिठ्ठा जैसे जैसे खुलता जा रहा है वैसे वैसे  चालबाज़ गुरमीत स्वयं चिल्ला चिल्ला कर कह रहा हो कि ” साधू नही शैतान हूं मै”। उसके 700 एकड़ से भी ज्यादा क्षेत्र में फैले हुए डेरे में बनी अय्याशी की गुफा से कलयुगी बाबा गुरमीत रहस्यमयी सुरंगों के मार्ग से साध्वियों के निवास व स्कूल बालिकाओं के छात्रावासो से जुड़ा हुआ था। उन सुरंगों की दीवारें भी यौनाचारों की शोषित अबलाओं की चीखों की गवाह होगी जो चीख चीख कर कहती होंगी की यह कोई “साधू नहीं शैतान है” | संत के चोले में आस्थाओं की फसल उगा कर उन्हें उजाड़ने वाला साधू कैसे हो सकता है ? वर्षो पहले एक फिल्म आयी थी “साधू और शैतान” उसमें भी दोनों पात्र अलग अलग पूण्य और पाप कर्म करते हुए दिखाए गए थे | परन्तु गुरमीत सिंह ने तो दोनों भूमिकाओं को स्वयं निभा कर फ़िल्म जगत को भी एक विचार सोचने को दे दिया | यह अब “मक्कारी का महानायक” बन चुका है। जिसप्रकार दिनप्रतिदिन मीडिया के माध्यम से गुरमीत की दिनचर्या के दुष्ट कार्यों के रहस्य खुल रहें है वह अत्यंत आक्रोशित व आश्चर्यचकित करने वाले है | इस दुराचारी भारतीय नागरिक ने बाबा बन कर सच्चा सौदा डेरे के प्रति भारतीय भक्तों की आस्थाओं की फसल को पोषित करने के स्थान पर उसको उजाड़ते रहने का अपराध करके एक संत के चोले को ही तार तार कर दिया है |  पूर्व में भी अनेक दुराचारी बाबाओं की रहस्यमय जिन्दगी के समाचार आते रहें है, परन्तु गुरमीत सिंह ने जिसप्रकार अपने बगिया की कलियों को कुचला है वह डेरे के श्रद्धालुओं के साथ विश्वासघात की पराकाष्ठा है | सामान्य रूप से धर्म के प्रति आशावान व आस्थावान होना एक सामान्य व्यक्ति का मौलिक अधिकार है | परन्तु उन समर्पित आस्थाओं पर लक्षित दुराचार और अत्याचार करना धर्म का घोर अपमान है | गुरमीत को रामरहीम कहने में भी अब ग्लानि होने लगी है , वास्तव में इस ढोंगी दुष्ट ने गुरुओं व संतों के पद को ही कलंकित कर दिया हैं | ऐसी विपरीत परिस्थितियों में तपस्वी , त्यागी , समर्पित व ज्ञानी ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओं के प्रति  समाज कब तक आशंकित नहीं होगा ? क्या गुरमीत के इन चरित्रहीन आचरणों के कारण चरित्रवान, सदाचारी व आध्यात्मिक गुरुओं के प्रति भी आस्था एक समाजिक समस्या बन कर उभरेगी ?
इसप्रकार भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित “गुरु-शिष्य” की प्राचीन परम्परा पर गुरमीत की रहस्यमयी दुनिया का यह कडुवा सच वर्षो-वर्षो तक समाज के बहुमुखी विकास को प्रभावित कर सकता हैं ?    वास्तव में संत , साधू और महात्मा आदि  के कार्य सदा परोपकारी होते हैं। अतः आज इनको परिभाषित करने की पुनः  आवश्यकता हैं | ध्यान रहें कि संत और महात्मा आदि कहलाने का अधिकार केवल उस महान व्यक्ति को होता हैं जो अपने सद्चरित्र और अच्छे आचरण के साथ  ज्ञान-विज्ञान से अभावग्रस्त व अज्ञानी समाज के अंधकारमय जीवन को प्रकाशवान बना देता हैं | भारतीय दर्शन शास्त्रों में “गुरु-शिष्य” परम्पराओं की अनेक प्रेरणादायी संस्मरण हैं | उनके उल्लेख की यहां आवश्यकता नहीं हैं | लेकिन यह सोचना अत्यंत आवश्यक हैं कि किसी के जीवन को अंधकारमय करके उसे नारकीय पीड़ा देनें वाले दुष्ट को कभी भी संत या साधू समझ कर गुरु या फिर भगवान कैसे माना जा सकता ?
परन्तु दुर्भाग्यवश आज देश में गुरमीत जैसे ढोंगी व  दुराचारी शैतानों का कारोबार महात्मा , स्वामी, साधू ,संत एवं बाबाओं आदि के चोले में सामाजिक अज्ञानता के कारण खूब फल-फुल रहा हैं | प्रायः अज्ञानी व भोले स्वभाव वाला समाज अपनी तर्कहीनता के कारण और विशेषरुप से स्वार्थ के वशीभूत चालाक व धूर्त बाबाओं के चंगुल में सरलता से समर्पित हो जाता हैं | जब कोई समाज ऐसे बाबाओं का अंध भक्त हो जाता हैं और उसको अपना गुरु मान लेता हैं तब ऐसे समाज के लोग ही अपने संपर्कों से अपने अपने सम्बन्धियों व मित्रों को भी उसी बाबा की शरण में ले जाकर उसको “गुरु” बनाने के लिए प्रेरित करते हैं | इस प्रकार एक अंधविश्वास धीरे धीरे विश्वास में परिवर्तित होकर श्रद्घा का रुप पा जाता हैं। जिसके फलस्वरूप बाबाओं का अपना एक छदम आभामंडल समाज को प्रभावित करने लगता हैं | यहीं वह कमजोर कड़ी हैं जहां से ऐसे दुष्टों का अपने भोले भाले शिष्यों और शिष्याओं को ठगने का कार्य आरंभ होता हैं | इस प्रकार धर्म का व्यवसायीकरण होने से उसमें अध्यात्म का अभाव हो रहा हैं जिससे आज समाज का नैतिक व चारित्रिक पतन चरम पर है। ऐसी भी सूचनाएं आती है जिनसे ज्ञात होता है कि अनेक तथाकथित धर्माचार्यों ने अपने आश्रम व डेरे आदि की सहायतार्थ दान प्राप्त करने के लिये एजेंट भी नियुक्त किये होते है। ऐसे स्थलों को प्रायः अपनी व्यक्तिगत सम्पति मानने वाले ये ढोंगी बाबा भविष्य में अपने ही अति प्रिय या पारिवारिक लोगों को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित करते है। अनेक अवसरों पर अपराध की दुनिया से जुड़ें अपराधियों ने अपने को कानून से बचाने के लिये संत का चोला धारण करके समाज के साथ विश्वासघात किया है। इस कलयुग में दुष्ट व आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विभिन्न धर्माचार्यों  के किस्से आते रहते है। परंतु वैधानिक प्रक्रिया की शिथिलता व कठोर कानूनों के अभाव का अनुचित लाभ उठाकर ये धर्मद्रोही बचते रहें है। क्या कलयुग में सदगुणों की शिक्षा देने वाले ग्रंथो को छोड़कर मक्कारों और दुष्टों को अपना गुरु बनाने वाला समाज ऐसे ही ठगा जाता रहें और हमारे नीतिनियन्ता अपना संविधानिक दायित्व भी न निभाये तो यह अंधभक्ति व सामाजिक बुराई कैसे समाप्त होगी ?
लेकिन दुर्भाग्यवश आज जब सारा जगत सच्चा डेरा के मुखिया गुरमीत की दुष्टता व चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा पर आक्रोशित और शर्मसार हो रहा है वही हरियाणा के एक मंत्री के समान अनेक राजनेता व कुछ और प्रभावशाली लोग अभी भी डेरे के प्रति निश्चिंत है। इन प्रभावशाली मंत्री जी के अनुसार  “सजा बाबा को हुई है डेरे को नही और डेरा गैरकानूनी साबित नही हुआ है ।” इन मंत्री जी ने पिछले दिनों अपने कोटे से 50 लाख रुपये भी डेरे को दिये थे। अब यह कौन प्रमाणित करेगा कि जिस डेरे का मुखिया इतना बड़ा अपराध डेरे की ही आड़ में और उसी की अपार सम्पदा को भोगते हुए “अपने चाल, चरित्र और चेहरा के छलावे” से डेरे के भक्तों को ही प्रताड़ित करता रहा और उनको मृत्यु लोक में भी पहुचायें जाने का दोषी हो सकता है , तो फिर ऐसे डेरे को संदिग्ध कैसे नही माना जायेगा। यहां यह भी विचारणीय बिंदु है कि क्या गुरमीत सिंह इन दुष्ट कार्यों में बिना अपने (रामरहीम) तथाकथित भक्त व डेरा निवासियों की सहायता के सफल हो सकता था ? इसमें कोई आश्चर्य नही होगा कि यह सब दुराचार बड़ी योजनाबद्ध षड्यंत्र के अंतर्गत वर्षो से चलता आ रहा है और इसमें रामरहीम के अनेक “विशिष्ट भक्त” भी संलिप्त होगें। अतः विधि अनुसार वह स्थान जहां अपराध हुआ है वह भी सील होना चाहिये और उन विशिष्ट भक्तों पर भी वैधानिक कार्यवाही होनी चाहिये । साथ ही ऐसी व्यवस्था बनें कि भविष्य में अय्याशी, अनैतिक और अवैध कार्य किसी भी डेरे या आश्रम में हो उस पर तत्काल प्रतिबंध लगना चाहिये।
यह ठीक है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था मेँ राजनेताओं को डेरा प्रेमियों की वोट चाहिये परंतु मानवता की रक्षार्थ अबलाओं की चीख-पुकार और अन्य अपराधो से उनको कुछ लेना देना नही, क्यों ? क्या राजनेता अपने सत्ता सुख के लिये ढोंगी बाबाओं को बचाकर अराजकता व अपराध को बढ़ावा देने का अनुचित कार्य करके संविधान का उल्लंघन नहीं कर रहें ? विचार करना होगा कि भोले-भाले समाज को अनेक प्रकार से भक्ति के नाम पर भ्रमित करके अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ा कर उनके एकजुट मताधिकारो के बल से राजनैतिक दलो पर दबाव बना कर अबला व दुर्बल समाज की भावनाओं से खिलवाड़ करके उनका उत्पीडन करना क्या न्यायसंगत है ? क्या राजनीति शास्त्र के ज्ञाता इसको मान्यता देंगे ?
क्या यही राष्ट्रवादी लोगों का राजनैतिक दर्शन है ? हमारे राजनेताओं को भारतीय संस्कृति का ज्ञान अवश्य होना चाहिये जिससे भविष्य में वह सत्य मार्ग पर चल कर समाजिक व राष्ट्रीय हित के रक्षार्थ राजनीति कर सकें। आज राष्ट्र के सामने एक बड़ा प्रश्न है कि राजनीति को राष्ट्रनीति बनाने वाले योगिराज श्रीकृष्ण, महात्मा विदुर और आचार्य चाणक्य की भूमि पर उनके समान समर्पित निस्वार्थ राजनितिज्ञों का अभाव कब तक बना रहेगा ?

विनोद कुमार सर्वोदय

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