व्यंग्य बाण : मेरा पिया घर आया…

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rahulहमारे प्रिय शर्मा जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वे कभी लेखक बन जाते हैं, तो कभी कवि। कभी गायक तो कभी वादक और संगीतकार। कभी पत्रकार तो कभी वक्ता या अधिवक्ता। सफाई से लेकर कपड़े धोने और भोजन बनाने तक में वे माहिर हैं। यद्यपि ये घरेलू काम उन्होंने विवाह के बाद मजबूरी में ही सीखे हैं। उनके मन की गहराई नापना कठिन है। आप जितना नीचे जाएं, वे उससे दो फुट आगे ही मिलेंगे; फिर भी उनके क्रियाकलाप देखकर उनके लंगोटिया यार कभी-कभी उनकी मनस्थिति का अनुमान लगा लेते हैं।

इन दिनों शर्मा जी किसी गायक के अवतार में हैं। उनसे जब भी मिलो, वे आंखें बंदकर कुछ गाते-गुनगुनाते मिलेंगे। कभी अपना लिखा बेसिर पैर का कोई कवित्त, तो कभी मोहम्मद रफी, मुकेश या किशोर कुमार का मधुर गीत। कभी बेगम अख्तर की ठुमरी या गजल, तो कभी लता मंगेशकर की लोरी। मूड में हों तो कभी-कभी वे राहुलदेव बर्मन की तरह सप्तम सुर में गाने लगते हैं; भले ही पड़ोसी उन्हें बाद में गाली दें। शर्मा मैडम को शुरू में तो इन चीजों से बहुत परेशानी हुई; पर फिर उन्होंने ‘रहना है, तो सहना है’ वाला सूत्र मानकर इन सबसे तालमेल कर लिया।

लेकिन राहुल बाबा ‘न जाने कहां’ जाने से शर्मा जी बहुत दुखी थे। पुराने राजा तो लोगों की बुद्धिमत्ता जांचने के लिए ‘‘न जाने कहां से, न जाने किसको, न जाने कितने दिन में खोज लाने’’ के आदेश दिया करते थे; पर अब न वैसे राजा रहे, न वैसे बुद्धिमान लोग। ऐसे में शर्मा जी सबको क्या बताते कि बाबा कहां गये हैं, क्यों गये हैं और कब तक आएंगे ? आएंगे भी या नहीं; अकेले आएंगे या… ? जितने कांग्रेसी सांसद लोकसभा में हैं, पार्टी ने उससे अधिक प्रवक्ता बना दिये हैं। सरकार थी, तो सबको रेवड़ियां मिल रही थीं; पर अब तो केन्द्र से लेकर राज्यों तक मैदान साफ है। ऐसे में सबको खुश करने के लिए कुछ न कुछ काम और पद तो देना ही है।

पर अधिक प्रवक्ताओं का होना भी एक मुसीबत है। एक कहता था कि बाबा आत्मचिंतन के लिए बर्मा में ‘विपश्यना’ की साधना कर रहे हैं, तो दूसरा उन्हें अध्ययन अवकाश पर गया बताता था। तीसरे के अनुसार वे दिमागी थकान मिटाने के लिए इटली में छुट्टी मना रहे हैं, तो चौथे का कहना था कि जनता को उनके निजी जीवन से क्या लेना है ? जनता ने उन्हें ठुकराया, तो उन्होंने भी जनता को ठुकरा दिया। अब जब अगला चुनाव होगा, तो देखा जाएगा। जितने मुंह, उतनी बातें। एक प्रवक्ता तो बाबा के बारे में प्रश्न सुनते ही कागज-कलम छोड़कर प्रेस वार्ता से फरार हो जाते थे।

ये तो गनीमत हुई कि पिछले दिनों केजरी ‘आपा’ के दल में हुई लठबाजी से अखबार पढ़ने और टी.वी. देखने लायक बने रहे। वरना कई दिन तक बाबा का दाढ़ी वाला चेहरा और नकली तेवर दिखाई न दें, तो बोरियत होने लगती है। आखिर दिन भर के परिश्रम के बाद रात को सच्चा हो या झूठा, कुछ मनोरंजन तो चाहिए ही।

लेकिन हम मित्र लोग फिर भी शर्मा जी को कभी-कभी घेर ही लेते हैं। मोहल्ले में रहना है, तो बचकर कहां जाएंगे ? यदि वे कई दिन तक पार्क में नहीं आते, तो हम उनके घर पहुंच जाते हैं। पिछले सप्ताह हम उनके घर गये, तो अंदर से हारमोनियम बजने की आवाज आ रही थी। उसके साथ एक मध्यम और करुण स्वर शर्मा जी का भी था। वे गा रहे थे – तू छिपा  है कहां, मैं तड़पता यहां…।

शर्मा जी के स्वर में छिपे दर्द को सुनकर हम ठगे से रह गये। वे गाते हैं, यह तो हमें पता था; पर आज तो मानो वे मन्ना डे को भी मात कर रहे थे। मन्ना डे जीवित होते, तो वे उन्हें पकड़कर मुंबई ले जाते और स्वयं फिल्मी गायन से अवकाश ले लेते। हम कुछ देर बाहर ही खड़े रहे। यह कहना कठिन था कि वे गा रहे हैं या रो रहे हैं ? जो भी हो; पर हमने अंदर जाकर उनकी संगीत साधना में व्यवधान डालना ठीक नहीं समझा और वहीं से वापस लौट गये।

पर अगले दिन वे फिर पार्क में नहीं आये। न तो सुबह और न ही शाम। अतः हमें मजबूर होकर फिर उनके घर का रास्ता नापना पड़ा। आज भी गाने और बजाने का क्रम जारी था; पर आज वे हारमोनियम की जगह कीर्तन वाले खड़ताल बजा रहे थे। खड़ताल की आवाज काफी दूर से ही आ रही थी। थोड़ा और पास जाने पर उनका स्वर भी सुनायी दिया। आज वे एक फिल्मी भजन गा रहे थे

– बड़ी देर भई नंदलाला, तेरी राह तक बृजबाला।
 ग्वाल बाल इक-इक से पूछे, कहां है मुरली वाला रे..।।

हम अंदर गये, तो देखा, कई रूमाल आंसुओं से भीगे पड़े थे। हमने उन्हें धोकर धूप में डाल दिया। शर्मा जी की दाढ़ी बढ़ी हुई थी। शायद कई दिन से वे नहाये भी नहीं थे। हमने भी कुछ देर भजन गाकर गला साफ किया। इससे उनका दुख कुछ कम हुआ और उन्होंने हमें चाय पिलाकर विदा किया।

इसके बाद हम कई बार उनके घर के सामने से गुजरे। कभी ‘‘आ लौट के आ जा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’’ के स्वर गूंजते मिले, तो कभी ‘‘दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अंखियां प्यासी रे…’’ और ‘‘सारंगा तेरी याद में, नैन हुए बेचैन; मधुर तुम्हारे मिलन बिना, दिन कटते नहीं रैन….’’ के।

आखिरकार शर्मा जी की साधना रंग लायी और राहुल बाबा दो महीने बाद प्रकट हो गये। पहले जैसा ही चेहरा, चुप्पी और सामने आने में हिचकिचाहट। हमने सोचा कि चलो, शर्मा जी को बधाई दे दें, जिससे वे फिर से पार्क में आने लगें।

हम उनके घर पहुंचे, तो उनकी उदासी छंट चुकी थी। आंखें बंद थीं और वे तन्मय होकर गा रहे थे –

बहुत देर से दर पे आंखें लगी थीं 
हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी।।

गीत बंद होने पर हमने राहुल बाबा के आने पर प्रसन्नता व्यक्त की। शर्मा जी ने हमें मिठाई खिलाई। उनके लिए आज मानो होली भी थी और दीवाली भी; पर शाम को वे फिर पार्क में नहीं आये। पता लगा कि वे पूरे मोहल्ले में घूम-घूमकर ढोलक बजाते हुए बधाई गा रहे थे – मेरा पिया घर आया, हो राम जी..।

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