राजनीति

सबका साथ सबका विकास और सवर्णों को आरक्षण

राकेश कुमार आर्य

राहुल गांधी राफेल रक्षा सौदे को जब देश की चुनाव पूर्व राजनीति का विमर्श बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे , तभी प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सवर्ण गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर एक ही झटके में देश के राजनीतिक विमर्श को परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त कर ली है । प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अपने राजनीतिक चातुर्य का परिचय देते हुए ‘ सबका साथ सबका विकास ‘ के अपने राजनीतिक आदर्श की एक बार फिर से पुष्टि कर दी है कि वह अपने इस आदर्श के प्रति पूर्णतया ईमानदार हैं और अपने समग्र राजनीतिक चिंतन को इसी के इर्द-गिर्द केंद्रित करके चलने में ही अपना और राष्ट्र का भला देखते हैं । उनके राजनीतिक विरोधी भी इस समय सचमुच सकते में हैं। संभवत: उन्होंने ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी कि श्री मोदी अचानक ऐसा कदम उठा सकते हैं जो वर्तमान भारत की राजनीति की दिशा और दशा को परिवर्तित करने में सक्षम हो ।
सारा विपक्ष इस समय चुनाव पूर्व ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में लगा हुआ था । वह असावधानी पूर्ण प्रमाद में था और सोच रहा था कि अबकी बार चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को उसी प्रकार पटखनी दे दी जाएगी जिस प्रकार बोफोर्स का बेफोर्स का शोर मचाकर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए राजीव गांधी को तत्कालीन विपक्ष के द्वारा पटखनी दे दी गई थी । राहुल गांधी के परामर्शदाता उन्हें राफेल पर निरंतर बोलते रहने को प्रेरित कर रहे थे । उन्हें राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तीन राज्यों में मिली क्षणिक सफलता ने और भी अधिक उत्साहित कर दिया था । यही कारण था कि श्री गांधी राफेल पर तार्किक और असंवैधानिक भाषा में निरंतर बोलते जा रहे थे । तभी प्रधानमंत्री श्री मोदी ने आर्थिक आधार पर सवर्ण लोगों को भी आरक्षण देने की घोषणा कर सारे विपक्ष के मुंह में तीर भरकर उसे उसी प्रकार शांत कर दिया है , जैसे एकलव्य ने उस कुत्ते के साथ किया था जो उसे भौंक भौंक कर शस्त्र साधना में बार-बार व्यवधान डाल रहा था । 
जो लोग प्रधानमंत्री की कार्यशैली को जान चुके हैं वे इस बात से सहमत नहीं हो सकते कि प्रधानमंत्री ने इस प्रकार का आरक्षण देने का निर्णय तीन राज्यों में मिली असफलता के दृष्टिगत लिया है। वास्तव में प्रधानमंत्री श्री मोदी की सोच आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की ही रही है । वह इसका संकेत पूर्व में दे भी चुके थे । उनके भीतर चल रहा अंतर्द्वंद यह दर्शाता था कि वह किसी दलित शोषित या पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ अन्याय किए बिना सवर्ण लोगों को आधार पर आरक्षण देना चाहते थे । ।उनकी इस मनोदशा और शब्दों की भाव भंगिमा को समझ कर ही बसपा की कु मायावती सहित कई विपक्षी दल उन पर यह आरोप लगा रहे थे कि वह दलितों के आरक्षण को समाप्त कर देना चाहते हैं , और संविधान बदलने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । श्री मोदी ने अपने विरोधियों को ऐसा कोई आभास नहीं होने दिया कि वह करना क्या चाहते हैं ? – यद्यपि बिहार के चुनावों के समय आरएसएस प्रमुख श्री मोहन भागवत द्वारा भी यह संकेत दिया गया था कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकता इस समय देश को है । वह संकेत भी ऐसे ही नहीं दिया गया था । निश्चित रूप से इन सब संकेतों के पीछे कोई बड़ी योजना कार्य कर रही थी । जिसे किसी सही समय पर ही लागू होना था । अतः अब जो कुछ भी किया गया है वह अचानक नहीं है । उसके पीछे पूरा चिंतन है और देर तक किया गया अंतर – मंथन है । अचानक इसमें केवल इतना है कि इसका समय यह चुना गया है जो 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले का है। इसके पीछे की प्रधानमंत्री श्री मोदी की गोपनीयता वास्तव में प्रशंसनीय है । उन्होंने एक बार फिर सिद्ध किया है कि शासक को अपने निर्णयों को अंतिम क्षणों तक गोपनीय रखना चाहिए और यह भी कि वह देश के राजनीतिक विमर्श को परिवर्तित कर देने का माददा आज भी रखते हैं । इस एक निर्णय से ही प्रधानमंत्री एक नए स्वरुप में दिखाई दे रहे हैं । 
वास्तव में आर्थिक आधार पर आरक्षण की सोच वीर सावरकर की थी । वह आरक्षण को जातीय या वर्गीय आधार पर देने के विरोधी थे । इसके लिए उनकी मान्यता थी कि निर्धनता की कोई जाति या वर्ग नहीं होता । वह सर्वत्र बिना जाति या वर्ग देखे मिल सकती है। अतः हर निर्धन का उत्थान और उद्धार करना शासक की नीतियों का अनिवार्य अंग होना चाहिए। दलित , शोषित , पिछड़े या उपेक्षित लोग किसी जाति विशेष में ही नहीं मिलते । वह अपनों के द्वारा मारे हुए अपनी ही तथाकथित जातियों में भी मिलते हैं । अतः उनका भी उद्धार करना शासक की नीतियों का अनिवार्य अंग होना चाहिए । यह सोच राजनीति को राष्ट्रनीति बनाती है । राजनीति में संकीर्णता होती है , जिसे जातीय या वर्गीय आधार पर आरक्षण देकर अभी तक हमारे शासकों के द्वारा किया जाता रहा है । जबकि राष्ट्रनीति में सर्व समाज का सर्वांगीण विकास करना उसका लक्ष्य होता है । श्री मोदी ने यही कर दिखाया है । इस दृष्टिकोण से यह संविधान संशोधन सचमुच ऐतिहासिक है ।
आरक्षण प्रतिभा पर प्रतिबंध लगाने का नाम नहीं है , जैसा कि प्रचलित आरक्षण व्यवस्था ने अपने अंतिम स्वरूप में करके भी दिखा दिया है । आरक्षण को हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने इसलिए अपनाया था कि यह व्यवस्था प्रतिभाओं को मुखरित कर विकसित करने का अवसर उपलब्ध कराएगी और अंत में आरक्षण प्रतिभाओं को मुखरित कर विकसित करने के अपने इस प्रयास के माध्यम से समाज में सामाजिक समरसता उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होगा। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि अपने व्यवहारिक स्वरूप में आरक्षण प्रतिभाओं पर प्रतिबंध लगाने के रूप में ही स्थापित होकर के रह गया है । प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था ने तो इसे और भी अधिक निंदनीय और घृणित बना दिया था । जिससे एक वर्ग की यह सोच बनती जा रही थी कि उसकी प्रतिभा को कुंठित कर प्रतिबंधित कर देना ही आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था का अंतिम उद्देश्य है । इससे हमारे समाज में जातीय वैमनस्यता का भाव बढ़ता ही जा रहा था । एससी / एसटी आरक्षण की व्यवस्था को कानूनी रूप में यथावत बनाए रखने की अभी हाल ही में की गई मोदी सरकार की पहल का इसीलिए भारी विरोध हो रहा था , अन्यथा क्या कारण था कि जिस उच्च वर्ग ने पहला प्रधानमंत्री देश को दिया और अपने प्रधानमंत्री के द्वारा ही दिए गए आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधानों को उस वर्ग ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था , उनकी इस उदारता से पता चलता है कि देश का उच्च वर्ग सहर्ष अपने दलित , शोषित ,उपेक्षित और सदियों से उत्पीड़ित चले आ रहे भाइयों को साथ लेकर चलना चाहता था । वह जानता था कि समाज में ऊंच-नीच की भावना मुगल काल और अंग्रेजो के काल में अधिक फैल गई थी । जिसे वह सामाजिक समरसता में परिवर्तित कर देना चाहता था । परंतु कुछ ही समय पश्चात कुछ ऐसे तथाकथित इतिहासकार और साहित्यकार इस देश में पैदा हुए जिन्होंने दलित , शोषित, उपेक्षित समाज के लोगों को यह बताना आरंभ कर दिया कि तुम्हारी समस्याओं का और तुम्हारे शोषण और उत्पीड़न का वास्तविक कारण यह उच्च वर्ग है न कि मुगल वंश के शासक या दूसरे विदेशी शासक । इसका फलितार्थ यह हुआ कि हमारे देश के निम्न वर्ग के लोगों में यह भाव तेजी से पैर पसारता चला गया कि यह उच्च वर्ग ही हमारा शत्रु है। इतिहासकारों और साहित्यकारों ने अपना कर्त्तव्य नहीं निभाया तो परिणाम यह निकला कि सामाजिक समरसता का हमारा संवैधानिक संकल्प अधर में लटक कर रह गया और समाज में चारों ओर जातीय संघर्ष का भाव उत्पन्न हो गया। यह देखकर बहुत दुख होता है कि सामाजिक समरसता के नाम पर कई अधिकारी सेवानिवृत्ति के पश्चात या सेवा में रहते हुए भी इस प्रकार के जातीय वैमनस्य भाव को बढ़ाने में लगे हुए हैं ।
मूल रूप में हमारे समाज का प्रत्येक वर्ग अपने दलित , शोषित , उपेक्षित भाइयों को साथ लेकर चलने में ही राष्ट्रहित देख रहा था । उसे पीड़ा उस समय हुई जब उसके अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के एक अंकुश के रूप में आरक्षण सामने आया और उच्च वर्ग के निर्धन को भी नौकरी मिलना इसलिए कठिन होता चला गया कि वह तथाकथित उच्च वर्गीय समाज से था । इस प्रकार की अनीति से देश में जातीय संघर्ष बढ़ा और लोगों में वैमनस्यतापूर्ण प्रतियोगिता आरंभ हो गई । इस प्रकार की जातीय संघर्ष और वैमनस्यतापूर्ण प्रतियोगिता पर प्रतिबंध लगाना अनिवार्य था । जिसके लिए यही उचित था कि लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था की जाए । इस सामाजिक भावना को सारे राजनीतिक दल समझ रहे थे । यही कारण रहा कि प्रधानमंत्री श्री मोदी के निर्णय का कोई भी दल इस समय विरोध नहीं कर पाया । जिस संसद में पिछले 4 – 5 वर्ष में कोई विधायी कार्य विपक्ष ने नहीं होने दिया , उसी संसद में इतनी शीघ्रता से यह संविधान संशोधन पारित हो गया । यह भी अपने आप में एक ऐतिहासिक कार्य ही हुआ है। अब विपक्ष कह रहा है कि प्रधानमंत्री श्री मोदी ने इस संविधान के संशोधन को लेकर राजनीति की है । उसे आर्थिक आधार पर सामाजिक समरसता के अपने संकल्प को पूर्ण करने की दिशा में प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए इस ऐतिहासिक कदम में भी राजनीति दिखाई दे रही है । जबकि यदि अब से दो-तीन वर्ष पूर्व यही कार्य प्रधानमंत्री की ओर से किया जाता तो विपक्ष इस ऐतिहासिक कदम को भी शोर शराबे में डुबोकर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ता। वास्तव में विपक्ष ने भी इस समय राजनीति की हैं।उसे भी चुनाव दीख रहे हैं । इसलिए उसने बिना शोर शराबा किये और संसद का अधिक समय गवाएं बिना इस निर्णय को संवैधानिक संशोधन के रूप में अपनी स्वीकृति दे दी है ।
देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में 50% से अधिक की आरक्षण की व्यवस्था नहीं हो सकती थी। यद्यपि तमिलनाडु जैसे राज्यों में आरक्षण को 87% तक ले जाया गया है । एक दो प्रांतों में इसे 70% तक ले जाने का प्रयास किया गया है । परंतु इन सब के विरुद्ध न्यायालय में वाद लंबित है। सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत 50% से अधिक के आरक्षण की व्यवस्था को असंवैधानिक घोषित कर चुका है । ऐसे में प्रधानमंत्री श्री मोदी के सामने यह भी एक यक्ष प्रश्न था कि यदि वह संवैधानिक संशोधन के माध्यम से 10% आरक्षण बढ़ाकर उच्च वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को इसका लाभ देने का प्रयास करेंगे तो देश का सर्वोच्च न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है । परंतु अब जबकि हमारे देश की संसद एक कानून के माध्यम से अर्थात संवैधानिक संशोधन करके यह सर्व सम्मत निविशेषतार्णय ले चुकी है कि आरक्षण को आर्थिक आधार पर भी दिया जा सकता है । अब जबकि आरक्षण की अधिकतम सीमा 60% होगी तो इस में सर्वोच्च न्यायालय भी किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर पाएगा । 
श्री मोदी की यह एक अलग ही है कि वह अपने प्रत्येक कार्य को संवैधानिक मर्यादाओं के अनुरूप ही करके दिखाना चाहते हैं । वास्तव में आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर केंद्र की वर्तमान सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया है। इससे हमारे समाज की जातीय वैमनस्य की भावना पर प्रतिबंध लगाने में सहायता मिलेगी । साथ ही हम एक समरसतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था को आगे बढ़ाने में भी सफल होंगे । जो लोग हमारे देश की मौलिक चेतना को समझे बिना इस देश को ऐसे ही हवा में उड़ा देने का प्रयास करते रहे हैं या कर रहे हैं उन्हें अब पता चलना चाहिए कि यह समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ना तो जानता ही है साथ ही अपनी रोटी को बांटकर खाना भी जानता है । आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण का विरोध किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक वर्ग की ओर से न होना इसी बात का संकेत है कि हम सामाजिक न्याय में विश्वास रखते हैं और अभी भी हमारी यही मान्यता है कि जो लोग विकास की गति में बहुत पीछे रह गए हैं उन्हें हम आगे लाना चाहते हैं। यह संविधान संशोधन हम सब की इसी भावना की जीत है। अच्छा हो कि हमारी यह भावना और बलवती हो और हम इसी प्रकार की राष्ट्र नीति को अपनाकर अपने राष्ट्रीय संकल्प का परिचय दें ।