“ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु को दिया वचन प्राणपण से निभाया”

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ऋषि दयानन्द (1825-1883) गुजरात राज्य के मोरवी जिले के टंकारा नामक ग्राम में एक शिवभक्त पौराणिक परिवार में जन्में थे। उनके पिता श्री कर्शनजी तिवाड़ी कट्टर शिवभक्त थे। 14 वें वर्ष में शिवरात्रि के दिन स्वामी दयानन्द जी को बोध हुआ था। वह सच्चे शिव और मृत्यु पर विजय पाने सहित विद्या प्राप्ति के लिये घर से निकले थे। उन्होंने सन् 1860 तक अनेक विद्वानों, योगियों व साधु-सन्तो की संगति कर उनसे योग सीखने सहित ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्न किये। वह मथुरा में अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी को सन् 1860 में प्राप्त होने से पूर्व पूर्ण येगी बन चुके थे। गुरु स्वामी विरजानन्द जी से उन्होंने लगभग तीन वर्षों तक अष्टाध्यायी-महाभाष्य आदि आर्ष व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन किया। गुरु जी के पास तीन वर्ष तक अध्ययनरत रहकर उन्होंने व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया और अनेक विषयों की अपनी शंकाओं का निवारण कर उन्होंने गुरुजी से विदाई ली। इस अवसर पर गुरु व शिष्य दोनों में परस्पर संवाद हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने भविष्य के कार्यों की कोई रूपरेखा तब तक तैयार नहीं की थी। स्वामी विरजानन्द जी को गुरु दक्षिणा में लौंग भेंट करने पर गुरुजी ने स्वामी दयानन्द को देश की दुर्दशा का ध्यान दिलाया और कहा कि इसका कारण देश में फैला हुआ अनार्ष ज्ञान व अविद्या है। देश, समाज और मानवता के हित में गुरु विरजानन्द ने स्वामी दयानन्द को देश से अविद्या दूर करने का परामर्श दिया जिसे स्वीकार कर और गुरुजी को वचन देकर उन्होंने उनसे विदा ली। इसके बाद का अपना समस्त जीवन स्वामीजी ने अपने गुरु की आज्ञा को पूरा करने में ही व्यतीत किया। उन्होंने सभी प्रकार के सुखों सहित अपने सम्मान व यश की भी परवाह नहीं की। वेद और वैदिक मान्यताओं का प्रचार तथा असत्य व अविद्यायुक्त मान्यताओं, परम्पराओं व कुरीतियों का खण्डन एवं सत्य का प्रचार और मण्डन ही उनके जीवन का अंग बना और अन्तिम श्वांस तक बना रहा। उन्होंने जीवन में न धन कमाया, न अपना कोई मठ या मन्दिर बनवाया और न ही कभी स्वादिष्ट भोजन व वस्त्रों की ही इच्छा की। मात्र एक कौपीन में वह अपना जीवन व्यतीत करते थे। भोजन भी सम्भवतः दिन में एक समय ही करते थे जो पूर्णतः रोटी, दाल, चावल व शाक-सब्जी सहित कुछ फलों से युक्त होता था। रात्रि समय में वह दूध लेते थे। इसी से उनका जीवन चला और अपने लिए अन्य किसी भौतिक पदार्थ की उन्होंने कभी कामना नहीं की। उनके जैसा विद्वान, संन्यासी, योगी, देश व समाज का हितैषी और ईश्वर, वेद व वैदिक धर्म व संस्कृति के लिये अपने प्राणों को बलिदान कर देने की भावना व दृण इच्छा शक्ति रखने वाला मनुष्य दूसरा नहीं हुआ। वह किसी भी मूल्य पर अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं कर सकते थे। उनके जीवन में यह भी वर्णन आता है कि उन्होंने एक बार कहा था कि यदि उन्हें तोप के मुंह पर बांध कर सत्य व असत्य के विषय में पूछा जायेगा तो अपनी जान व प्राणों की परवाह न कर वह सत्य ही बोलेंगे व कहेंगे। 

                गुरु विरजानन्द जी से विदा लेकर स्वामी दयानन्द जी आगरा आये, वहां कुछ महीने रह कर धर्म प्रचार किया और अपने भावी जीवन की योजना को भी अन्तिम रूप दिया। इसके बाद वह वेद, वैदिक धर्म और संस्कृति के प्रचार प्रसार में लग गये। उन्होंने 16 नवम्बर, 1869 को काशी में वहां के तीस से अधिक पंडितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ भी किया। वह जहां भी जाते थे वहां प्रवचन आदि सहित लोगों से मिलकर उनका शंका समाधान भी करते थे। उन्होंने उत्तर भारत सहित पश्चिमी व पूर्वी भारत के अनेक स्थानों पर जाकर वहां प्रचार किया। प्रायः सभी मतों के विद्वानों से उन्होंने शास्त्रार्थ व शंका-समाधान किये और वैदिक धर्म की पताका को गौरव व गरिमा प्रदान की। उनके सभी वैदिक सिद्धान्त एवं मान्यतायें अकाट्य थी। स्वामी दयानन्द जी ने वैदिक धर्म का दिग्दिगन्त प्रचार करने के लिये सत्यार्थप्रकाश जैसा विश्व का एक ऐसा ग्रन्थ लिखा जिसमें वैदिक धर्म की सभी प्रमुख मान्यताओं व सिद्धान्तों को तर्क, युक्ति व प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने अपने समय में देश व संसार में विद्यमान सभी मतों के यथार्थ स्वरूप को इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया और उनकी अवैदिकता व असत्य मान्यताओं की अनेक युक्तियों एवं तर्कों से समीक्षा की। तुलनात्मक अध्ययन करने पर परिणाम निकलता है कि वैदिक मत ही सबसे अधिक सत्य, ज्ञान से युक्त, बुद्धिसंगत एवं मनुष्यों सहित प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करने से मनुष्य का मस्तिष्क सत्यासत्य के स्वरूप को जान जाता है और उसके सम्मुख सत्य वैदिक मत को स्वीकार करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प रहता नहीं है। यह बात और है कि अपने हित व अहित के कारण सभी लोग वैदिक मत को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते। स्वामी दयानन्द जी ने वेदों का प्रचार करने के लिये सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, पूना-प्रवचन, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि अनेक ग्रन्थों सहित ऋग्वेद पर आंशिक एवं सम्पूर्ण यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी भाषा में अपूर्व भाष्य भी किया है। महर्षि दयानन्द ने वेदों पर जो ग्रन्थ लिखे है ऐसे ग्रन्थ महाभारतकाल से अद्यावधि उपलब्ध नहीं थे। इससे भारत की धर्म प्रेमी जनता को अकथनीय लाभ हुआ। जब तक यह सृष्टि विद्यमान है और कोई मत या सम्प्रदाय यदि वैदिक साहित्य को नष्ट नहीं करता तो अनुमान है कि प्रलय काल तक आने वाली अगणित मानवी पीढ़िया ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से लाभान्वित होती रहेंगी।

                ऋषि दयानन्द ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए एक आन्दोलन को जन्म दिया जिसका नाम आर्यसमाज है। उन्होंने देश के अनेक भागों में आर्यसमाजों की स्थापना की। आज विश्व के अनेक देशों में आर्यसमाज विद्यमान है जिससे सभी मत व मतान्तर किंवा धर्म-सम्प्रदाय लाभान्वित हो रहे हैं। ऋषि दयानन्द के विचारों व ग्रन्थों से सभी मतों को अपने धर्म ग्रन्थों की समीक्षा कर अपनी मान्यताओं को तर्क के आधार पर स्थिर करने की चुनौती व अवसर दोनों प्राप्त हुए हैं। महर्षि दयानन्द को उनके सत्य वैदिक धर्म का प्रचार करने के लिये अनेक बार विष दिया गया। सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने सभी मतों की समीक्षा की जिससे मूढ़मति के लोग उनसे अप्रसन्न थे। उनके समय में देश पराधीन था। उन्होंने विदेशी राज्य कितना भी अच्छा हो उससे स्वदेशी राज्य को श्रेष्ठ बताया था। इस कारण अंग्रेज भी उनसे अप्रसन्न थे। शिक्षा जगत को भी उन्होंने आवासीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति दी जिससे न केवल वैदिक धर्म व संस्कृति को समर्पित युवाओं का निर्माण होता है, धर्म व संस्कृति की रक्षा होती है अपितु गुरुकुल पद्धति से शिक्षित युवक जीवन के सभी क्षेत्रों में अन्यों से अधिक सफलतायें प्राप्त करते हैं। आर्यसमाज ने देश से कुरीतियों का समूल उन्मूलन किया तथा मिथ्या व अवैदिक परम्पराओं का भी सुधार किया। ऋषि दयानन्द ने हिन्दू समाज को कमजोर करने वाली जन्मना जाति व्यवस्था को मरण व्यवस्था की संज्ञा दी थी। हमारे पौराणिक भाईयों ने कभी इस जन्मना जातिवाद का उन्मूलन करने का विचार नहीं किया जबकि यह हिन्दू समाज के पराभव व अवनति का प्रमुख कारण है। ऋषि दयानन्द जी ने फलित ज्योतिष को भी मिथ्या बताया जो कि वास्तव में है। स्वामी दयानन्द वेदों की मान्यताओं के आधार पर मनुष्यों को शाकाहार को अपनाने और मांसाहार, अंडों का सेवन और धूम्रपान जैसी स्वास्थ्य के लिये हानिकर परम्पराओं व आदतों को भी अनुचित व अमानवीय मानते थे। उनकी एक देन यह भी है कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति इन तीन अनादि व नित्य पदार्थों का ही अस्तित्व व सत्ता है। इसे त्रैतवाद सिद्धान्त कहा जाता है। यह तीनों पदार्थ व सत्तायें कभी नाश को प्राप्त होने वाली नहीं हैं। इनका सदैव अस्तित्व बना रहेगा। स्वामी दयानन्द ने पुनर्जन्म को सत्य सिद्धान्त बताया और इसके पक्ष में अनेक तर्क व युक्तियां प्रस्तुत कीं। उनके अनुयायियों ने भी पुनर्जन्म के पक्ष में अनेक पुस्तकों की रचना की है। स्वामी दयानन्द जी सभी मनुष्यों के लिये ईश्वर व जीवात्मा आदि के सत्यस्वरूप का ज्ञान अपरिहार्य मानते थे और सबको पंचमहायज्ञ करने की प्रेरणा करते थे। प्राचीन विधान है कि जो मनुष्य पंचमहायज्ञ नहीं करता वह किसी वर्ण का क्यों न हो, वह शूद्रत्व व नास्तिकता को प्राप्त हो जाता है। मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में इस मान्यता के समर्थक प्रमाण उपलब्ध हैं। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का ध्यान करने की विधि सन्ध्या पद्धति दी एवं अग्निहोत्र यज्ञ को संसार में लोकप्रिय किया। अग्निहोत्र से वायु व वर्षा जल की शुद्धि होने सहित रोग निवृत्ति, आरोग्य व दीघार्यु की प्राप्ति आदि लाभ होते हैं, इससे उन्होंने देशवासियों को परिचित कराया। ऋषि दयानन्द वैदिक कर्म-फल सिद्धान्त एवं मोक्ष प्राप्ति के स्वरूप व साधनों से भी विश्व को परिचित कराया है। ऐसे अनेक लाभ ऋषि दयानन्द ने देश व समाज सहित विश्व को प्रदान किये हैं।                 ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में जो कार्य किया, वह अपने गुरु की प्रेरणा व आज्ञा तथा उन्हें दिये अपने वचनों के पालनार्थ किया। इससे विश्व का सर्वाधिक कल्याण हुआ है। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द जी को दिये हुए वचनों को प्राणपण से निभाया। जोधपुर प्रवास में वह कुछ पौराणिक व अन्य लोगों के षडयन्त्र का शिकार हुए। उन्हें जोधपुर प्रवास में विष दिया गया। ऋषि दयानन्द को जीवन में लगभग अट्ठारह बार विष दिया गया। जोधपुर में उनके उपचार में भी अनेक अनियमिततायें भी की गईं। इस कारण 30 अक्टूबर, 1883 को अजमेर में सायंकाल दिवाली के दिन उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया और मुक्ति को प्राप्त हुए। ऋषि दयानन्द जी का जीवन आदर्श जीवन था। उन्होंने एक आदर्श ब्रह्मचारी का जीवन व्यतीत किया। उन्होंने अपने जीवन का एक-एक पल देश व समाज सहित मानवता का कल्याण करने के लिए व्यतीत किया। देश की आजादी में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य व अनुयायी देशभक्त होता है और उसने देश की आजादी में अपनी ओर से यथाशक्ति योगदान दिया है। उनके समय में देश शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त पिछड़ा हुआ था। आर्यसमाज ने डीएवी स्कूल व कालेज स्थापित किये। उपदेशक तथा अनाथाश्रम आदि भी खोले। गुरुकुलों ने वैदिक धर्म की रक्षा में महनीय एवं प्रशंसनीय कार्य किया है। सारा संसार महर्षि दयानन्द का ऋणी है। ऋषि दयानन्द ने देश, समाज व मानवता के कल्याण तथा ईश्वरीय शिक्षा वेद के प्रचार के लिये अपने समस्त सुखों का बलिदान किया। हम उनकी पावन स्मृति को नमन करते हैं। जन-जन में वेदों का प्रचार कर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं। उनके जीवन के आदर्शों को अपनाकर ही उनके ऋण से उऋण हुआ जा सकता है।

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