संत रैदास: धर्मांतरण के आदि विरोधी – घर वापसी के सूत्रधार   

प्रवीण गुगनानी

लगभग सवा छः सौ वर्ष पूर्व 1398 की माघ पूर्णिमा को काशी में जन्में संत रविदास यानि संत रैदास को निस्संदेह हम भारत में धर्मांतरण के विरोध में स्वर मुखर करनें वाली और स्वधर्म में घर वापसी करानें के प्रथम या प्रतिनिधि संत कह सकतें है.

धर्मांतरण हिन्दुस्थान में सदियों से एक चिंतनीय विषय रहा है. इस देश में धर्मांतरण की चर्चा और चिंता पिछले आठ सौ वर्षों पूर्व प्रारम्भ हो गई थी, समय-काल-परिस्थिति के अनुसार यह चिंता कभी मुखर होती रही तो अधिकांशतः आक्रान्ताओं और आतताइयों के अत्याचार से दबे-कुचले स्वरुप में अन्दर ही अन्दर और पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रही. १२ वी सदी में जब मुस्लिम आक्रान्ता भारत की ओर बढ़े तब वे धन लूटनें और धर्म के प्रचार के स्पष्ट और घोषित व स्पष्ट लक्ष्य के साथ ही आये थे. इन बाहरी आक्रान्ताओं और शासकों को भारत की जनता का बहला फुसलाकर या जबरदस्ती बलात धर्मांतरण करानें में किसी प्रकार का कोई सामाजिक या सांस्कृतिक अपराध बोध नहीं लगता था, बल्कि ऐसा करके वे स्वयं को बहुत गौरान्वित महसूस करते थे. मुस्लिम आक्रान्ता अपने इन दो षड्यंत्रों के लक्ष्य के कारण कभी भी भारतीय समाज में समरस व एकरस नहीं हो पाए. उस दौर में स्वाभावतः ही हिंदुस्थानी परिवेश में धर्मांतरण को लेकर भय, चिंता और इससे छुटकारे की प्रवृत्ति उपजने लगी थी.

संत रैदास ने जब समाज में आततायी विदेशी मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी का आतंक व धर्मांतरण का अभियान देखा तब वे दुखी हो बैठे. लोदी ने हिन्दुओं पर विभिन्न प्रकार के नाजायज कर जैसे तीर्थ यात्रा पर जजिया कर, शव दाह करनें पर जजिया कर, हिन्दू रीति से विवाह करनें पर जजिया कर धर्मांतरण को लक्ष्य करके लगा दिए थे. उस समय में स्वामी रामानंद ने अपनें भक्ति भाव के माध्यम से देश में देश भक्ति का भाव जागृत किया और आततायी मुसलमान शासकों के विरुद्ध एक आन्दोलन को जन्म दिया था. स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन परिस्थितियों को समझकर कर विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि संतों को जोड़कर द्वादश भगवत शिष्य मण्डली स्थापित की. विभिन्न समाजों का प्रतिनिधित्व करनें वाली इस द्वादश मंडली के सूत्रधार और प्रमुख, संत रविदास जी थे. संत रैदास ने हिन्दू संस्कारों के पालन पर मुस्लिम शासकों द्वारा लिए जानें वाले जजिया कर का अपनी मंडली से विरोध किया और इस हेतु जागरण अभियान चला दिया. इस मंडली ने सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर देशज भाव और स्वधर्म भाव के रक्षण और उसके जागरण का दूभर कार्य करना प्रारम्भ किया. संत रैदास के नेतृत्व में उस समय समाज में ऐसा जागरण हुआ कि उन्होंने धर्मांतरण को न केवल रोक दिया बल्कि उस कठिनतम और चरम संघर्ष के दौर में मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हुए देश के अनेकों क्षेत्रों में धर्मान्तरित हिन्दुओं की घरवापसी का कार्यक्रम भी जोरशोर से चलाया. संत रविदास न केवल देश भर की पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार्य संत हो गए अपितु अगड़ी जातियों के शासकों और राजाओं ने भी उन्हें अपनें अपनें दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान देना प्रारम्भ कर दिया. इस प्रकार संत रविदास को मिलनें वाले सम्मान के कारण देश की पिछड़ी और अगड़ी जातियों एतिहासिक समरसता का वातावरण निर्मित हो चला था. संत रविदास भारतीय सामाजिक एकता के प्रतिनिधि संत के रूप में स्थापित हो गए थे क्योंकि मुस्लिम शासकों को चुनौती देनें का जो दुष्कर कार्य ये शासक नहीं कर पाए थे वह समाज शक्ति को जागृत करनें के बल पर एक संत ने कर दिया था!! पिछड़ी जातियों में आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन के बाद भी स्वधर्म सम्मान का भाव जागृत करनें में रैदास सफल रहे और इसी का परिणाम है कि आज भी इन जातियों में मुस्लिम मतांतरण का बहुत कम प्रतिशत देखनें को मिलता है.

मुस्लिम आक्रान्ता  सिकंदर लोदी ने सदन नाम के एक कसाई को संत रैदास के पास मुस्लिम धर्म अपनानें का सन्देश लेकर भेजा. यह ठीक वैसी ही घड़ी थी जैसी कि वर्तमान काल में बोधिसत्व बाबा साहेब आंबेडकर के समय आन खड़ी हुई थी. यदि उस समय कहीं संत रैदास आततायी लोदी के दिए लालच में फंस जाते या उससे भयभीत हो जाते तो इस देश के हिंदुस्थानी समाज की बड़ी  एतिहासिक हानि हुई होती. यदि उस दिन संत रैदास झुक जाते तो निस्संदेह आज इतिहास कुछ और होता किन्तु धन्य रहे पूज्य संत रविदास कि वे टस से मस भी न हुए, अपितु दृढ़ता पूर्वक पुरे देश को धर्मांतरण के विरुद्ध अलख जलाए रखनें का आव्हान भी करते रहे.

उन्होंने अपनी रैदास रामायण में लिखा –

“वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान

फिर क्यों छोड़ इसे पढ लूं झूठ कुरआन

वेद धर्म छोडूं नहीं कोसिस करो हजार

तिल-तिल काटो चाहि,गला काटो कटार”

देश ने अचंभित होकर यह दृश्य भी देखा कि संत रैदास को मुस्लिम हो जानें का सन्देश लेकर उनकें पास आनें वाला सदन कसाई स्वयं वैष्णव पंथ स्वीकार कर विष्णु भक्ति में रामदास के नाम से लीन हो गया. इससे निर्मम और बर्बर सिकंदर लोदी क्रुद्ध हो बैठा और उसनें संत रैदास की टोली को चमार या चांडाल घोषित कर दिया. इनकें अनुयाइयों से जबरन ही चर्मकारी का और मरे पशुओं के निपटान का कार्य अत्याचार पूर्वक कराया जानें लगा. भारत में चमार जाति का नाम, इस घटना क्रम और सिकंदर लोदी की ही उपज है. संत रविदास उस काल में इतनें लोकप्रिय और सम्माननीय हुए कि प्रसिद्ध  चित्तोड़ घरानें की महारानी मीरा ने उन्हें अपना गुरु धारण किया. महारानी मीरा रैदास की भक्ति में मीरा बाई कहलानें लगी. भक्त मीरा नें स्वरचित पदों में अनेकों बार संत रैदास का स्मरण गुरु स्वरूप किया है –

‘गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।’

‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि    खावै.’

स्वामी विवेकानंद ने “एक धर्मांतरण से एक राष्ट्र शत्रु के जन्म” का जो विचार वर्तमान काल में प्रकट किया उसे संत रैदास नें छः सौ वर्ष पूर्व समझ लिया था और राष्ट्र को समझानें व बतानें हेतु देश के हर हिस्सें में जाकर जन जागरण भी किया था.

 

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