कहो कौन्तेय-२६

विपिन किशोर सिन्हा

(कपटद्यूत की पृष्ठभूमि)

कार्य पूर्ण होने के पश्चात अग्निदेव पुनः ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए। देवराज इन्द्र भी देवताओं के साथ प्रकट हुए। हमारे पुरुषार्थ और पराक्रम से प्रसन्न हो, उन्होंने वर मांगने का आग्रह किया। मैंने उनके और अन्य देवताओं के दिव्य अस्त्र पाने का वर मांगा। उन्होंने उचित समय पर देने का वचन दिया। श्रीकृष्ण ने अद्‌भुत वर मांगा –

“हे देवराज! आप मुझे यह वर दीजिए कि मेरी और अर्जुन की मित्रता क्षण-क्षण बढ़ती जाय और कभी न टूटे।”

“एवमस्तु,” इन्द्र ने कहा और कुछ घड़ी पश्चात अन्तर्ध्यान हो गए।

मैंने श्रीकृष्ण को बाहुपाश में बांध लिया। स्वयं अग्निदेव और देवताओं सहित इन्द्र हम लोगों की अटूट मित्रता के साक्षी बने। मेरे लिए परम गौरव के क्षण थे वे।

प्रारंभ से ही मेरी अनुरक्ति कला और साहित्य के प्रति थी। आश्रमिक जीवन के अनन्तर राजोचित रुचियों एवं गुणों के विषय में सुना था कि जो राजा ललित एवं शिल्पकलाओं, साहित्य एवं संस्कृति से लगाव रखने वाला, गुणीजनों का आदर करने वाला तथा विविध विद्याओं का पोषक होता है, उसका राज्य उत्तरोत्तर उन्नति करता है क्योंकि संगीत और शिक्षाविहीन मनुष्य पशुवत होता है।

इन्द्र के प्रतिकार स्वरूप खाण्डववन का दहन मैंने कर दिया – यह जानते हुए कि उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी रहते थे। मैंने कभी भी अहेतुक हिंसा में विश्वास नहीं किया, किन्तु इस बार तो मैं विवश था, इन्द्र का प्रतिकार करने के लिए। खाण्डववन का दहन और मयदानव का मेरे पास शरणागत की इच्छा से आत्मसमर्पण करना, दोनों समानान्तर घटनाएं थीं। शरणागत को अभयदान देना ही क्षात्र धर्म है। खाण्डववन से प्राण-रक्षा के लिए भागते मयदानव को अग्निदेव भस्म कर देने को आतुर थे और श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र द्वारा वध को सन्नद्ध। मेरी स्मृति ने कहा, “यह मयदानव तो शिल्पकला में विश्वकर्मा के समकक्ष है, इसकी प्राणरक्षा होनी चाहिए।” मैंने उसे अभयदान दिया। श्रीकृष्ण और अग्निदेव ने मेरी भावना का सम्मान किया। मयदानव अनायास ही श्रीकृष्ण का अनुगत बन गया। उसने अप्रतिम कला के शाश्वत प्रतीक के रूप में इन्द्रप्रस्थ में देवदुर्लभ, विश्वविश्रुत मणिमय सभागार का निर्माण किया। इस कार्य हेतु उसने चौदह माह का समय लिया। इतने अल्प समय में ऐसा दिव्य सभागार! पूरी पृथ्वी पर उस कलाकृति की कोई समानता नहीं थी। उसकी दीप्ति से सूर्य की प्रभा फीकी पड़ जाती थी। अनेक प्रकार के मणि-माणिक्य के सोपानों से शोभायमान, पद्मपुष्पों से उल्लसित, मंद-मंद सुरभित पवन से तरंगित, विशेष रूप से निर्मित दिव्य सरोवर सबके कौतुहल का विषय था। जल मरीचिका तो ऐसी थी कि कोई भी व्यक्ति उसके जल को स्थल समझ भ्रमित हो जाता था। सरोवर के चारो ओर सुनहरे गगनचुंबी वृक्षों के पत्तों की छाया पड़ती रहती थी। सभागार को प्रत्येक दिशा में सौरभ भरे हुए उद्यान घेरे हुए थे। छोटी-छोटी बावलियां थीं जिनमें हंस, सारस और चकवा-चकवी जलक्रीड़ा करते थे। जल और स्थल की कमल पंक्तियां अपनी सुगंध से सभी आगन्तुकों को मुग्ध करती थीं ।

मयासुर का पाण्डवों के लिए यह अतुलनीय उपहार था। इन्द्रप्रस्थ से प्रस्थान के पूर्व उन्होंने मुझे देवदत्त शंख और वीर भीमसेन को दिव्य रत्नमण्डित श्रेष्ठ गदा भेंट की।

पिताश्री महाराज पाण्डु ने हस्तिनापुर में शासन करते समय राजसूय यज्ञ करने का संकल्प लिया था लेकिन अपने जीवन काल में इसे पूरा नहीं कर सके। महर्षि नारद और वेदव्यास ने महाराज युधिष्ठिर को पिताश्री के संकल्प को पूरा करने का परामर्श दिया। श्रीकृष्ण ने भी अपनी सहमति प्रदान की। दिग्विजय पर निकलने के पूर्व जरासंध-वध अनिवार्य था। श्रीकृष्ण के कूटनीतिक परामर्शानुसार भीम ने जरासंध-वध किया। महाराज युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्थ की व्यवस्था संभाली और हम चारो भाई चारो दिशाओं में दिग्विजय हेतु निकल पड़े। कुछ ही समय पश्चात आर्यावर्त के समस्त नरेशों को इन्द्रप्रस्थ की अधीनता स्वीकार करा हम राजधानी को प्रत्यावर्तित हुए।

महत्त्वाकांक्षा ही जीवन की गति को उर्ध्वगामी बनाती है। महत्वाकांक्षा – सत्ता की, पद की, यश की, लोकमंगल की, अर्थ की न रहे तो मनुष्य का जीवन जड़ हो जाए। आम मनुष्य की बात जाने भी दें, तो ऋषि, मुनि, वनवासी भी तो किसी न किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर जीते हैं। जीवन जीने के लिए श्वास लेना अनिवार्य है और जीवन को आगे बढ़ाने के लिए लालसा – चाहे कैसी भी हो, की आवश्यकता होती है। हम पाण्डव राजधानी में सुखी थे। प्रजाजन अग्रज युधिष्ठिर को अपने सुयोग्य राजा के रूप में देखते थे। फसलें फल-फूल रही थीं। व्यापार एवं सैन्य-बल उन्नतिशील थे। ऐसे में वह महत्त्वाकांक्षा ही तो थी जिसने राजसूय यज्ञ कराने की प्रेरणा दी। महाराज युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करने के लिए हमारी सुप्त महत्त्वाकांक्षा की प्रत्यक्ष पूर्ति के लिए संपन्न हुआ था, राजसूय यज्ञ।

कभी-कभी मेरे मन में विचार आता है यदि राजसूय यज्ञ न होता तो महाभारत का भीषण नरसंहार भी नहीं हुआ होता। हमने एक महान यज्ञ पूरा तो किया, महाराज युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट घोषित हुए, लेकिन यह यज्ञ ही कुल के विनाश का कारण बना। यज्ञ में इन्द्रप्रस्थ के ऐश्वर्य और संपन्नता का आवश्यकता से अधिक प्रदर्शन हुआ। शिशुपाल के रक्त से यज्ञभूमि सींची गई। दुर्योधन ईर्ष्या की अग्नि में आपदमस्तक जलने लगा। बल प्रयोग से वह हमें परास्त नहीं कर सकता था। अतः शकुनि और कर्ण की मंत्रणा पर उसने महाराज धृतराष्ट्र के माध्यम से कपटद्यूत-क्रीड़ा के लिए अग्रज युधिष्ठिर को आमंत्रित किया। इच्छा के विपरीत युधिष्ठिर को द्यूत खेलना पड़ा।

क्षत्रिय राजा का धर्म है कि वह चुनौती स्वीकार करे। लेकिन यदि वह चुनौती कपट और छल की हो तो……….राजसूय यज्ञ की सफलता ने कौरवों को हमारे प्रति, इन्द्रप्रस्थ के सुशासन, सुव्यवस्था के प्रति अत्यन्त ईर्ष्यादग्ध कर दिया था। हम जबतक दयनीय, क्षीण और परावलंबी रहते हैं, दूसरे हमपर दया करने का, दान देने का सुख पाते हैं। यह सुख कहीं न कहीं दाता भाव को तोष से भर देता है। यही आत्ममुग्धता की भूमिका बनती है। दुर्योधन आत्ममुग्ध था, हमें इन्द्रप्रस्थ देकर। राजसूय यज्ञ की सफलता ने अकस्मात उसके दातृभाव को छिन्न-विछिन्न कर दिया। पाण्डवों की आत्मनिर्भरता, बढ़ता ऐश्वर्य उसके अस्तित्व के संकट के प्रश्न के रूप में खड़े हो गए। मैं समझता हूं, वह नीचता की पराकाष्ठा पर पहुंच कर ही ऐसी योजना बना सका जिसका प्रत्युत्तर हमारे पास नहीं था। हमने असत्य और कपट का सहारा लेना नहीं चाहा, और कौरवों ने उसी का सहारा लिया। महाराज युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिए सादर आमंत्रित किया गया – महाराज धृतराष्ट्र द्वारा। यह उनका आमंत्रण था या आदेश, भेद करना कठिन था। युधिष्ठिर अभी भी उन्हें संयुक्त साम्राज्य के महाराज का सम्मान देते थे। आमंत्रण अस्वीकार कर कापुरुषता या अनुशासनहीनता कैसे दिखाते? नियति के चक्र ने पाण्डवों को, छल से ही सही, विजित हो जाने का सुअवसर कौरवों को दिया। हम अपना सर्वस्व खो बैठे. वंचित हो गए ऐश्वर्य, पद, सत्ता, मान-सम्मान और तो और पांचाली से भी……ओह! मैं क्या सोच रहा हूं – मेरे जीवन का सर्वाधिक कलुषित दिवस, मेरे आत्मसम्मान का चरम पतन उसी दिन तो हुआ था जब पांचाली, मेरी कृष्णा………मन दहकने लगा है, आंखें फिर भर आई हैं। कहां गई मेरी स्थितप्रज्ञता! क्या हो जाता है श्रीकृष्ण मुझको……….मेरी स्मरण शक्ति क्षीण क्यों नहीं हो जाती, क्यों नहीं मिटा पाते वह दुर्दिन की घटनाएं………..श्रीकृष्ण कहते हैं – तुम पार्थ हो, पहचानो पृथापुत्र, सहनशील बनो – पृथ्वी की भांति, लेकिन मैं…………….!

क्रमशः

 

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