दक्षिण भारत के संत (10) सन्त नम्मालवार (शठकोप)

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-बीएन गोयल-

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रक्ताभ कान्ति युक्त अरुणिम मरकत उपगिरि के समान

रक्तिम मेघाम्बर तेजपुंज सूर्य शीतल श्वेत चन्द्र

और नक्षत्रों को धारण किए समुद्र तरंगों पर विश्रांत,

हे प्रबुद्ध अप्रतिम सर्वोच्च प्रभु ।

 

ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध आलवार संत नम्मालवार की कृति तिरुवाशिरीयम से हैं। इन पंक्तियों में आदिशेष की शय्या पर शयन करने वाले भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन है। सत्य एक ही है लेकिन सन्त नम्मालवार के अनुसार उस के दो पक्ष हैं – सर्वव्यापकता और असीमितता। एक साधारण व्यक्ति सत्य को तीन रूपों में देखता है – मानव, जगत और ब्रह्म। मानव और जगत तो भौतिक रूप में आप के सामने मौजूद हैं लेकिन ब्रह्म इन दोनों के अंदर है और ये दोनों इस ब्रह्म में समाये हैं। सन्त नम्मालवार एक तत्व ज्ञानी और रहस्यवाद के दार्शनिक थे। वे सदैव  प्रभु की खोज में लीन रहते थे। उन के जन्म – मृत्यु तिथि के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। यह माना जाता  है कि इन का जन्म केरल प्रदेश के तिरुनेलवेली ज़िले के तिरुक्कुरुहुर नामक स्थान पर हुआ था। कहते हैं कि कलयुग के 43 वे वर्ष पुर्णिमा तिथि शुक्रवार का दिन था। इन के पूर्वज सभी भगवान विष्णु के उपासक थे।

इन के पिता का नाम करीमारण और माता का नाम उदेय्या था। इस दंपति के पास काफी समय तक कोई बच्चा नहीं हुआ। इस के लिए इन्होने काफी पूजा पाठ, व्रत उपवास आदि भी किए।

 

एक बार जब ये दोनों पति पत्नी तिरुवंपरिसरण से लौट रहे थे । रास्ते में तिरुक्कुरुंगुड़ी गाँव के वैष्णव मंदिर में कुछ समय के लिए रुके ।मंदिर में दंपति ने पूजा पाठ किया और ईश्वर से संतान प्राप्ति के लिए विशेष प्रार्थना की। ईश्वर ने इन की प्रार्थना सुन ली और समय पर इन के घर में एक बालक ने जन्म लिया। बच्चे का नाम रखा गया मारन अथवा नम्मालवार। यह बालक भी विचित्र था – जन्म के समय न तो यह रोया, न ही इस ने माँ का दुग्ध पान किया और न ही इस ने आँखें खोली। ऐसी धारणा है कि इस के जन्म के समय स्वयं भगवान विष्णु और श्री लक्ष्मी जी वैंकुंठ धाम से नवजात शिशु को आशीर्वाद देने आए थे। जन्म के बारहवें दिन माता पिता बच्चे को भगवद दर्शन कराने के लिए नदी किनारे के मंदिर में लेकर गए। उन्होने पास के इमली के वृक्ष पर एक पालना बना कर बच्चे को उस में लिटा दिया। कहते हैं कि बालक अपने प्रारम्भिक जीवन के 16 वर्षों तक बिना अन्न जल ग्रहण किए उसी इमली के वृक्ष के नीचे बैठे रहे।

अपने जीवन के सोलह वर्षों तक, आँखें बंद किए, अन्न का एक दाना अथवा जल की एक बूंद ग्रहण किए बिना, तिरुक्कुरुहूर गाँव के भगवान आदिनाथ मंदिर के समीप, इमली के वृक्ष के नीचे बैठे रहना एक करिश्मा ही था। लोगों ने इमली के पेड़ को शेषनाग का अवतार माना और मारन को भगवान विष्णु का। कहते हैं जब मधुर कवि इन के पास पहुंचे तभी इन्होने आँखें खोली और मधुर कवि के प्रश्नों के उत्तर दिये । ये मधुर कवि बाद में इन के भक्त और शिष्य बन गए।

इन के बारे में एक किंवदंती यह भी है कि जन्म के समय इस बालक कि विचित्र कार्य कलापों को देख कर इन के माता पिता ने इन्हें मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने छोड़ दिया । नन्हा बालक, कहते हैं, स्वयं चलकर इमली के वृक्ष के पास गया। वृक्ष के तने में एक बड़ा कोटर था। नन्हा बालक उस में घुस कर पद्मासन लगाकर बैठ गया, आँखें बंद की और समाधि में चला गया।

मधुर कवि से जुड़ी अनेक कथाएँ हैं। एक कथा है कि मधुर कवि चोला प्रदेश के तिरुक्कुरुहुर गाँव के ब्राह्मण परिवार से थे। इन्हें वेदों,शास्त्रों और पुराणों का अच्छा ज्ञान था। एक बार ये उत्तर भारत के तीर्थाटन पर निकले। एक रात्रि में इन्हें सूदूर दक्षिण की ओर से एक बहुत ही विचित्र और अत्यधिक प्रभासित प्रकाश दिखाई दिया। प्रकाश की तीव्रता उगते हुए सूर्य की आभा से भी अधिक थी। यह प्रकाश मधुर कवि को निरंतर तीन चार रात्रि में दिखाई देता रहा। अंततः इन्हें लगा कि दूर दक्षिण में कहीं कुछ अनहोनी घटना घटी है। मधुर कवि इस प्रकाश कि दिशा में चल पड़े। काफी दिनों की यात्रा के बाद ये तांबपर्णी  नदी किनारे स्थित तिरुक्कुरुहुर गाँव तक पहुँच गए। वहाँ पहुँचते ही अचानक वह प्रकाश गायब हो गया। मधुर कवि परेशान हो गए – आखिर वह प्रकाश कहाँ गया । इन्होंने गाँव वालों से पूछा कि उन के गाँव में कोई अनहोनी घटना हुयी है। गाँववासियों ने बताया कि “हमारे गाँव में एक विचित्र बालक है जो सोलह वर्षों से आँखें बंद किए, बिना अन्न जल ग्रहण किए इमली के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन है। इस से अधिक विचित्र बात और क्या हो सकती है।“ मधुर कवि ने नदी किनारे जाकर मारन को देखा। उन्हें आश्चर्य हुआ – और संशय भी कि इस बालक में चेतना भी है या नहीं। उन्होने एक बड़ा पत्थर उठाया

और उसे मारन के पास पड़े एक दूसरे पत्थर पर फेंक कर मारा। मारन ने अचानक अपनी आँखें खोली और मधुर कवि को देखा ।

मधुर कवि ने मारन से दर्शन संबंधी अनेक प्रश्न पूछे। एक प्रश्न था – ‘यदि मृत शरीर से किसी जीव का जन्म हो तो वह क्या खाएगा और कहाँ सोयेगा?’ – अर्थात “यदि किसी अचेतन पदार्थ अथवा जीव से किसी जीव अ थवा आत्मा की उत्पत्ति हो तो वह जीवित कैसे रहेगी ? उसे कौन खिलाएगा और वह कहाँ विश्राम कर सकेगी?”

मारन ने उत्तर दिया, “जन्मदायिनी वस्तु ही उस का प्रबंध करेगी अर्थात सूक्ष्म आत्मा प्रकृति के वशीभूत होकर रहेगी। प्रकृति ही उस कि क्षुधा शांत करेगी। प्रकृति का जीव के साथ यही सर्वाधिक तादात्मय होगा। जीव की अनुभूति उसी के अनुसार आनंद अथवा कष्ट दायक होगी अथवा इस प्रकार उस का ईश्वर के साथ एकाकार हो जाएगा।“

मधुर कवि इस उत्तर से हतप्रभ थे । उन्होने उसी समय मारन को अपना गुरु मान लिया और गुरु चरणों में रहने का निश्चय कर लिया। गुरु के मुखारविंद से निकले ईश भजन उनके लिए अमृत वर्षा के समान थे । मधुर कवि ने इन भजनों को लिपिबद्ध करना शुरू कर दिया। तिरुविरुत्तम, तिरुवाशिरियम, पेरिम तिरुवनतादि और

तिरुवायमोली ऐसी ही रचनाएँ हैं। इन सब का प्रकाशन मारन कि मृत्यु के बाद ही हुआ । मधुर कवि के शिष्यत्व ग्रहण करने के बाद ही मारन का नाम नम्मलवार हुआ।  तिरुविरुत्तम, तिरुवाशिरियम, पेरिम तिरुवनतादि और

तिरुवायमोली चारों ही अत्यंत प्रसिद्ध रचनाएँ हैं – इन चारों में तिरु शब्द का प्रयोग किया गया है – तिरु का अर्थ है – शुभ, दैवीय अथवा कल्याणकारी।  तिरुविरुत्तम में नम्मालवार ने प्रभु के सम्मुख उन के प्रेम में स्वयं के लिप्त होने की विशिष्ट घटना की चर्चा की है । कविता के प्रथम पद में वे कहते हैंः

 

हे अमरों के अधिपति,

मिथ्याज्ञन, पापाचरण, मलिन देह, और जन्म मरण के बंधन से

हमें जीवों को मुक्त करने वालेऔर हमारी रक्षा के निमित्त

धरती पर नाना रूपों में अवतरित होने वाले

हे प्रभु, अपने इस दास की सच्ची विनती पर अवश्य ध्यान दीजिये ।

 

तिरुवाशिरियम एक 71 पंक्तियों की कविता है। इस में प्रभु के विभिन्न रूपों का वर्णन है। आरंभिक 15 पंक्तियों में भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन है। अगली 9 पंक्तियों में प्रभु से मिलने कई अदम्य इच्छा व्यक्त की गई है। शिव स्तुति में वे कहते हैं –

 

शीतल चन्द्र को जटाओं में धारण करने वाले शिव,

चतुर्मुख ब्रह्मा , देवों के अधिपति, प्रतान के समान तेजस्वी इंद्र,

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ज्वलंत सूर्य और चन्द्रमा सहित आकाश,

समस्त लोक, सारे प्राणी और सभी कुछ प्रभु में समा गए ।

सब को अपने भीतर छिपाकर,

वट पत्र पर शयन करने वाले, उन चिरमय रहस्यों को छोडकर

क्या हम किसी अन्य की शरण में जाएंगे ।

 

पेरिम तिरुवनतादि में 87 पद हैं । इस का विषय है प्रभु प्रेम और प्रेम मार्ग की सफलताएँ और असफलताएँ। प्रभु तक पहुँचने का प्रयत्न करते हुए अपनी स्प्रहा देख नम्मालवार स्वयं चकित हैं।

 

 

प्रभु की वंदना करने वाले

(तेंतीस कोटी) देवताओं, आठ वसुओं, ग्यारह रुद्रों

और बारह सूर्यों के सम्मुख हमारी क्या गिनती ।

प्रभु तक पहुँचने का विचार ही पाप है।

हे मन क्या तू जानता है कि यह हमारी स्प्रहा कि पराकाष्ठा है ।

 

तिरुवायमोली एक महत्वपूर्ण रचना है । इस में इन का मूल लक्ष्य है मानव जगत का ध्यान सांसकारिता से हटाकर परम सत्य की ओर मोड़ना है।

 

ओह यह संसार कितना विचित्र है

यहाँ व्यक्ति नाना कष्ट झेलता है  अचानक मृत्यु के मुख में समा जाता है

मोह भग्न,उस के बंधू बांधव एकत्र हो विलाप करते हैं

सचमुच यह संसार बड़ा विचित्र है।

 

वे सदैव दैवीय चेतना के वशीभूत थे। उन्हें पूरा जगत ‘सर्वं विष्णुमयम जगत’ दिखाई देता था। वे कहीं भी किसी भी वृक्ष, स्तम्भ, अथवा गाय आदि से लिपट जाते और कहते ‘यही मेरे भगवान हैं’। आकाश की ओर हाथ उठा कर कहेंगे ‘वह देखो वह श्याम वर्ण वह मेरा कृष्ण है’।  भजन गाते गाते उन की अश्रुधारा आ जाएगी, वे नृत्य करेंगे, गाएँगे और आनंद की चरम सीमा पर पहुँच जाएंगे । मिट्टी को देख कर कहेंगे ‘यह मेरे भगवान वामन की चरण राज है।‘ अग्नि को देखकर कहेंगे ‘ अच्युत अच्युत’। पर्वत देख कर कहते ‘ भगवान आप महान हैं’ ठंडी हवा चलती तो कहते ‘ हे प्रभु हे प्रभु’ । वर्षा कि फुहार देख कर कहते ‘साक्षात भगवान विष्णु आ गए’ । कहीं बांसुरी बजने का स्वर सुनाई देता तो झूम कर कहते’ भगवान कृष्ण यहीं कहीं हैं ।

 

सत्यान्वेषी, जन्मजात सिद्धि प्राप्त जीवात्मा, प्रभु के अंशावतार नम्मालवार मात्र 35 वर्ष की आयु में ही महाप्रयाण कर गए। वे एक उत्कृष्ट भक्त कवि थे। उन का सम्पूर्ण जीवन ‘ध्यान’ और ‘प्रकट’ में समाहित था। उन के मुखार विंद से प्रभु भजन के पद स्वयमेव ही प्रकट होते थे। उन के भजनों का गायन सभी वैष्णव मंदिरों में होता है । आलवार तिरुनगरी के  वर्तमान मंदिर में  नम्मालवार की मूर्ति स्थापित है और वह अन्य देवों की भांति ही पूजनीय है।

मेरे दुलारे शुक, पिक, मयूर और पूर्व पक्षियों,

मेरा अब तुम से कोई नाता नहीं

मेरी शंख की चूड़ियाँ, मेरी कान्ति, और मेरा हृदय लेकर

मेरे स्वामी बैकुंठ चले गए ।

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बी एन गोयल
लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

1 COMMENT

  1. “ओह यह संसार कितना विचित्र है?
    यहाँ व्यक्ति नाना कष्ट झेलता है,
    अचानक मृत्यु के मुख में समा जाता है।
    मोह भग्न,उस के बंधू बांधव एकत्र हो विलाप करते हैं।
    सचमुच यह संसार बड़ा विचित्र है।”
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    टिप्पणी से इन पंक्तियों को मलिन करना नहीं चाहता।
    धीरे धीरे भक्ति की मोहिनी फैलाता आलेख।

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