संतों के राजकुमार’’ के नाम से विख्यात, निमाड़  के संत दलु दास जी ग्वाल

नर्मदाचंल स्वर्ग के देवताओं को भी अपनी ओर आकर्षित करता आया है और यहॉ पर अनेक ऋषि मुनियों, मनीषियों सहित संत-महात्माओं ने जन्म लेकर अपने जीवन में चमत्कारों के माध्यम से जन-जन की सेवायें की है इनमें एक नाम संत दलु जी महाराज का भी है। वे सिंगा जी के पौत्र एवं कालू महाराज के पुत्र थे तथा मॉ का नाम गुलाब बाई था। जो कबीर के बाद उलटबांसी लिखने में अपनी पहचान बना चुके थे जिन्होंने संत परम्परा को विरासत में पाकर निमाड़ के जनमानस के दिलों में और तत्कालीन संतों मेंं ’’संतों के राजकुमार’’ के नाम से विख्यात रहे है।

साहित्य के क्षैत्र में अपने दादाजी सिंगा जी महाराज एवं पिता संत कालू महाराज को पीछे छोड़ते हुये दलुजी महाराज का विशेष महत्व एवं आदर है और उनके गाये भजन की सॅख्या अन्य संतों के मुकावले कहीं अधिक है। निमाड में निर्गुणी संत परम्परा के जनक के रूप में दलुजी लोकप्रिय रहे है तथा पूरे निमाड क्षैत्र के किसी भी गॉव-कस्वे में भं्रमण करने पर संत सिंगाजी  की भजन मण्डलियों को दलुदास जी के भजनों को गाते हुये देखा जा सकता है और लोगों का मानना है कि दलुजी के भजनों के गाये बिना यहॉ का संगीत अधूरा है। दलु जी के जन्म को लेकर मान्यता है कि जिस वर्ष कालूजी महाराज समाधि में गये उसके 9 माह बाद ही उनका  जन्म संवत 1950 में हुआ। दलु जी ने अपने अनेक पदों में यादव वंश में जन्म लेने पर गर्वित होकर लिखते है-
यदु वंश में जलम लियो रे, वहॉ दलु आया मेजवान।
जा घर सिंगा जी जलमिया, दलु आया मेजबान।। 
दलु जी ने पहली पंक्ति में ही अपनी वंश परम्परा का जिक्र किया है तथा दूसरी पंक्ति में सिंगा जी पंथ का  उल्लेख करते हुये उनके यदुवंश में जन्म होने की बात कहते हुये उनके घर स्वयं को मेहमान के रूप में जन्म लेने का रहस्य उजागर किया। दलु जी के बचपन की बातें, उनकी शिक्षा-दीक्षा की बातें अज्ञात है कि वे कहॉ तक पढ़े, उन्होंने अक्षरों का ज्ञान कहॉ पाया किन्तु इतना पर्याप्त है कि वे सिद्ध संत थे और सभी उन्हें संतों का संत स्वीकारते थे। इसलिये भी दलु जी का जीवन चमत्कारों से भरा था और जहॉ सिंगा जी और उनके पिता कालू जी महाराज की ख्याति स्थानीय स्तर पर थी वहीं दलु जी ने इस मिथक को तोड़ा और झाबुआ के नरेश उनके भक्त हो गये -झाबुआ मा दियो संदेशों, भूप ने शीश पर धर लियो। उनके चमत्कारों से यहॉ के जनमानस दंग रहते थे। उन्होंने यहॉ सोनाबाई के मृत बालक को जीवित कर दिया था, साठ वर्ष की उम्र में रानी को पुत्र होने का वरदान देने, बछेरी का दूध दुहने जैसे प्रसंग उनके भक्तों द्वारा गाये जाते है।

दलु जी महाराज गुरु भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुँचे है और समर्पित भाव से अपने गुरु के रूप में अपने दादा जी सिंगा जी महाराज को प्रमुख स्थान दिया और उन्हें भगवान माना। पुत्र के हृदय में पिता का सर्वोच्च स्थान होना चाहिये किन्तु इस कलयुग में यह दुर्लभ देखने को मिला जब दलु जी ने पिता के स्थान पर अपने दादा जी सिंगा जी महाराज को एकनिष्ठ होकर स्थिरप्रज्ञ की तरह उनकी भक्ति की। पितामह की भक्ति के पश्चात मौजूद भक्त दलु जी में सिंगा जी का रूप देखने लगे, यह भक्ति की चर्मोत्कृष्टता है। दलुजी महाराज का दर्शन उन्हें उत्कृष्ट स्थान पर पहुचाता है जिसमें जहॉ वे एक साधु की पहचान क्या होना चाहिये को स्पष्ट करते हुये संत रंका और बंगा की तरह बतलाते है जो लकड़ी काटकर बेचते और अपना जीवन यापन करते। उन्होंने अपना सिर कटवा लिये लेकिन सत्यमार्ग से विचलित नहीं हुये तथा किसी भी प्रकार के धन-संपत्ति के लोभ से परे थे। वे साधु की व्याख्या करते हुये कहते है कि-

राम बिना रे कैसा जिवणा,तम चेतो रे भाई।
राम के बिना अर्थात ब्रह्म को पाये बिना जीना व्यर्थ है इसलिये अपने  अंदर आत्मा में विराजमान परमात्मा को पहचानो ओर उसे पहचानने की आवश्यकता है। वे सभी को जगाते हुये कहते है-

चेतो रे जुग जाता रे, कोई चेतो रे जुग जाता रे।
जीवता जीव का नाता रे।
समय का चक्र निरंतर गतिमान है और किसी के रोके नहीं रुकता है, देखते ही देखते समय चक्र के लपेटे में आकर कई युग निकल चुके है इसलिये जीव को समझ लेना चाहिये कि जब तक शरीर है उसका जीव से नाता है। यहॉ दलु जी स्पष्ट कहते है कि जीव और परमात्मा एक ही हैं। यह कायारूपी घर किस प्रकार बना है इसे समझ लेना चाहिये। काया का एक घर स्वर्ग में है और एक पृथ्वी पर है। काया के अंदर निवासरत आत्मा ही स्वर्ग तक जाती है जबकि शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है।
उतार सिर का बोझा, क्यों मरता क्यों मरता।
किनकी माता, किनका पिता, किनकी सुन्दर नार।।
कितने भाई किनके बंधु, किनका धन और माल।
किनके हाथी किनके घोड़े, किनका राज न पाट।।
कहे जन दलु सुनो भाई साधो, ले ले हरि का नाम।।
दलु जी संसार की असारता की सीख देते हुये कहते है कि यह पूरा संसार झूठा है,यहॉ कौन किसका होता है, न भाई भाई का है, न मित्र मित्र का है सब धन की दोड़ में जोड़ने लगे है। यहॉ किसी का राज नहीं रहा, भले हाथी, घोड़े का गर्व उसे राजपाट का मालिक बतलाता रहा वे सब यही धरे रह जाते है। असल में वे कलियुग में चारों ओर फैले पापाचार से दुखी थे जहॉ शिष्य गुरू की बातें नहीं मानते थे, पुत्र पिता की बातें नहीं मानता है और सभी झूठे अहंकार, घमण्ड में जी रहे है जबकि उन्हें ईश्वर के चरणों में ध्यान रखकर उन्हें जपकर अपने जीवन को सुधारना चाहिये लेकिन वे झूठ में जीने की आदत से मुक्त नहीं हो पा रहे है। वे कहते है-
मैली गोदड़ी साधु धोई लेणा रे, अनी, हॉ-हॉ रे उजली कर लेणा।
यहॉ वे सन्देश देते है कि यह शरीर जन्म के समय ठीक था लेकिन उम्र ढ़लने के साथ इसी शरीर को गोदडी की तरह ओढ़ते-बिछाते आये है इसलिये इसमें कई तरह के विकारों का मैल लगने से यह गंदा हो गया है। सभी को चाहिये कि वे समय रहते अपने शरीर के विकारों-तृष्णाओं से मुक्त रहने के लिये इसे धोते रहे। इसके अलावा पुनः कहते है-
मत तू निर्भय कर ले जगा, मन रे तेरा न कोई सगा।
भाई बंधु और कुटुंब कबीला, आखिर देगा दगा।।
ये त्रिया रे अपनी मत जाणों, सींगी रूसी को ठगा।।
दलु जी कहते है समय किसी के लिये भी पल दो पल नहीं ठहरता हैं इसलिये मनुष्य को जान लेना चाहिये कि उसका तब तक कल्याण नहीं जब तक वह अपने मन को निडर न कर ले। निडर-निर्भय से तात्पर्य है कि तू जो संसार में लोगों को भाई,भतीजा या कुटम्ब कबीला का मानकर उन्हें अपना सगा समझे हुये है, वे कोई सगे नहीं है, अंत समय में सभी तुझे धोखा देने वाले है। जब मायारूपी ठगिनी बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को ठगने से नहीं छोड़ती तो तेरी क्या औकात  है।

संत दलुजी अपने पदों के माध्यम से समाज को सन्देश देते है कि इस संसार में कोई भी निरापद नहीं है। आकाश में चान्द-सूरज रहते है उन्हें ग्रहण लग जाता है। जंगल में वनस्पतियों-पेड़, पौधे अपने को सुरक्षित मानते है कभी कोई कुल्हाड़ी लेकर पहुचता है उन्हें काट लाता है तब वे कहॉ सुरक्षित रहे। वे कहते है कि इस कलयुग में कोई सत्य नहीं बोलता सभी झूठ के लपेटे में है। झूठ का जहर चारों और फेला है। वहीं वे सतयुग में सत्य की महिमा को व्यक्त करते हुये कहते है कि राजा हरिश्चंद्र सत्य के लिये अपने आपको डोम के घर बिकवा देते है,त्रेता में राम पिता की आज्ञा पाकर सत्य के लिये 14 वर्ष का वनवास पूरा करके लौटते है।

संतत्व को पाने के बाद या कहे अपने निर्गुण ब्रह्म से एकाकार होने के बाद जो संतों का अर्हनिश आल्हाद झलकता है वह वैसे ही है जैसे सहस्त्रधार से सतत बरसने वाले अमृत का रस्वास्वादन। दलु जी ऐसे ही संत है जिन्हें मॉ नर्मदा की कृपा निरन्तर प्राप्त होती है और वे मॉ का दर्शन करते नहीं अघाते है। इसलिये वे कहते है-
रेवा माता, दल्लु दरसण को आता।
इधर रेवा, उधर काबेरी, बीच में गढ़ मन्धाता।।
संत दलु महाराज पर माता नर्मदा की परमकृपा थी और वे उन्हें संत दलु के घर पर दर्शन दिया करती थी जिसे उन्होंने स्वयं व्यक्त किया है-हे दलु सुणों भाई साधु, घर पर दरसन पाता।
अगर संत दलुजी की उलटवासियों का उल्लेख नहीं किया तो हम कबीर से उनकी तुलना की बात को कैसे व्यक्त कर सकेंगे इसलिये यहॉ उनकी उलटवासिया के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है जो उन्होंने सिंगाजी के पदों से प्रेरणा लेकर प्रस्तुत की है-
उण्डो कुवो मुख साकड़ो, उसमें नीर पिलाया।
भाई रे पोपट थारा कारण, कैसा बाग लगाया।।
सायब (स्वामी) सिंगा जी के अलावा दलु जी का कोई नहीं है।
तुम बिन म्हारो कोई नहीं, सुणी लेवो म्हारा नाथ
सासु बिन सूनो सासुरो, पियर बिन माय।
तुम बिन म्हारो हिबड़ों रे, घड़ी पल न खाय।
कहते है कि दलु जी ने 600 से अधिक पदों की रचना की है जो संतों की धरोहर के रूप में लोगों के हृदय में बसे हुये है। निमाड़ी भाषा को परिष्कृत करने का श्रेय सिंगाजी को जाता है जिसे आगे बढ़ाने में उनके पुत्र संत कालू जी एवं पौत्र संत दलु जी को याद किया जाता है। विशेषकर  निमाड़ की संस्कृति ओर आध्यात्मिकता इन्हीं संतों की देन है। सिंगा जी के बाद दलु जी के भजन विशेष रूप से प्रभावशाली,सुन्दर तथा भावना प्रधान है जो निमाड की माटी की सुगन्ध, संतों का फक्कड़पन, निमाड़ियों के सात्विक भोलेपन का जीवंत एहसास दिलाते है। जिनकी भक्ति गाथाओं की स्वरलहरियों उनके जाने के बाद झॉझ-मजीरों, ढ़ोलक की थाप पर आज भी निमाड क्षैत्र में रात्रि की नीरवता को बेधती गुंजित होती है।

आत्‍माराम यादव पीव 

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