सहस्रचंद्र दर्शन : संदेश और संकेत

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-विजय कुमार-   helping-people
पिछले दिनों एक मित्र ने अपने घर होने वाले ‘सहस्रचंद्र दर्शन’ समारोह में बुलाया। यह नाम सुना तो था; पर ऐसा समारोह कभी देखा नहीं था। उसने बताया कि उत्तर भारत में तो नहीं; पर महाराष्ट्र और दक्षिण में इसे प्राय: मनाया जाता है। वस्तुत: व्यक्ति जब जीवन के ८१ वर्ष पूर्ण कर लेता है, तो उसके एकदम बाद आने वाली पूर्णिमा को यह समारोह होता है। इसका गणित यह है कि एक वर्ष में १२ पूर्णिमा आती हैं। इस प्रकार ८१ वर्ष में ९७२ पूर्णिमा हुई; पर हर तीसरे वर्ष अधिक मास होने से उस बार १३ पूर्णिमा हो जाती हैं। अर्थात ८१ वर्ष में २७ पूर्णिमा और हो गयी। इस प्रकार व्यक्ति ८१ वर्ष पूर्ण होने पर कुल ९९९ पूर्णिमा देख लेता है। इससे अगली पूर्णिमा उसके लिए एक हजारवीं (सह) पूर्णिमा है। उसे ही ‘सहस्रचंद्र दर्शन’ के रूप में मनाया जाता है। यद्यपि अब स्थान, समय, मौसम और परिजनों की सुविधानुसार ८१ वर्ष पूर्ण होने के बाद किसी भी दिन इसका आयोजन होने लगा है।
उस मित्र से बहुत घरेलू संबंध हैं। उनके पिताजी को सब लोग ‘काका’ कहते हैं। समारोह में दूर-दूर से परिवार के लोग और मित्रजन आये हुए थे। छड़ी, वॉकर और पहिया कुर्सी के सहारे चलने वाले लोग भी थे, तो मां की गोद में रोते हुए शिशु भी। लोग काका को फूल, माला, धोती, शॉल, अंगवस्त्र आदि भेंट कर रहे थे। सब लोग उनके साथ चित्र खिंचवा कर स्मृतियां स्थायी कर रहे थे। खानपान के नाम पर प्रारम्भ में चाट-पकौड़ी आदि थी, तो बाद में भोजन। ठंडे-गरम पेय तो थे ही।
समारोह में पहले कुछ पूजा-पाठ आदि हुआ। फिर एक संन्यासी बाबा ने छोटा सा प्रवचन दिया। कहते हैं कि, “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।” इस हिसाब से देखें, तो मेरी जैसे लोगों के लिए यह प्रवचन ही समारोह का मुख्य भाग था। इसलिए उसका विवरण संक्षेप में देना उचित रहेगा।
बाबा जी ने बताया कि भारतीय जीवन पद्धति और आश्रम व्यवस्था का यदि ठीक से पालन हो, तो घर में सदा सुख-शांति रहेगी। यह याद दिलाने के लिए समय-समय पर अनेक आयोजन होते हैं। धर्मप्राण देश होने के कारण भारत में इन्हें धर्म से जोड़ दिया गया है।
इनमें से पहला ब्रह्मचर्य आश्रम या विद्यार्थी जीवन है। इसमें व्यक्ति पूरी तरह अपने माता, पिता, गुरुजनों और समाज पर निर्भर रहकर विद्याध्यन करता है। इस समय बड़ों की आज्ञा मानते हुए अपने तन, मन और बुद्धि का विकास करना ही उसका एकमात्र कर्तव्य है। दूसरा गृहस्थाश्रम है। इसमें पति-पत्नी मिलकर नया संसार बसाते हैं। यदि यह व्यवस्था न हो, तो जहां एक ओर भ्रष्ट यौनाचार फैल जाएगा, वहां संसार नष्ट होने का भी खतरा है। इसलिए भारतीय मनीषियों ने विवाह व्यवस्था बनायी है। यह आश्रम सबसे महत्वपूर्ण है, चूंकि गृहस्थ पर न केवल अपनी, बल्कि अपने माता-पिता और बच्चों की जिम्मेदारी भी होती है। अर्थात यह आश्रम पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच सेतु है। इतना ही नहीं, तो अपने काम और परिवार के साथ गृहस्थ व्यक्ति को समाज की ओर भी ध्यान देना होता है।
जीवन के ५० वर्ष पूर्ण होने पर आने वाला तीसरा आश्रम वानप्रस्थ है। इसमें व्यक्ति अपनी घरेलू जिम्मेदारियां पूरी करने की ओर होता है। बच्चे भी विवाह, नौकरी या कारोबार के साथ अपनी जिम्मेदारियां संभाल रहे होते हैं। अत: व्यक्ति को चाहिए कि अब परिवार की ओर से ध्यान हटाकर अधिकाधिक समय समाज सेवा में दे। सास अपनी रसोई बहू को सौंप दे और पिता अपना कारोबार पुत्र को। ऐसे में यह भी आवश्यक है कि वानप्रस्थी अपनी निजी आवश्यकताएं कम कर दे। आज के संदर्भ में कहें, तो वानप्रस्थ का अर्थ वन में जाना नहीं, बल्कि घर में रहकर, अधिकाधिक समय समाज हित में लगाना है।
चौथा आश्रम संन्यास है, जो ७५ वर्ष में प्रारम्भ होता है। इस समय तक व्यक्ति का शरीर ढीला हो जाता है। अत: उसे समाज सेवा का काम नयी पीढ़ी को देकर अपना समय प्रभु स्मरण में लगाना चाहिए, जिससे अगला जन्म सार्थक हो सके।
संक्षेप में कहें तो ब्रह्मचर्य आश्रम में निजी जीवन, गृहस्थ में परिवार, वानप्रस्थ में समाज और संन्यास में प्रभु स्मरण का सर्वाधिक महत्व है। यदि सब इस व्यवस्था को मानें, तो न सास-बहू में झगड़ा होगा और न पिता और पुत्र में। सामाजिक संस्थाएं भी ठीक से चलेंगी; पर जीवन के झंझटों में अब विवाह के अतिरिक्त बाकी व्यवस्थाओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता। इसीलिए व्यक्तिगत या सामूहिक कार्यक्रमों द्वारा इनकी याद दिलानी पड़ती है।
कई लोग अपनी ५० वीं वर्षगांठ (स्वर्ण जयंती) या विवाह की २५ वीं वर्षगांठ (रजत जयंती) मनाते हैं। यह वस्तुत: वानप्रस्थ आश्रम की ओर बढ़ने का ही संकेत है; पर अधिकांश लोग इस समय तक घरेलू जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पाते। इसलिए ६० वर्ष पूर्ण होने पर ‘षष्ठिपूर्ति समारोह’ मनाने की प्रथा है। यह वानप्रस्थ के लिए अंतिम सीमा का संकेत है। अब तो नौकरी में भी अवकाश प्राप्ति की सीमा यही हो गयी है। अर्थात ५० से लेकर ६० वर्ष तक, जब भी सुविधा हो, व्यक्ति को सामाजिक कार्य में उतर जाना चाहिए। ऐसे ही ‘हीरक जयंती’ या अमृत महोत्सव (७५ वीं वर्षगांठ) संन्यास की ओर चलने का निमन्त्रण देती है। इसी की अगली कड़ी ‘सहस्रचंद्र दर्शन’ है, जो संन्यास की अंतिम समय सीमा भी है।
इस व्यवस्था में कुछ और बातें भी अन्तर्निहित हैं। वानप्रस्थ दीक्षा या षष्ठिपूर्ति के बाद व्यक्ति को शरीर के श्रृंगार या दिखावे का मोह छोड़कर मौसम और माहौल के अनुकूल चार-छह जोड़ी कपड़ों से ही काम चलाना चाहिए। ऐसे ही ‘संन्यास दीक्षा’ या ‘सहस्रचंद्र दर्शन’ का अर्थ है सभी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति से अधिकार छोड़ना। महिलाएं अपने गहने पुत्र और पौत्रवधुओं को बांट दें तथा पुरुष भी मकान, दुकान, खेत या बैंक बैलेंस आदि का समुचित वितरण कर सब बंधनों से मुक्त हो जाए। इससे जहां एक ओर सच्चे मन से भजन हो सकेगा, वहां बच्चे भी अपने बुजुर्गों का पूरा ध्यान रखेंगे।
समारोह के बाद कुछ लोग चाट-पकौड़ी और भोजन की चर्चा कर रहे थे, तो कुछ लोग बाबा के संदेश और संकेतों की। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

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