—विनय कुमार विनायक
ये देह किसी का स्थाई गेह नहीं होती
ये देह हद में बंधी हुई है, हद के बाहर
बेहद कठिन, देह धारण की परिस्थिति,
ये प्राण के सिवा कुछ वरण नहीं करती!
देह में अन्न डालो कुछ घड़ी के बाद ही
अन्न जल के निकल जाता मल बन के
देह में जल डालो, कुछ पल के बाद ही
जल जलन मिटा के गिर जाता गुर्दा से!
देह में हवा एक नथुने से आती क्षण में
अविलंब दूसरे नथुने से निकल भी जाती,
जब कि सबसे अधिक आवश्यकता होती
हवा की जीव-जंतुओं के जीवन धारण में!
ये देह हद से अधिक कुछ भी नहीं चाहती,
अति संभोग समाधि व्याधि सह नहीं पाती,
क्रोध लोभ मोह घृणा तृष्णा को भी, देह में
घर नहीं करने दो, शीघ्रतापूर्वक निकाल दो!
प्रेम स्थाई भाव, जीव जंतु प्राणी जगत का,
हंसना स्वभाव है मानव लता पत्ता फूलों का,
ईर्ष्या द्वेष जलन आक्रोश गुस्सा है क्षणिक,
क्षण में त्याग दो अन्यथा होगी बड़ी व्यथा!
प्रणाम करो प्राण को, प्यार करो प्राणी से,
पति होकर पत्नी का, पत्नी होकर पति का
मां-पिता बनो पुत्र का,पुत्र हो परम पिता का,
प्रकृति पर्यावरण प्राणी है प्रेम परमेश्वर का!
—विनय कुमार विनायक