साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा : मोक्ष की मुस्कान देने वाली नयी रोशनी

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 ललित गर्ग 

महिलाओं ने इन वर्षों में अध्यात्म के क्षेत्र में एक छलांग लगाई है और जीवन की आदर्श परिभाषाएं गढ़ी हैं। ऐसी ही अध्यात्म की उच्चतम परम्पराओं, संस्कारों और जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक महान विभूति का, चैतन्य रश्मि का, एक आध्यात्मिक गुरु का, एक ऊर्जा का नाम है- साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी। जैन धर्म के प्रमुख तेरापंथ सम्प्रदाय एवं उसके वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण ने वात्सल्यमूर्ति शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी के देवलोकगमन से रिक्त हुए पद पर नयी साध्वीप्रमुखा को घोषित करने के लिये अपने 49वंे दीक्षा दिवस को चुना। उन्होंने इसी उपलक्ष्य में साध्वीप्रमुखा मनोनयन दिवस घोषित कर मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभाजी को तेरापंथ धर्मसंघ की नवीं साध्वीप्रमुखा घोषित कर न केवल तेरापंथ समाज बल्कि सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत में एक ऐतिहासिक घटना का सृजन किया है। तेरापंथ समाज के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना हुई जब साध्वीप्रमुखा के रूप में साध्वी विश्रुतविभा को 550-600 से अधिक साध्वियों एवं समणियों की सारणा-वारणा एवं महिला समाज के सम्यग् विकास का यह बड़ा दायित्व दिया गया है। साध्वीप्रमुखा वही जो महिला समाज, साध्वी एवं समणी समुदाय को सही दिशा दे, नये आयामों को स्थापित करे और साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा में ये सारे गुण सहज ही विद्यमान हैं। वे त्याग, तपस्या, तितिक्षा, तेजस्विता, बौद्धिकता, प्रबंध-कौशल की प्रतीक हैं, प्रतिभा एवं पुरुषार्थ का पर्याय हैं।
इस सृष्टि रंगमंच की महिलाएं विधात्री ही नहीं, सुषमा भी हैं। धर्म के क्षेत्र में भी महिलाओं ने विशिष्ट योगदान दिया है और उसके लिए तेरापंथ में साध्वीप्रमुखाओं का योगदान अविस्मरणीय है। यह तेरापंथ संघ का सौभाग्य है कि साध्वीप्रमुखा के रूप में उसे एक ऐसी साध्वीवरा उपलब्ध हुई है, जिसका व्यक्तित्व न केवल वैदुष्य एवं अध्ययनशीलता जैसे आदर्श मानदंडों से परिपूर्ण है, अपितु जिनकी प्रकृति में श्रमशीलता, कर्तव्यनिष्ठा, सेवाभावना, गुरु के प्रति समर्पणभाव की उत्कटता एवं मेधा की विलक्षणता का मणिकांचन योग परिलक्षित होता है। आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ एवं आचार्य महाश्रमण-तीन-तीन आचार्यों की कड़ी कसौटियों पर उत्तीर्ण होकर आपने न केवल अनुभव प्रौढ़ता को अर्जित किया है अपितु अपनी कार्यशैली एवं समर्पणनिष्ठा द्वारा निष्पत्तिमूलक सफलताओं को भी अर्जित किया है।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा केवल पद की दृष्टि से ही सैकड़ों साध्वियों को लांघ कर आगे नहीं आयी है अपितु वे चतुर्मुखी विकास तथा सफलता के हर पायदान पर अग्रिम पंक्ति पर ही खड़ी दिखाई दी। इसका कारण उनका आचार्य भिक्षु द्वारा स्थापित सिद्धांतों और मान्यताओं पर दृढ़ आस्थाशील, समर्पित एवं संकल्पशील होना हैं। वे तेरापंथ धर्मसंघ की एक ऐसी असाधारण उपलब्धि हैं जहां तक पहुंचना हर किसी के लिए संभव नहीं है। वे सौम्यता, शुचिता, सहिष्णुता, सृजनशीलता, श्रद्धा, समर्पण, स्फुरणा और सकारात्मक सोच की एक मिशाल हैं। उन्होंने अनुद्विग्न रहते हुए अपने सम्यक नियोजित एवं सतत पुरुषार्थ द्वारा सफलता की महती मंजिलें तय की हैं। यह निश्चित है कि अपनी शक्ति का प्रस्फोट करने वाला, चेतना के पंखों से अनंत आकाश की यात्रा कर लेता है। सफलता के नए क्षितिजों का स्पर्श कर लेता है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के जीवन को, व्यक्तित्व, कर्तृत्व और नेतृत्व को किसी भी कोण से, किसी भी क्षण देखें वह एक लाइट हाउस जैसा प्रतीत होता है। उससे निकलने वाली प्रखर रोशनी सघन तिमिर को चीर कर दूर-दूर तक पहुंच रही है और अनेकों को नई दृष्टि, नई दिशा प्रदान करती हुई ज्योतिर्मय भविष्य का निर्माण कर रही है।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी का जन्म 27 नवम्बर 1957 को तेरापंथ की राजधानी लाडनूं शहर के प्रसिद्ध मोदी परिवार में हुआ। आपके संसारपक्षीय पिता का नाम श्री जंवरीमलजी एवं माता का नाम श्रीमती भंवरीदेवी था। आठ भाइयों एवं पांच बहनों से भरे-पूरे परिवार में पलकर भी आपके जीवन में चंचलता कम और गंभीरता का पुट ज्यादा रहा। तेरापंथ के नवम अधिशास्ता आचार्य श्री तुलसी ने सन् 1980 में समण श्रेणी का प्रवर्तन किया 19 दिसंबर 1980 के दिन प्रथम बार दीक्षित होने वाली छह मुमुक्षु बहनों में एक नाम मुमुक्षु सविता का था। आपका नया नामकरण हुआ- समणी स्मितप्रज्ञा। समण श्रेणी में प्रथम विदेश यात्रा का और उसके बाद भी अनेक बार अनेक देशों की यात्रा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उन देशों में कुछ नाम इस प्रकार है- अमेरिका, जर्मनी, स्विटजरलैंड, इटली, इंग्लैंड, बैंकॉक, कनाडा, हालैंड, हांगकांग आदि। समण श्रेणी में 12 वर्षों तक आपने अध्ययन किया, साधना की, व्यवस्थाओं का संचालन किया, देश-विदेशों की यात्राएं की और जीवन के हर क्षण को आनंद के साथ जीने का प्रयास किया।
18 अक्टूबर 1992 के दिन आपने श्रेणी आरोहण किया। आचार्य श्री तुलसी के श्रीमुख से साध्वी दीक्षा स्वीकार की। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन इक्कीस भव्य आत्माओं ने साधुत्व को स्वीकार किया। आचार्य तुलसी ने समणी स्मितप्रज्ञा का नाम रखा-साध्वी विश्रुतविभा। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा का व्यक्तित्व एक दीप्तिमान व्यक्तित्व है। वे ग्रहणशील हैं, जहां भी कुछ उत्कृष्ट नजर आता है, उसे ग्रहण कर लेती हैं और स्वयं को समृद्ध बनाती जाती हैं। कहा है, आंखें खुली हो तो पूरा जीवन ही विद्यालय है- जिसमें सीखने की तड़प है, वह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक घटना से सीख लेता है। जिसमें यह कला है, उसके लिए कुछ भी पाना या सीखना असंभव नहीं है। इमर्सन ने कहा था- ”हर शख्स, जिससे मैं मिलता हूं, किसी न किसी बात में मुझसे बढ़कर है, वहीं मैं उससे सीखता हूं।’
लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु, यह सनातन धर्म के प्रमुख मन्त्रों में से एक है, जिसका अर्थ होता है, इस संसार के सभी प्राणी प्रसन्न और शांतिपूर्ण रहें। इस मंत्र की भावना को ही साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा ने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है। उनकी इच्छा है कि वे आचार्य महाश्रमण के मानव कल्याणकारी कार्यों को आगे बढ़ाने में सहयोगी बनते हुए मानवता के सम्मुख छाये अंधेरों को दूर करें। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। ज्योति की यात्रा मनुष्य की शाश्वत अभीप्सा है। इस यात्रा का उद्देश्य है, प्रकाश की खोज। प्रकाश उसे मिलता है, जो उसकी खोज करता है। कुछ व्यक्तित्व प्रकाश के स्रोत होते हैं। वे स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी निरंतर रोशनी बांटते हैं। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा के चारों ओर रोशनदान हैं, खुले वातायन हैं। प्रखर संयम साधना, श्रुतोपासना और आत्माराधना से उनका समग्र जीवन उद्भासित है। आत्मज्योति से ज्योतित उनकी अंतश्चेतना, अनेकों को आलोकदान करने में समर्थ हैं। उनका चिंतन, संभाषण, आचरण, सृजन, संबोधन, सेवा- ये सब ऐसे खुले वातायन हैं, जिनसे निरंतर ज्योति-रश्मियां प्रस्फुटित होती रहती हैं और पूरी मानवजाति को उपकृत कर रही हैं। उनका जीवन ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिवेणी में अभिस्नात है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक और चुंबकीय है, आंतरिक व्यक्तित्व उससे हजार गुणा निर्मल और पवित्र है। वे व्यक्तित्व निर्माता हैं, उनके चिंतन में भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिम्बित है।
भगवान महावीर के सिद्धांतों को जीवन दर्शन की भूमिका पर जीने वाला एक नाम है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा। इस संत चेतना ने संपूर्ण मानवजाति के परमार्थ मंे स्वयं को समर्पित कर समय, शक्ति, श्रम और सोच को एक सार्थक पहचान दी है। एक संप्रदाय विशेष से बंधकर भी आपके निर्बंध कर्तृत्व ने मानवीय एकता, सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रीयता एवं परोपकारिता की दिशा में संपूर्ण राष्ट्र को सही दिशा बोध दिया है। शुद्ध साधुता की सफेदी में सिमटा यह विलक्षण व्यक्तित्व यूं लगता है मानो पवित्रता स्वयं धरती पर उतर आयी हो। उनके आदर्श समय के साथ-साथ जागते हैं, उद्देश्य गतिशील रहते हैं, सिद्धांत आचरण बनते हैं और संकल्प साध्य तक पहुंचते हैं।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा के पास विविध विषयों का ज्ञान भंडार है। उनकी वाणी और लेखनी में ताकत है। प्रशासनिक क्षमता हैं, नेतृत्व की क्षमता है, वे प्रबल शक्तिपुंज हैं। वे जैन शासन की एक ऐसी असाधारण उपलब्धि हैं जहां तक पहुंचना हर किसी के लिए संभव नहीं है। उन्होंने वर्तमान के भाल पर अपने कर्तृत्व की अमिट रेखाएं खींची हैं, वे इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगी। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना है। उनके लिए तो इतना ही कहा जा सकता है कि वे विलक्षण हैं, अद्भुत हैं, अनिर्वचनीय हैं। उनकी अनेकानेक क्षमताओं एवं विराट व्यक्तित्व का एक पहलू है उनमें एक सच्ची साधिका का बसना। ऐसे विलक्षण जीवन और विलक्षण कार्यों की प्रेरक साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा पर न केवल समूचा तेरापंथ धर्मसंघ-जैन समाज बल्कि संपूर्ण मानवता गर्व का अनुभव करती है।

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