सखी वे हैं भी या कि हैं ही नहीं, हुआ अहसास नहीं उम्र गई;
कबहुँ बौराई कबहुँ भायी रही, जगत की माया समझ पाई नहीं !
सहज गति आई नहीं धायी रही, मग़ज मैं मारी रही बूझी नहीं;
कर्म बहुतेरे करी धर्म बही, तबहु मैं तरी कहाँ मर्म गही !
ध्यान दुनियाँ कौ रह्यौ उनकौ कहाँ, दीख वे पाए कहाँ दीक्षा बिना;
देखे वे मोकूँ रहे समझी मना, देखी पर मैं थी कहाँ उनके मना !
रही बुद्धि में फँसी तर्क धंसी, घुस के विज्ञान ज्ञान ना चूसी;
ख़ुशी भीतर की गूढ़ ना देखी, उदर की भूख आत्म ना मेखी !
रहे अनुरागते गति मेरी, संभाले हर घड़ी मति मोरी;
‘मधु’ जैसी-ऊ रही उनकी रही, फिरि-ऊ नैनन ते तिनहिं ताकी नहीं !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’