स्मृति ईरानी के साहस को सलाम

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

मंदिर की मर्यादा को लेकर उठे इस विवाद पर स्मृति ईरानी की टिप्पणी बहुत ही सार्थक कही जाएगी । मंदिर की मर्यादा पर सबसे पहली टिप्पणी तो उच्चतम न्यायालय की उस पीठ का हिस्सा रहीं न्यायमूर्ति  मल्होत्रा की है जिसने बहुमत के निर्णय से अलग हट कर अपना अल्पमत का निर्णय लिखवाया । मंदिर में जो विवाद खड़ा किया गया वह महिलाओं से भेदभाव को लेकर ही खड़ा किया गया था । विवाद को जन्म देने वाले ‘यंग एक्टिविस्ट’ थे न कि भगवान अय्यप्पा के भक्त । मंदिर एक्टिविजम की जगह नहीं है बल्कि भक्ति की जगह है । इस अनधिकार चेष्टा को पहचाना जाना चाहिए था लेकिन पहचाना नहीं गया । सभी के ध्यान में होगा कि एक बार उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संविधान के आंतरिक आपात स्थिति के चलते , यदि राज्य किसी नागरिक को गोली से मार भी दे तब भी वह मौलिक अधिकारो के अनुच्छेद के रहते हुए भी अपने जीवन की रक्षा की गुहार नहीं लगा सकता । बहुमत के उस निर्णय में न्यायमूर्ति का अल्पमत का निर्णय भी था । आज रोल माडल अल्पमत का निर्णय देने वाले उस न्यायाधीश का ही स्मरण लोगों को है ।
यही स्थिति सबरीमाला मंदिर को लेकर है । उसके अन्दर जाकर अय्यप्पा की पूजा करने के अधिकार को लेकर है । उस पर स्मृति ईरानी के कथन की समीक्षा करनी होगी। स्मृति ईरानी ने कहा कोई अक़्लमंद व्यक्ति किसी मित्र के घर में ‘ख़ून आलुदा’ कपड़े लेकर नहीं जाता। यह किसी भी सभ्य समाज में मर्यादा के विपरीत माना जाएगा । स्मृति ईरानी इतना तो जानती ही होंगी कि उनका यह कथन विवाद खड़ा कर देगा और यंग एक्टिविस्ट उनके पीछे भी पड जाएँगे। लेकिन विपरीत परिस्थिति में भी जो सत्य कहने से पीछे नहीं हटता वही साहसी कहला सकता है । सींग कटा कर भेड़ों में शामिल हो जाना और उन्हीं की भाषा में मिमियाते रहना नेतृत्व का लक्ष्ण नहीं हो सकता। ईरानी ने तथाकथित एक्टिविजम को चुनौती दी है।उनका कहना है कि मैं अपने बच्चें को लेकर अग्निमंदिर जाती हूँ क्योंकि मेरे दोनों बच्चे अग्निमंदिर की पूजा करने वाले सम्प्रदाय के पुजारी हैं। लेकिन मुझे उस मंदिर के भीतर जाने का अधिकार नहीं है क्योंकि मंदिर की यही मर्यादा है और मंदिर के भक्त भी चाहते हैं कि मंदिर की उस मर्यादा की रक्षा की जाए । स्मृति ईरानी स्वेच्छा से उनकी इस मर्यादा का पालन करती हैं। यह किसी भी सभ्य समाज का लक्षण है ।लेकिन इससे जुड़ा एक बडा प्रश्न भी है । स्मृति ईरानी तो अपने संस्कारों के कारण उस मंदिर की मर्यादा का पालन करती हैं लेकिन कल यदि कोई यंग एक्टिविस्ट , इसे समानता विरोधी बता कर उस मंदिर में घुसने का प्रयास करे ? उसका उत्तर भारत के संविधान में है । संविधान इस मंदिर को , जिसकी चर्चा स्मृति ईरानी कर रही हैं , अल्पसंख्यक समुदाय का मंदिर मानता है , इसलिए उसकी मर्यादा की रक्षा का दायित्व लेता है । इतना ही नहीं , वह यह भी ध्यान रखता है कि राज्य या सरकार उसमें दख़लन्दाज़ी ही न कर सके। इस बात की निश्चय ही प्रशंसा की जानी चाहिए कि संविधान इस मंदिर की मर्यादा की सुरक्षा देता है । लेकिन फिर सबरीमाला मंदिर के मामले में यह सब क्यों हो रहा है ? उसकी मर्यादा की रक्षा का प्रश्न तो बाद में आएगा , सबसे पहले तो यही प्रश्न है कि उस जरदोशनी मंदिर में जिसकी चर्चा स्मृति ईरानी कर रही हैं . सरकार दख़लन्दाज़ी नहीं दे सकती लेकिन सबरीमाला मंदिर पर तो सरकार ने क़ब्ज़ा ही किया हुआ है ? यह कैसे संभव हुआ ? इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है कि यह मंदिर भारत के बहुसंख्यक समुदाय का है , इसलिए सरकार इसे अपने नियंत्रण में ले सकती है। यह व्यवस्था भारत पर क़ब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने तुरन्त शुरु कर दी थी क्योंकि वे यहाँ आने के बाद कुछ वर्षें में। ही समझ गए थे कि आस्था प्रधान भारतीयों की संस्कृति की रीढ़ रज्जु ये मंदिर ही हैं । यदि इन पर क़ब्ज़ा कर लिया जाए तो भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से लकवा मारते देर नहीं लगेगी , और चर्च के लिए भारत में पैर ज़माना सुविधाजनक हो जाएगा। इसलिए हिन्दुस्तान में सबसे पहले मंदिरों पर क़ब्ज़ा मद्रास प्रैजीडैंसी में ही सुरु हुआ था , जिसमें उस समय आज का केरल भी आता था। लेकिन दक्षिण में जो भारतीय रियासतें थीं, जिनमें शासन भारतीयों का ही था , गोरे महाप्रभुओं का नहीं इसलिए उनपर गोरे क़ब्ज़ा नहीं कर सके। परन्तु दुर्भाग्य ले उन पर क़ब्ज़ा सरकार ने तब किया , जब अंग्रेज यहाँ से चले गए। जाते वक्त जिनको वे सत्ता सौंप कर गए थे , उनकी आस्था भगवान अय्यप्पा में इतनी नहीं थी ,जितनी ब्रिटिशों की रीति नीति में। उनकी सैक्युलुरवादी नीति और गोरों की चर्च नीति में कोई मौलिक अन्तर नहीं था। यह उसी नीति की निरन्तरता का परिणाम है कि आज अय्यप्पा के घर के भीतर घुस कर उससे छेड़छाड़ का साहस हो रहा है । एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए की भारतीय विधि संहिता में अय्यप्पा का वैधानिक अस्तित्व भी है। सामी सम्प्रदायों के खुदा या गाड का वैधानिक अस्तित्व नहीं है। इसलिए अय्यप्पा का मंदिर उनका अपना घर है। उस घर की मर्यादा है । न्यायालय में अय्यप्पा का केस वह साम्यवादी सरकार लड रही थी जिसकी उनमें आस्था ही नहीं है। ऐसा वकील भला अय्यप्पा के केस के साथ न्याय कैसे कर सकता है ?
अति शातिराना तरीक़े से कुछ शातिर इसे बाबा साहिब आम्बेडकर द्वारा शुरु किए गए मंदिर प्रवेश आन्दोलन से जोड़ने का षडयन्त्रनुमा प्रयास कर रहे हैं । दक्षिण की कुछ अंग्रेज़ी भाषा की अख़बारों ऐसा अभियान छेड़े हुए हैं ।  आम्बेडकर मंदिरों की मर्यादा से छेड़छाड़ नहीं कर रहे थे बल्कि मंदिर में जाकर पूजा के अधिकार की माँग इस आधार पर कर रहे थे , जिसे केवल जाति के आधार पर रोके रखा गया था । वह परम्परा नहीं थी बल्कि कुछ सवर्णों की ज़िद थी । लेकिन अय्यप्पा के मंदिर में किसी को जाति के आधार पर नहीं रोका जा रहा । वहां किसी भी जाति का व्यक्ति जा सकता है । न ही किसी को महिला होने के कारण मंदिर में जाने से रोका जा रहा है । मंदिर में महिलाएँ जाती हैं । वहां प्रतिबन्ध आयु विशेष के कारण है , जिसे लोगों ने स्वेच्छा से स्वीकार किया हुआ है । जिन्हें भगवान अय्यप्पा में विश्वास है , उनमें आस्था है , वे इस प्रतिबन्ध को समाप्त करने  की बात नहीं कर रहे बल्कि वे लोग कर रहे हैं जो अय्यप्पा के भक्त नहीं बल्कि एक्टिविस्ट हैं । मंदिर पर भक्तों का अधिकार है या एक्टिविस्ट का ? और ये सारे एक्टिविस्ट बहुसंख्यक समुदाय के मंदिरों की ओर ही तोपें क्यों ताने रहते हैं ? क्या इस देश में बहुसंख्यकों  को भी अपनी आस्था के अनुसार आचरण करने का अधिकार है ? परोक्ष रूप से स्मृति ईरानी ने यह प्रश्न बहुत ही साहस से उठाया है । उनके साहस को सलाम ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress