मां तुझे सलाम

 “इक़बाल भाई! ये देखो अमन की चिट्ठी आई है। ज़रा पढ़कर बताना तो, क्या लिखा है उसने? वह होली पर घर तो आ रहा है न? कहीं पिछली बार की तरह इस बार भी उसकी छुट्टियां रद्द तो नहीं हो गयीं?”

कमला देवी एक साँस में बोलती चली गयीं। 

“अरे कमला बहन! अमन होली वाले दिन घर आ रहा है। वो भी पूरे पन्द्रह दिनों के लिए। साथ में अपना शाहिद भी आ रहा है। इस बार हम जम कर होली खेलेंगे। मैं अभी शकीला को अमन और शाहिद के आने की खबर देता हूँ।”

खुशी से इक़बाल भाई फूले नहीं समा रहे थे। कमला देवी ने अमन की चिट्ठी को कम से कम दस बार चूमा और उसे सीने से ऐसे चिपका लिया जैसे वो कोई चिट्ठी नहीं बल्कि अमन हो। 

दस दिन का समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया। आज होली का दिन भी आ गया। आज तो कमला देवी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। वो दौड़ दौड़ कर सारे काम ऐसे कर रहीं थीं जैसे उनके शरीर में कोई मशीन फिट कर दी गयी हो। वो शारीरिक सामर्थ्य से अधिक काम कर रहीं थीं। 

अमन के लिए वो एक माँ ही नहीं एक पिता भी थीं। पाँच साल का था अमन, जब उसके पिता एक सड़क दुर्घटना में मारे गये थे। तब से कमला देवी ने अमन को एक माँ के साथ एक पिता बनकर पाला था। अमन के पिता अक्सर कहा करते थे, 

“कमला! तुम देखना, मैं अपने बेटे को फौज में भेजूंगा। देश की सेवा करेगा वह।”

कमला देवी ने अपने पति की इच्छा का सम्मान रखा और बड़ा होते ही अमन को फौज में भेज दिया।

सुबह से अनगिनत बार कमला देवी घड़ी देख चुकी थीं। बार बार घड़ी देखने से उसकी रफ्तार बढ़ तो नहीं सकती थी ना?? लेकिन उतावला मन ये कहाँ समझता है। उसे तो लगता है कि घड़ी की सुइयां जैसे उसके सब्र का इम्तहान ले रही हैं।

ठीक आठ बजे बाहर गली में किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आई। कमला देवी भागती हुई बाहर पंहुचीं। शाहिद टैक्सी से उतर रहा था। लेकिन शाहिद बिना कमला देवी को देखे टैक्सी से उतरकर सीधे अपने घर के अंदर चला गया। कमला देवी को यह थोड़ा अटपटा लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान तो टैक्सी से उतरने वाले अमन की ओर था जो कि अभी तक उतरा नहीं था। 
ये कुछ पल कमला देवी के लिए सदियों के बराबर थे। तभी टैक्सी आगे बढ़ गई। 

“तो क्या अमन इस बार भी नहीं आया? क्या इस बार भी उसकी छुट्टियां रद्द हो गयीं। लेकिन उसने तो लिखा था कि वह होली वाले दिन आ जाएगा। फिर क्यों नहीं आया? और फिर शाहिद मुझसे मिले बिना क्यों चला गया?”

अनेकों सवाल लिए कमला देवी इक़बाल भाई के घर पंहुच गईं। वहाँ का माहौल देखकर उनके दिल को एक धक्का सा लगा। कुछ बुरे विचार मन में आए लेकिन उन्होंने खुद को सामान्य कर लिया। तभी शाहिद ने कमला देवी के पैर छुए और नज़रें झुका कर कहा,

“बुआ अमन इस बार नहीं आ पाया। सीमा पर लड़ाई शुरू हो गयी है न..इसलिए उसकी छुट्टियां रद्द कर दी गयीं।”

इतना बोलने में शाहिद का पूरा शरीर पसीने से भीग गया। उसकी आवाज काँप रही थी। वह कमला देवी से नजरें नहीं मिला पा रहा था।

“शाहिद! मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैंने या तेरे अम्मी अब्बू ने कभी तुझे झूठ बोलना सिखाया हो।”

शाहिद चौंक गया। उसने नज़रें उठाकर कमला देवी की तरफ देखा। वह कुछ बोलता उससे पहले ही कमला देवी बोलीं,

“सीमा पर लड़ाई शुरू हो गयी और तू घर आ गया। तुझे छुट्टी मिल गयी और अमन को नहीं मिली? जबकि तुम दोनों एक ही बटालियन में हो। सच सच बताओ शाहिद! बात क्या है?”

शाहिद कमला देवी के सवालों का सामना नहीं कर पा रहा था। अब तक उसकी आँखों में रुके आँसू बाँध तोड़कर बह निकले। वह फूट फूट कर रो पड़ा। शाहिद का रोना देखकर कमला देवी, शकीला और इक़बाल भाई जैसे बुत बन गये। वे अमन के न आने का कारण समझ चुके थे, फिर भी उनकी आँखों में एक उम्मीद थी जो जल्दी ही खत्म होने वाली थी।

“बुआ! परसों रात दुश्मन के कुछ सैनिकों ने अंधेरे का फायदा उठाकर हमारी चौकी पर हमला कर दिया। हम संख्या में उनसे ज्यादा थे इसलिए उनसे हुई मुठभेड़ में जीत हमारी हुई लेकिन अमन दुश्मनों की गोली से मारा गया।”

“चटाक!”

कमला देवी का लहराता हुआ हाथ शाहिद के गालों पर पड़ा। वे लगभग चीखते हुए बोलीं,

“तुझे शर्म नहीं आती इस तरह बोलते हुए।”

“बुआ! मैं आपकी मनोदशा समझ सकता हूँ लेकिन इस बार मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ। ये सच है कि अमन दुश्मनों के हाथों मारा गया।”

चटाक की तेज आवाज के साथ एक बार फिर कमला देवी का हाथ शाहिद के गाल पर पड़ा। शाहिद समझ नहीं पाया कि क्या हुआ?

“शाहिद! तुम अमन के दोस्त ही नहीं भाई भी हो। और इससे बढ़कर तुम एक फौजी हो। तुमको अमन के लिए ऐसा बोलना शोभा नहीं देता। अमन मरा नहीं है, वह शहीद हुआ है। फौजी कभी नहीं मरते, शहीद होते हैं और शहीदों के घर वाले तुम्हारी तरह रोते नहीं हैं, बल्कि उन पर गर्व करते हैं।”

शाहिद से बहुत बड़ी गल्ती हो गयी थी। उसे ग्लानि हो रही थी अपने कहे शब्दों पर। उसने कमला देवी को एक जोरदार सैल्यूट मारा। 

कमला देवी थके कदमों से घर की तरफ चल दीं। शाहिद अभी भी सैल्यूट की मुद्रा में खड़ा था। उसके होंठ बुदबुदा उठे,

“माँ तुझे सलाम…

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अल्का श्रीवास्तव
मैं अलका श्रीवास्तव, कानपुर उ.प्र.की निवासी हूं। मैं एक ग्रहणी हूं। अब तक मैंने दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला "मनाही" जिसमें सामाजिक मुद्दों और आसपास की घटनाओं से जुड़ी कहानियां हैं। दूसरा "बुद्धिमान चीकू नीकू और अन्य कहानियां" है, जिसमें बच्चों के लिए चंपकवन के जानवरों की प्रेरक और नैतिक कहानियां हैं। संपर्क न.: 9453534254

1 COMMENT

  1. क्या हमें साम्प्रदायिक सौहार्द से हट कर कुछ अलग लिखने का प्रयास करना चाहिये…एकतरफा सौहार्द नही होता…इस्लाम का संकल्प है “जिहाद” वे इसको ही पूजा व तीर्थ मानते हैं.. अतः हम हिन्दू क्यों अपने अस्तित्व की रक्षार्थ सोचते..1400 वर्षो में हमने अपने करोड़ो भाई-बहनों को जिहाद के कारण खोया है और अभी भी ऐसा होना रुका नही। अतः हिन्दुओं में शौर्य व वीरता का भाव भर कर उनमें आतताइयों के प्रति °जैसे को तैसा° का व्यवहार करना सीखना होगा।

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