कहो कौन्तेय-४८

विपिन किशोर सिन्हा

(अर्जुन के हाथों कर्ण और कृपाचार्य की पराजय)

आज मैं अत्यन्त प्रसन्न था। तेरह वर्षों से अपमान की जिस अग्नि में आठों पहर जलता था, उसका प्रतिशोध लेने का अवसर सामने उपस्थित था। पूरी शक्ति से मैंने अपने प्रिय शंख देवदत्त को फूंका। चारो दिशाओं को आक्रान्त करने वाले घोष को सुनकर कौरवों की बुद्धि विचलित होती हुई दीख पड़ी। दुर्योधन, कर्ण, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि महारथी एक स्थान पर उपस्थित हो मंत्रणा करने लगे। मैंने पितामह, आचार्य द्रोण और कृपाचार्य के चरण-कमलों के पास दो-दो बाण मारे। युद्ध आरंभ करने के पूर्व गुरुजनों की चरण-वन्दना कर आशीष की कामना की थी मैंने।

मेरी शंखध्वनि के उत्तर में कौरवों की ओर से कोई शंखध्वनि नहीं हुई। वे मंत्रणा करते रहे। मैं उनके समीप आ गया था। वे मेरी बाण-वर्षा की परिधि में थे, फिर भी मैंने आक्रमण नहीं किया। असावधान शत्रु पर आक्रमण करना धर्मविरुद्ध था।

कुछ घड़ी मंत्रणा करने के पश्चात कौरवों ने व्यूह-रचना की। पितामह भीष्म ने सेना को तीन भागों में विभक्त किया। एक चौथाई सेना का नेतृत्व दुर्योधन कर रहा था। वह वाहिनी के पार्श्व भाग का रक्षक था। एक चौथाई सेना गौवों को लेकर हस्तिनापुर चल दी और शेष आधी सेना पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य के साथ युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर मेरे सामने थी।

अग्रिम मोर्चे पर तैनात महारथियों को विश्वास था कि मैं सबसे पहले युद्ध उन्हीं से करूंगा। लेकिन मेरी आंखें तो दुर्योधन को ढूंढ़ रही थीं। मैं उसे अपने बाणों के प्रहारों से मृतप्राय कर देना चाहता था। पितामह भीष्म ने मेरी मनःस्थिति संभवतः भांप ली थी, अतः उसे गौवों के साथ हस्तिनापुर की ओर बढ़ने का संकेत दिया। वह शीघ्रता से मत्स्य देश की सीमा से दूर जाने लगा। एक बार फिर मैंने शंखनाद किया। उत्तर में कौरव पक्ष से कई शंखों के घोष एक साथ सुनाई पड़े। अर्थ स्पष्ट था – उन्हें युद्ध की चुनौती स्वीकार थी।

मुझे सर्वप्रथम दुर्योधन का संधान करना था। भीष्म पितामह, द्रोण, कर्णादि महारथियों से प्रथम चरण में ही उलझकर, मैं उसे सुरक्षित हस्तिनापुर पहुंचने का अवसर नहीं देना चाहता था। मैंने कौरव सेना के पार्श्व भाग पर प्रथम आक्रमण का निर्णय लिया।

कौरवों की अग्रिम पंक्ति के योद्धा अभी कुछ समझ पाते, इसके पूर्व ही किनारे से मैंने दुर्योधन की ओर रथ दौड़ा दिया। वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ आपस में मंत्रणा करने लगे। मैंने तीव्र गति से टिड्डियों की तरह बाण-वर्षा करके यमुना के किनारे दीवार सी खड़ी कर दी। घेरने वाला सुदृढ़ घेरा तैयार हो गया। घेरे को देख, गौवें ठिठक गईं और मुंह मोड़कर पुनः विपरीत दिशा में विराट नगर की ओर दौड़ पड़ीं। सेना की प्राथमिकता अब बदल चुकी थी। अब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए युद्ध कर रही थी। गौवों को मुक्त कर दिया गया।

मैं तीव्र गति से दुर्योधन की ओर बढ़ रहा था। मेरी योजना कौरव महारथियों ने भांप ली। उसे पीछे रख चित्रसेन, शत्रुसह और जय जैसे महारथी मेरे सामने आ युद्ध करने लगे। मेरे पास समय बहुत कम था, अतः विवश होकर अनिच्छा से मुझे इन महारथियों का वध करना पड़ा क्योंकि इन सबको मारे बिना दुर्योधन तक पहुंचना असंभव था। अब विकर्ण मेरे सामने था। द्यूतक्रीड़ा के समय उसने धर्म का पक्ष लिया था। उसके प्रति मेरे मन में आदर का भाव था। इसीलिए मैंने उसपर प्राणघातक हमला नहीं किया। सिर्फ उसका धनुष काटकर उसके रथ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। वह रणभूमि से पलायन कर गया लेकिन उसकी रक्षा में नियुक्त शत्रुन्तप मेरे हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। मैंने एकसाथ इतनी प्रबल बाण-वर्षा की, कि पृथ्वी से आकाश को देखना संभव नहीं हो पा रहा था। सेना को समझ नहीं आ रहा था कि बाण आखिर किस दिशा से आ रहे थे। सब मेरी बाण-वर्षा से सम्मोहित हो रहे थे। लेकिन मेरी दृष्टि दुर्योधन को ढूंढ़ रही थी। दूर कर्णादि महारथियों से घिरा दुर्योधन दिखाई पड़ा। मैं उधर ही चल पड़ा। बीच में अचानक कर्ण का अनुज संग्रामजित बाण-वर्षा करते हुए मार्ग रोककर खड़ा हो गया। मैंने उससे मार्ग देने का आग्रह किया लेकिन वह जैसे आत्महत्या पर उतारू था। मेरे बार-बार के आग्रह के बाद भी वह आक्रमण करता रहा। मुझे उसके वध के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था। उसके रथ में जुते लाल-लाल अश्वों को मारकर, एक तीक्ष्ण बाण से उसका शिरच्छेद करना पड़ा।

कर्ण ने अपने अनुज का वध अपनी आंखों से देखा। वह क्रोधाग्नि में तपने लगा। दुर्योधन को छोड़ अपना रथ मेरे सामने ले आया। मेरे मन की अभिलाषा पूरी हो गई। अभिमानी कर्ण मुझे युद्ध की चुनौती दे रहा था। क्रोध में भरकर अपने स्वभाव के अनुसार तरह-तरह के दुर्वचन बोल रहा था। मैंने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। हां, मेरा ध्या बंटाने को दूर से पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य ने बाण-वर्षा आरंभ कर दी। उन्हें दूर ही रोकने के लिए, सर्वप्रथम उनके रथों को बाणों से आच्छादित करना पड़ा। उनकी गति अवरुद्ध हो चुकी थी। कर्ण को आक्रमण का मनोवांछित अवसर प्राप्त हो गया। उसने इन क्षणों का अत्यन्त कुशलता से उपयोग किया। महान धनुर्धर तो वह था ही और जब प्रतिद्वन्द्वी का ध्यान बंटा हो, तब उसके पराक्रम का क्या कहना? जबतक मैं उसपर दृष्टिपात करता, उसने बाणों की दीवार को काट दिया, मेरे चारो अश्वों और सारथि को बींध दिया। मेरे रथ की ध्वजा को काट डाला और अत्यन्त वेगशाली चार बाणों से मुझे भी घायल कर दिया। क्षण भर के लिए मेर आंखों के सामने अन्धेरा छा गया। लेकिन अगले ही पल मैंने स्वयं को संभाला। कर्ण को लक्ष्य करके तीव्र गति से लगातार तीक्ष्ण और प्राणघातक बाणों की वर्षा कर दी। कर्ण को सुरक्षात्मक युद्ध के लिए विवश होना पड़ा। वह पुनः मेरे बाणों को काटने लगा। अब मुझे अवसर मिला। मैंने वज्र के समान तेजस्वी बाणों का प्रहार आरंभ किया। परिणाम आशा के अनुकूल था – कर्ण की बांह, जंघा, ललाट और कंठ बाणों से बींध गए। उसका शरीर क्षत-विक्षत हो गया। अत्यधिक पीड़ा से वह कराह उठा। शीघ्र ही रथ से कूदकर युद्धभूमि से पलायन कर गया। भागते हुए कर्ण के लिए अब एक ही अर्द्ध चन्द्राकार बाण पर्याप्त था। मैंने उसे प्रत्यंचा पर चढ़ाया लेकिन विवेक क्रोध पर भारी पड़ गया। पीठ दिखानेवाले शत्रु पर प्रहार करना धर्मसंगत नहीं था। मैंने अपने संहारक बाण को अपने तूणीर में पुनर्स्थापित किया।

कौरव सेना में कोलाहल मच गया। रक्षा के लिए पूरी सेना पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य की ओर भागने लगी। मैंने उन्हें ऐसा करने का अवसर दिया। कभी इसी सेना का नेतृत्व मैं किया करता था। सेना के लिए मेरे मन में कोई कटुता वैसे भी नहीं थी। अकारण अपनी ही पूर्व सेना का संहार मैं नहीं कर सकता था।

राजकुमार उत्तर के लिए कौरव वीरों की पराजय किसी चमत्कार से कम नहीं थी। उसकी प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी। अब वह वापस लौटने के लिए व्यग्र हो उठा। गौवों को उसने विराट नगर की ओर लौटते देख ही लिया था। उसके अनुसार हम अपना कार्य पूर्ण कर चुके थे। निस्सन्देह उसका कार्य पूरा हो चुका था। लेकिन मेरा कार्य अधूरा था। मेरी आंखें अब भी दुर्योधन को ढूंढ़ रही थीं।

मैंने एक विहंगम दृष्टि कौरव सेना पर डाली, अपने आक्रमण को अल्प समय के लिए विराम दिया। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए विभिन्न विकल्पों पर विचार जो करना था।

दुर्योधन ने शीघ्र ही नई व्यूह-रचना कर ली। अब मेरे सम्मुख मेरे दोनों गुरुवर, कृपाचार्य और द्रोणाचार्य खड़े थे। उनको पराजित करने के पश्चात ही दुर्योधन तक पहुंचना संभव था। मैंने निर्णय ले लिया – सर्वप्रथम कृपाचार्य से युद्ध का। मैंने अपना रथ बढ़ाकर उनकी प्रदक्षिणा की, प्रणाम किया और युद्ध करने की आज्ञा मांगी। अनुमति मिलते ही मैंने शंखनाद किया। प्रथम प्रहार आचार्य ने ही किया। मेरे उपर दस हजार बाणों की वर्षा कर विकट गर्जना की। मैंने उनके बाणों को हवा में ही काट दिया। एक तीखा भल्ल नामक बाण मारकर उनके धनुष, हस्तत्राण और कवच को छिन्न-भिन्न कर दिया। मैं इस तरह शर-संधान कर रहा था कि उनके शरीर को प्राणघातक आघात नहीं लगे। लेकिन वे पूरी शक्ति से आक्रमण कर रहे थे। उन्होंने मुझे लक्ष्य करके वज्र के समान एक शक्ति प्रक्षेपित की। मैंने दस बाण मारकर उसे मार्ग में ही नष्ट कर दिया। युद्ध को लंबा न खींचते हुए मैंने शीघ्र ही उनके रथ का जुआ काट डाला। चारो अश्वों को मार डाला और सारथि का सिर धड़ से अलग कर दिया। रथ से कूदकर कृपाचार्य ने मुझ पर गदा का प्रहार किया। मैंने बाणों से गदा को उन्हीं के पास लौटा दिया। रथहीन कृपाचार्य निःशस्त्र हो चुके थे। मैंने उन्हें रणभूमि से जाने का अवसर दिया।

क्रमशः

 

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