राजनीति

संघ, संघ परिवार और भाजपा के मूल में ही दलितोन्मुखी विचारधारा का प्रतिक्रियावादी विरोध

अजीब विडम्बना है …. आजादी के लगभग सात दशकों के बाद भी, सामाजिक कुरीतियों और विषमताओं के उन्मूलन के अनेकों अभियानों के पश्चात भी, कड़े क़ानूनों की मौजूदगी के बावजूद भी देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ बदस्तूर जारी हैं l विकासोन्मुखी समाज के तमाम उपरनिष्ठ दावों के बावजूद अगर २१वीं सदी में भी ऐसा हो रहा है तो ये इस बात का परिचायक है कि हमारी व्यवस्था में अवश्य ही कोई गंभीर गड़बड़ी है जिसे प्राथमिकता के साथ दुरुस्त करने की जरूरत है l कानूनी दस्तावेजों एवं संवैधानिक प्रावधानों में इसे रोकने के तमाम उपाय तो हैं लेकिन दलित उत्पीड़न के मामलों में हो रही निरंतर बढ़ोतरी से सहज ही इनकी सार्थकता और प्रभाव पर प्रश्न उठता है l वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो आज जिनके पास दलित व पिछड़ों के हितों व सम्मान को संरक्षित रखने का संवैधानिक अधिकार निहित है वही दलित विरोधी मानसिकता से ग्रसित हैं l इसके परिणामस्वरूप दलित उत्पीड़न की तमाम वारदातें थोड़े दिनों की चर्चा और मीडिया के सुर्खियों में बने रहने के पश्चात दब- दबा दी जाती हैं और दोषी कड़ी कारवाई के शिकंजे से खुद को बचा ले जाते हैं l

दलित उत्पीड़न का एक लंबा इतिहास रहा है और पूंजीवादी व सामंती सामाजिक व्यवस्था व मानसिकता ने सदैव इसका पोषण ही किया है l दलित उत्पीड़न एक सामाजिक समस्या है लेकिन अफसोस की बात तो ये है कि दशकों क्या सदियों से हमारे देश में दलित और उनके उत्पीड़न को सिर्फ राजनीतिक मसले के रूप में ही भुनाने की कोशिशें हुई हैं l दलितों के बीच से ही निकल कर आया दलित नेतृत्व भी सिर्फ नाम का ही दलित रहा और अपने स्वहित की पूर्ति के लिए ऐसे नेतृत्वकर्ताओं ने दलितों का सामाजिक व राजनैतिक उत्पीड़न ही किया l आज हिंदुस्तान की राजनीति में ऐसा कोई भी दलित नेता नहीं है जो सामंती मानसिकता से ग्रसित नहीं है या जिसका आचरण राजसी नहीं और दलित उत्थान की बात करने वाला ऐसा एक भी सामाजिक कार्यकर्ता नहीं है जो सच्चे हृदय व सच्ची मंशा से दलितों का उत्थान चाहता हो l पिछले पाँच दशक पर ही अगर गौर फरमाया जाए तो ये देखने को मिलता है कि दलितों को मुख्यधारा से जोड़ने व उनकी आवाज को मंच देने का काम गैरदलित राजनेताओं एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ही किया है l नब्बे के दशक का बिहार इसका सबसे उम्दा उदाहरण है , जब तमाम सामंती विचारधाराओं और शक्तियों के विरोध के बावजूद दलितों को मुख्यधारा से जोड़ने की सार्थक पहल को अमलीजामा पहनाया गया l

 

पूर्व की अति – चर्चा से परहेज करते हुए वर्तमान परिपेक्ष्य के संदर्भ  में ही बात की जाए तो आज देश की कमान सामंती व रूढ़ीवादी ब्राह्मणवादी विचारधारा के पोषकों , गोलवलकर के सामाजिक विखंडन को उत्प्रेरित करने वाली विचारधारा  के अनुयायीयों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक मुखौटे भारतीय जनता पार्टी के हाथों में है l संघ , संघ परिवार और भाजपा की उत्पति के मूल में ही दलितोन्मुखी विचारधारा एवं पिछड़ों के उत्थान के प्रयासों का प्रतिक्रियावादी विरोध है l आजादी के बाद संघ के द्वारा हिन्दु कोड बिल में संशोधन का विरोध और भारतीय जनता पार्टी के द्वारा मण्डल कमीशन के सुझावों को लागू किए जाने के विराध से सरलता से ये सत्यापित भी होता है l

sanghजब –जब और जहाँ-जहाँ (केंद्र में या राज्यों में ) भाजपा सत्ता में आई है दलितों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों के उत्पीड़न के मामलों में उतरोत्तर वृद्धि हुई हैf साथ ही में अनेकों ऐसे मामले सामने आए हैं जहाँ दलितों और आदिवासियों को अल्पसंख्यकों ( मुसलमानों व इसाइयों ) के खिलाफ उकसाया गया है l अपने विचारों व अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का सबसे अहम पहलू है लेकिन जब भी भाजपा के शासनकाल में दलितो – पिछड़ों ने अपने इस अधिकार का प्रयोग करना चाहा है सामंती दमनकारी विचारधारा की हिमायती भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने शोषण ,उत्पीड़न और दमन का सहारा ही लिया है l हैदरावाद विश्वविद्यालय के शोधार्थी छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या की हालिया घटना  भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ , भारतीय जनता पार्टी और इन दोनों की ही इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की दलितों के प्रति क्या भावना है इसे ही उजागर करती है l ऐसा पहली बार हुआ है कि केन्द्रीय मंत्री छात्र राजनीति में शामिल हो कर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर गए जिससे एक छात्र आत्महत्या करने को मजबूर हो गया l जब केन्द्र के मंत्री ही ऐसा करेंगे तो समाज के सबसे नीचले पायदान पर खड़े समूह के जान-माल व अस्मिता की रक्षा कौन करेगा l

विगत एक दो वर्षों की चंद घटनाओं पर नजर डाली जाए जो भाजपा के दलित विरोधी चेहरे को उजागर करती हैं ….. विगत वर्ष २०१५ के जून महीने में भाजपा नीत मध्यप्रदेश में एक दलित युवक की बारात पर भाजपा समर्थकों का पथराव व हमला ,मसला महज इतना था कि दलित युवक ने घोड़ी चढ़ बारात ले जाने की हिमाकत की थी ,भाजपा नीत महाराष्ट्र के शिरडी में भाजपा समर्थकों के द्वारा एक दलित पुरुष  को जिंदा जलाए जाने की घटना , मसला महज इतना था कि वो युवक  अपने मोबाइल फोन पर अंबेडकर साहब का प्रशस्ति गान सुन रहा था  , पिछले ही वर्ष पंजाब , जहाँ भाजपा सरकार में साथ है, में दो दलित युवकों की टाँगे काट ली गईं और इस दुखद घटना के विरोध में आयोजित प्रदर्शन पर दमनात्मक कारवाई की गई l इन घटनाओं में ठोस कारवाई तो दूर की बात है किसी भाजपाई ने इन वीभत्स घटनाओं की कड़ी निंदा करने की जहमत तक नहीं उठाई l ज्ञातव्य ही है कि केंद्र के मंत्री वी.के. सिंह के द्वारा सुनपेड (फरीदाबाद) में दो दलित बच्चों के जिन्दा जलाये जाने की घटना में बच्चों को कुत्ते की संज्ञा दी गई थी। हरियाणा में ही भाजपा के एक मंत्री के द्वारा एक आधिकारिक मीटिंग के दौरान एक दलित आईपीएस महिला अधिकारी  को सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया गया , क्या ये दलित विरोधी  मानसिकता का परिचायक नहीं है ? आज भाजपा शासित प्रदेश हरियाणा में सबसे ज्यादा दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हैं और ऐसी घटनाओं पर रोक लगने की बजाए दलित उत्पीड़न की घटनाओं में निरंतर इजाफा ही हो रहा है l देश के भिन्न राज्यों विशेषकर भाजपा शासित प्रदेशों में ये आम धारणा कायम हो चुकी है जब से बीजेपी की सरकार सत्ता में आई है दलितों , पिछड़ों ,अल्पसंख्यकों और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार व उत्पीड़न की घटनाएं आम बात बन गई हैं।
दलित उत्पीड़न पर ‘जीरो टोलरेंस’ की खोखली बातें करने वाली, दलित उत्पीड़न को सिर्फ चुनावी – विगुल के रूप में इस्तेमाल करने वाली भारतीय जनता पार्टी  की नीतियां और नियत हमेशा से दलित विरोधी ही रही हैं। संघ के विचारक गोलवरकर की किताब ‘बंच ऑफ ठौथ्स’ में जिस प्रकार से वर्ण-व्यवस्था की कुरीतियों को उचित ठहराया गया है , जिस प्रकार से भारत के संविधान और इसके निर्माताओं का माखौल उड़ाया गया है , ज्ञातव्य है कि भारत के संविधान की पहचान एक दलित बाबा साहेब अंबेडकर से जुड़ी है , उससे ये साबित होता है कि संघ और भाजपा की विचारधारा ही संक्रमित व प्रदूषित है और इनके एजेंडे में समतामूलक समाज की अवधारणा का कोई समावेश नहीं है l हालिया आर्थिक – सामाजिक सर्वेक्षणों से भी पता चलता है कि भाजपा शासित प्रदेशों मे दलितों की स्थिति में बेहतरी की बजाए निरन्तर ह्रास ही हो रहा है और केन्द्र की भाजपा नीत सरकार का रवैया भी इस ओर उदासीन ही है l संघ और भाजपा के लिए सांप्रदायिकता का जहर उगलने वाले कथित साधुओं , साध्वियों और विखंडन की बात करने वाले नेताओं की अहमियत तो है लेकिन दलित व पिछड़ों के उत्थान के अग्रदूतों बाबा साहब अंबेडकर , श्रीनारायण गुरु, ज्योतिर्बा फुले, पेरियार  जैसी विभूतियाँ के प्रयासों का पालन व अनुसरण  करना सिर्फ और सिर्फ चुनावी नारों तक ही सीमित है l एक समय भाजपा के शीर्ष नेताओं में शुमार संघ के ही विचारक और सोशल – इंजीनियरिंग के हिमायती दलित नेता गोविंदाचार्य को हाशिए पर धकेले जाने के पीछे भी तो भाजपा और संघ की दलित विरोधी मानसिकता ही काम कर रही थी l