कहो कौन्तेय-२४ (महाभारत पर आधारित अपन्यास)

(सुभद्रा के साथ अर्जुन का इन्द्रप्रस्थ में पुनरागमन)

विपिन किशोर सिन्हा

बलराम हतप्रभ रह गए। वे इस प्रस्ताव के लिए प्रस्तुत न थे। राजक्रोध पर नियंत्रण नहीं करते तो सुभद्रा के साथ कृष्ण से भी हाथ धोना पड़ता। शीघ्र ही निर्णय लिया गया – सुभद्रा सहित मुझे द्वारिका ससम्मान लौटा लिवाने का। योजनानुसार मैं रथ धीरे-धीरे हांक रहा था। श्रीकृष्ण के विश्वस्त दूत पास आए – श्रीकृष्ण का सन्देश सुनाया। हम द्वारिका में लौट आए। वहां सुभद्रा के साथ मेरा विवाह-संस्कार विधिपूर्वक संपन्न हुआ। मैं पूरा एक वर्ष द्वारिका में ही रहा – शेष समय पुष्कर में व्यतीत किया। बारह वर्ष की अवधि समाप्त हो चुकी थी। मैं सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट आया।

इन्द्रप्रस्थ में नवजीवन का पुनरागमन हो रहा था। सुभद्रा का स्वागत अत्यन्त भव्यता और व्यवस्था से इन्द्रप्रस्थ ने किया। द्रौपदी के आगमन के समय राजपरिवार की प्रसन्नता कृत्रिम थी, इस समय हम सभी भ्राता और माता हर्षातिरेक में डूब गए थे। द्रौपदी ने अवश्य एक प्रेमभरा उलाहना दिया। मैंने श्रीकृष्ण की भेंट के रूप में सुभद्रा को उसे अर्पित कर दिया। उदारहृदया याज्ञसेनी ने उसे आलिंगनबद्ध कर लिया। द्रौपदी ने सपत्नी को सहजभाव से स्वीकार किया। उस दिन उसमें मैंने अभिभावकत्व के गुण देखे। याज्ञसेनी की मानसिक उदारता ही तो उसे विशिष्ट बनाती थी। मैं उसका चिर ऋणी हो गया। हम पुनः सुखपूर्वक इन्द्रप्रस्थ में गार्हस्थिक जीवन-यापन करने लगे। द्रौपदी ने उसे छोटी बहन का स्थान दिया। उपयुक्त समय पर सुभद्रा से अभिमन्यु को जन्म दिया। द्रौपदी भी पांच पुत्रों की माँ बनी। महाराज युधिष्ठिर से प्रतिविंध्य, वीरवर भीम से सुतसोम, मुझसे श्रुतवर्मा, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतसेन। पुरोहित धौम्य ने बालकों के विधिपूर्वक संस्कार कराए, वेदपाठ में पारंगत किया। पश्चात मैंने सभी पुत्रों को सभी प्रकार की युद्ध-कलाओं में निपुण बनाने का उत्तरदायित्व लिया। दिवा-रात्रि पुनः पंख लगाकर उड़ने लगे।

द्वारिकापुरी की भांति, श्रीकृष्ण का पूर्ण संरक्षण इन्द्रपरस्थ को भी प्राप्त था। वे द्वारिका के राजा नहीं थे, इन्द्रप्रस्थ के राजा युधिष्ठिर ही थे, लेकिन श्रीकृष्ण हम सबके सम्राट थे – हृदय सम्राट। वे दोनों राज्यों पर समभाव रखते थे। यही कारण था कि दक्षिण-पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में इन्द्रप्रस्थ समस्त आर्यावर्त में वैभव, समृद्धि, सुख-शान्ति के कीर्तिमान बन गए। श्रीकृष्ण के कालजयी परामर्श तथा महाराज युधिष्ठिर की दूरदृष्टि और कुशल नेतृत्व में प्रजा भी लौकिक और पारलौकिक उन्नति से परिपूर्ण होने लगी। प्रजा की प्रवृत्ति आध्यात्मोन्मुखी हो गई – सर्वत्र धर्म का ही आधिपत्य था। नगरवासी, ग्रामवासी महाराज युधिष्ठिर के सिर्फ राजोचित कर्मों से ही संतुष्ट नहीं थे, वे उनके प्रति श्रद्धा और भक्तिभाव भी रखते थे। वर्षा समय पर होती थी, फसलें फल-फूल रही थीं। आपत्काल में राजकीय अन्न भंडार प्रजा के लिए खुले रहते थे। क्षत्रियों को सेना में, ब्राह्मणों को शिक्षा में आजीविका के पर्याप्त अवसर थे। प्रजा के मन को जो प्रिय लगता था, महाराज वही करते थे। यह जनता के लिए जनहित में किया जानेवाला शासन था। मृदुभाषी महाराज युधिष्ठिर के मुख से कदापि अनुचित, असत्य और अप्रिय वाणी नहीं निकलती थी। प्रजा उनको महाराज के स्थान पर धर्मराज कहकर संबोधित करने लगी थी।

श्रीकृष्ण का सान्निध्य मेरे मन में सतत आनन्द के नए-नए स्रोतों का सृजन करता था। वे जब भी इन्द्रप्रस्थ आते, लंबी अवधि तक हम लोगों के साथ रुकते, जाने का नाम नहीं लेते। द्वारिका से अनेकानेक सन्देश आने के बाद ही हम उनको विदा करते। इन्द्रप्रस्थ में हम दोनों पदार्थ और छाया की भांति साथ-साथ रहते, नित नई योजनाएं बनाते, साथ-साथ भ्रमण करते, साथ-साथ विहार करते।

ग्रीष्म ऋतु की तपन बढ़ती जा रही थी। इन दिनों आम्रकुंज में बैठ हमलोग कूकती कोयल की भाषा समझने का प्रयास करते, गुन-गुन करते भ्रमर-समूहों के संगीत का आनन्द लेते, देश-विदेश की गतिविधियों पर चर्चा करते। तीव्रगति से बहते हुए तप्त पवन को शायद यह नहीं भाता था। हमदोनों के श्यामल शरीर को स्वेदकण बार-बार नहला जाते। हमने जल-विहार का निर्णय लिया। अग्रज युधिष्ठिर की अनुमति ले हम दोनों सुहृदों, परिचरों और सेवकों के साथ यमुना तट पर गए। तट पर जाने के मेरे प्रस्ताव को श्रीकृष्ण भला क्यों नहीं मानते। मुझे ज्ञात था, यमुना का उनके जीवन में कितना महत्व था। तट पर पहुंच उन्होंने यमुना की पूजा की – आंखें बन्द कर ध्यानमग्न बैठे रहे। मुझे ऐसा लग रहा था, कन्हैया गोकुल की स्मृति में लीन हो गया। निश्चय ही राधा की स्मृति आ गई होगी। नन्द बाबा और मातु यशोदा भी दृष्टि पटल पर आ रहे होंगे। श्रीकृष्ण को कभी अतिशय भावुकता में बहते नहीं देखा था लेकिन आज उनके मुखमण्डल के चढ़ते-उतरते भाव स्पष्ट संकेत कर रहे थे – वे इन्द्रप्रस्थ के यमुना तट पर नहीं, गोकुल की यमुना के तीर पर बैठे थे। मैं उनके सम्मुख बैठा उन्हें निहार रहा था। अचानक सूर्य के समान तेजवाले एक ब्राह्मण देवता सम्मुख प्रकट हुए। उनकी वाणी ने हमारा ध्यान भंग किया। आदरपूर्वक प्रणाम करके हमने उनके आगमन का प्रयोजन पूछा।

ब्राह्मण के रूप में वे अग्नि देवता थे। उन्होंने हमें खाण्डववन के विषय में विस्तार से बताया – खाण्डववन एक विशाल भूखण्ड पर स्थित था। वह हमारे इन्द्रप्रस्थ राज्य का ही एक भाग था लेकिन आरंभ से ही था वह अधर्मियों, दस्युओं, असुरों, राक्षसों, दानवों, सर्पों और मनुष्य को कष्ट पहुंचानेवाले अन्य जीवधारियों का अभयारण्य। देवराज इन्द्र का प्रिय पात्र तक्षक नाग, पूरे परिवार के साथ वहां निवास करता था। अग्निदेव ने सात बार उस अरण्य को भस्म करने का प्रयास किया परन्तु प्रत्येक बार देवराज इन्द्र के कारण वे सफलता प्राप्त नहीं कर सके थे। तक्षक नाग को देवराज इन्द्र का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। अग्निदेव श्रीकृष्ण के चमत्कारिक कृत्यों और मेरे पराक्रम से परिचित थे। उन्होंने दुष्टों के संहार के लिए खाण्डववन-दाह की प्रार्थना की।

क्रमशः

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