बुन्देलखण्डियों के नाम एक पत्र !

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bundelkhandमेरे प्रिय, मातृभूमिजन,

आज मैं ये पत्र किसी सरकार की नाकामियों, प्रशासन के नकारेपन पर तंज कसने या फिर नाकामियों की पोथी बांचने के लिए नहीं लिख रही हूँ, मैं ये पाती लिख रही हूँ उन किसानों के लिए, उन ग्रामीणों के लिए जो सरकार के सामने झोली फैलाए सहायता मांगते हैं, आशा की टकटकी लगाए देखते रहते हैं । अखबारों में टीवी पर अपनी बेबशी की तस्वीरें इस उम्मीद में खिंचवाते हैं कि शायद हमारी बात सिंहासन पर पहुँच जाए, लेकिन दुर्भाग्यवश आपकी दुर्दशा की सहायता केवल कागज के पन्नों में या फिर वायदों तक ही सिमट कर रह जाती है । इसलिए आपको स्वयं ही जागना होगा, अपने लिए रास्ते खुद बनाने होंगे क्योंकि तस्वीरों में छपा गांवों दर्द सभी को आकर्षित करता है, संभवतः कुछ लोगों की आँखें भी छलछला जाती हों लेकिन पन्ना पलटा या फिर माउस का एक क्लिक, और सभी संवेदनाएं उस पलटे पन्ने की कहानी मात्र बनकर रह जाती हैं। इतना ही नहीं एक पूरी बिरादरी आपके दर्द और संवेदनाओं की रोटी खा रही है, आपके सूखे खेतों का दर्द लिखते लिखते कई बार इनकी आंखों में बारिश होने लगती है लेकिन संभवतः इनके चूल्हों की आग भी इतनी तेज नहीं धधकती कि गरीबी की भूख मिटा सकें ।

झांसी से लगभग एक सौ पैंतीस किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले की सरीला तहसील का एक छोटा से गांव है ‘उमरिया’ आबादी लगभग 2909, साक्षरता लगभग 59 प्रतिशत जिसमें करीब 77 प्रतिशत पुरुष और 44 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं , कुछ खास नहीं है इस गांव में, यहां भी पूरे बुन्देलखण्ड की ही तरह किसान सूखे से मर रहे हैं, बसंत में खेत सूखे पड़े हैं । कुछ भी खास नहीं, यहां भी घरों पर छत और चूल्हों में आग नहीं है ।

इस गांव के लगभग एक दर्जन बच्चे इन्जीनियर और डॉक्टर हैं, इससे अधिक इन्जीनीयरिंग पढ़ रहे हैं, कुछ तो आईआईटी जैसे संस्थानों में भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और कर चुके हैं । कुछेक परिवारों के सदस्य प्रशासन में ऊंचे पदों पर बैठे हैं लेकिन गाँव बदहाली के नित नए प्रमाण लिख रहा है। गांव मदिरालय और जुआघर बनता जा रहा है और कदाचित ये एक उमरिया गांव नहीं हरेक गांव ऐसे लोगों की जन्मभूमि है   लेकिन कोई इनकी तरफ देखने भी नहीं आता सभी अपने जीवन को सुन्दर बनाने में लगे हैं, जो सोचते हैं वो बस सोचते ही रह जाते हैं । मेरा इन्ही लोगों से प्रश्न है कि क्या आपका आपकी मातृभूमि की तरफ कोई कर्त्तव्य नहीं, क्या आपके मस्तिष्कों में इतनी शक्ति नहीं कि अपने जीवन के साथ अपनी धरती को भी उन्नति की राह पर अग्रसर करें । मैं जानती हूँ बेशक मस्तिष्कों में ताकत है लेकिन इच्छाशक्ति नहीं क्योंकि इन्ही मे से न जाने कितने सफल लोग कभी अपनी धरती की तरफ पलट कर भी नहीं देखते फिर भी माफ कीजिए आपने भले ही अपनी जन्मभूमि पीछे छोड़ दी हो लेकिन अपकी मातृभूमि आपको कभी नहीं छोड़ती, आपकी जन्मभूमि के स्थान पर आपके गांव का नाम ही लिखा जाता है, क्योंकि जन्मस्थान बदलने पर तो आसमान में टंगे ग्रह भी आपके जीवन का उचित भविष्यवाचन नही कर सकते । विचार कीजिए इत चम्बल उत बेतवा, इत यमुना उत टौंस । बुन्देलन सें लड़न की रही न काहू हौंस ।। बुन्देलखण्ड का परिचय इस कवित्त से, आल्हा ऊदल से, रानी लक्ष्मीबाई से आरम्भ हुआ करता था किन्तु आज ये परिचय अजब अन्दाज से बुन्देलियों के दिन गुजरते हैं । कभी सैलाब आता है कभी सूखे से मरते हैं ।। जैसे छन्दों से होता है । जरा सोचिए ये वही बुन्देलखण्ड है जिसकी वीरता और अभिमान से इतिहास आज भी सीना तानकर खड़ा हो जाता है । छत्रसाल आल्हा, ऊदल, रानी लक्ष्मबाई जैसे शूरवीर हर परिस्थति से जीतने का हुनर सीखाने वाले उदाहरण बनकर आपके समक्ष खड़े हैं , किन्तु फिर भी भूख गरीबी, सूख पिछड़ेपन जैसे विशेषण बुन्देलखण्ड की पहचान बन गए हैं आज दयनीयता का भाव लेकर आपका परिचय कराया जाता है । मैं बुन्देलखण्डी हूँ इसलिए इस खण्ड के लोगों के इस गुण को भलीभांति जानती हूँ कि यहां के लोग किसी अन्य के समक्ष स्वयं को छोटा साबित नहीं होने देते, लेकिन जब अखबारों में आपकी हाथ जोड़े तस्वीरें देखती हूँ तो अपनी सोच पर भ्रमित अवश्य हो जाती हूँ, झुकना तो कभी आपकी परम्परा न थी ।

हमारे बुन्देलखण्ड में कहावतों से बच्चों को डपटने की परम्परा रही है, अक्सर अम्मा जब गुस्साया करती हैं तो कहती हैं , कर बहियां आपनी छोड़ पराई आस, संभवतः सभी को याद होगा, लेकिन वही बुन्देलखण्डी क्यों अपने हाथों को कटा हुआ मान रहे हैं, मैं उसी कहावत की भाषा में कहँूगी कि भैया अपने मरें बिना सरग नईं मिलत ! अपने कुओं को अपने तालाबों को नया जीवन दीजिए, जलसंचयन करिये, तकनीकी सीखीए, और अपने आपको स्वयं मजबूत कीजिए क्योंकि आप कितने भी हाथ जोड़े या पैरों पर गिरें आपकी मदद आपको स्वयं करनी होगी , और जिस दिन आप अपनी सहायता स्वयं करने लगेंगे उसी दिन सरकार प्रशासन सभी आपके पीछे खड़े होंगे ।

 

स्मरण रहे इतिहास सब कुछ गढ़ रहा है, हम आप अपने जिस इतिहास को बताकर, गाकर अपना माथा चमकाते चलते हैं वही इतिहास हमारे बुन्देलखण्ड को दयनीयता की परिभाषा में गढ़ता जा रहा है । अपनी बदहाली के कारण स्वयं तलाशिए, अपने गौरव और सम्पन्नता के लिए रास्ते का निर्माण भी आपको ही करना है, इसलिए जाति धर्म के अवे से उठकर अपने चूल्हों को आग और घरों को छत आपको स्वयं देनी होगी ।

3 COMMENTS

  1. आजादी के बाद बुंदेलखंड उपेक्षित रहा है इसका एक मात्र हल है। बुंदेलखंड राज्य भूमि पुत्रों का राज्य बाहरी लुटेरो से बुंदेलखंड के संसाधनों की रक्षा करना। यही एक मात्र हल है।

  2. जागो, उठो और तलाश करो अपनी ज़मीं को – अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा – किसी और के भरोसे काम नहीं होगा

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