कहो कौन्तेय-५५

(शान्ति-दूत के रूप में श्रीकृष्ण)

विपिन किशोर सिन्हा

शान्ति-स्थापना के अन्तिम प्रयास के रूप में श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजना निश्चित किया गया। जाने के पूर्व मैं, युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल. सहदेव और सात्यकि मंत्रणा के लिए श्रीकृष्ण के पास बैठे। महाराज युधिष्ठिर युद्ध के पक्ष में नहीं थे। शान्ति-स्थापना हेतु वे अपने आधे राज्य का त्याग करने के लिए भी तैयार थे। संजय के माध्यम से धृतराष्ट्र द्वारा प्रेषित संदेश का प्रभाव उनपर स्पष्ट परिलक्षित था। उन्होंने हम पांच भ्राताओं के लिए सिर्फ पांच गांवों की मांग कर, महाराज धृतराष्ट्र की राह सरल कर दी थी। हमें ऐसा लगा कि इतनी छोटी मांग पूरा करना धृतराष्ट्र के लिए कठिन कार्य नहीं होगा। हम श्रीकृष्ण की हस्तिनापुर यात्रा के अच्छे परिणाम के प्रति आश्वस्त होते जा रहे थे। लेकिन श्रीकृष्ण! उनके मन की थाह पाना असंभव था। उन्हें ज्ञात था कि कल क्या होना है किन्तु संकेत नहीं देते थे। मैंने कई बार प्रयास किया कि वे बताएं, परन्तु हर बार वे मुस्कुरा कर बात टाल जाया करते, लेकिन द्रौपदी के सम्मुख उनकी एक न चली। हस्तिनापुर जाने के पूर्व वे द्रौपदी से मिलने वे उसके कक्ष में गए।

दुर्योधन, दुशासन ने हमलोगों को असंख्य कष्ट दिए थे, भरी सभा में द्रौपदी का अपमान किया था। जब-जब उनके अत्याचार स्मृति-पटल पर आते थे, ऐसा लगता था, धमनियों में रक्त के स्थान पर द्रव लौह प्रवाहित हो रहा हो। वे दोनों, बंधुओं समेत मृत्युदंड के अधिकारी थे, फिर भी पता नहीं क्यों, हृदय के किसी भाग में उनके लिए कहीं न कहीं एक छोटा सा स्थान था। हमने बचपन साथ-साथ बिताए थे, तितलियों के पीछे हम साथ-साथ दौड़े थे, आम के टिकोरे हमने साथ-साथ खाए थे। युद्ध में हमें उनके रक्त की होली खेलनी होगी, यह निश्चित था। अन्तिम विजय के लिए हमें अपने हाथ पितामह भीष्म, गुरुवर द्रोण, कृपाचार्य और गुरुपुत्र अश्वत्थामा के रक्त से भी लाल करने पड़ेंगे, यह भी दिवा-रात्रि की भांति निश्चित था। युद्ध की संभावित विभीषिका कभी-कभी अन्तर को झकझोर जाती थी। यही कारण था कि हमने युधिष्ठिर के पांच गांवों के प्रस्ताव का मुखर विरोध नहीं किया। लेकिन द्रौपदी संधि-प्रस्तावों के विरुद्ध थी। उसने अपना अपमान एक दिन के लिए भी विस्मृत नहीं किया था। उसकी केशराशि प्रतिशोध की आशा में तेरह वर्षों से खुली पड़ी थी। हम पांचो भ्राताओं को नरम पड़ता देख, उसका धैर्य टूट गया। अपने प्रिय सखा श्रीकृष्ण के सामने बिफर पड़ी –

“हे मधुसूदन! हे गोविन्द! हे श्रीकृष्ण! आप भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता हैं। धर्म की स्थापना और दुष्टों के विनाश के लिए इस पृथ्वी पर आपका अवतार हुआ है। आप स्थितप्रज्ञ हैं। दुष्ट रक्तसंबन्धियों के लिए भी आपके मन में किसी तरह का कोई कोमल स्थान नहीं रहता। न्याय, सत्य और धर्म की स्थापना के लिए आपने अपने मातुल कंस और बंधु शिशुपाल तक का वध बिना किसी संकोच के किया। मेरे पांचो पतियों ने मेरे अपमान को विस्मृत कर दिया है। वे भय से या कुल के मिथ्या मोह के कारण युद्ध से विरत हो, आपके माध्यम से संधि-प्रस्ताव भेज रहे हैं। आपने भी उनका दूत बनना स्वीकार कर लिया है। लेकिन मुझे युद्ध के अतिरिक्त कोई प्रस्ताव स्वीकार नहीं है।

जनार्दन! जो दोष अवध्य का वध करने में है, वही दोष वध्य का वध न करने में भी है। अतः आप स्वयं पाण्डव, यादव और सृंजय वीरों को साथ लेकर, ऐसा कार्य करें जिससे यह दोष आपको स्पर्श नहीं कर सके।

मैं पांचाल नरेश द्रुपद की यज्ञवेदी से प्रकट हुई अयोनिजा पुत्री हूं। अतुलित पराक्रमी धृष्टद्युम्न की भगिनी हूं, सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण की प्रिय सखी हूं, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू हूं और इन्द्र के समान तेजस्वी पाण्डवों की पटरानी हूं। इतनी सम्मानिता होने पर भी रजस्वला की अवस्था में मुझे केश पकड़कर घसीटते हुए सभा में लाया गया। मेरे पांचो पतियों के सामने मेरा चीरहरण किया गया। इतना घोर अपमान आर्यावर्त के इतिहास में किसी नारी ने नहीं सहा होगा। मुझे ऐसी स्थिति में देखकर भी इन पाण्डवों को न तो क्रोध आया और ना ही इन्होंने मुझे पापी दुशासन के हाथों से बचाने की कोई चेष्टा की। मेरा यह स्पष्ट अभिमत है कि इस पाप कर्म के बाद यदि दुर्योधन, दुशासन और कर्ण एक मुहूर्त्त भी जीवित रहते हैं, तो पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन की धनुर्धरता और दस सहस्र हाथियों के बल वाले भीमसेन की बलवत्ता को धिक्कार है। अतः यदि आप मुझे अपनी कृपापात्री समझते हैं, वास्तव में मेरे प्रति दयादृष्टि है, आपके हृदय में मेरे प्रति तनिक भी स्नेह है, मेरे अपमान से आपका हृदय यदि थोड़ा सा व्यथित होता है, तो बिना विलंब किए उठाइये सुदर्शन चक्र और कर दीजिए नाश धृतराष्ट्र के आतताई पुत्रों का।”

द्रौपदी के नेत्रों से अंगारे बरस रहे थे। उसकी व्यथा अभिव्यक्ति पा रही थी। उसका आक्रोश मुखर हो रहा था। आज वह स्पष्ट जानना चाह रही थी कि हमलोग उसके अपमान का प्रतिशोध लेंगे या सबकुछ विस्मृत कर पांच ग्रामों के बदले संधि कर लेंगे? तेरह वर्षों से खुली केशराशि को हाथ में पकड़कर उसने श्रीकृष्ण को दिखाया। नेत्रों में जल भरकर पुनः उसी स्वर में बोली –

“कमलनयन श्रीकृष्ण! मेरे पांचो पतियों की तरह आप भी कौरवों से संधि की इच्छा रखते हैं। आप इसी कार्य हेतु हस्तिनापुर जानेवाले हैं। मेरा आपसे सादर आग्रह है कि अपने समस्त प्रयत्नों के बीच मेरी इस उलझी केशराशि का ध्यान रखें। दुष्ट दुशासन के रक्त से सींचने के बाद ही मैं इन्हें कंघी का स्पर्श दूंगी। यदि महाबली भीम और महापराक्रमी अर्जुन मेरे अपमान को विस्मृत कर युद्ध कि विभीषिका से डरकर, अपनी प्रतिज्ञा को भूल, कायरों की भांति संधि की कामना करते हैं, तो करें, मैं उनके मार्ग में अवरोध उत्पन्न नहीं करूंगी। अपमान की प्रचंड अग्नि में जलते हुए मैंने तेरह वर्षों तक प्रतीक्षा की है। आज ये लोग संधि की बात करते हैं। मेरे अपमान का बदला मेरे वृद्ध पिता, मेरा पराक्रमी भ्राता, मेरे पांच वीर पुत्र और महारथी अभिमन्यु लेंगे। वे कौरवों से जुझेंगे और दुशासन की दोनो सांवली भुजाएं तथा मस्तक को काट, उसके शरीर को मेरे समक्ष धूल-धूसरित कर, मेरी छाती को शीतलता प्रदान करेंगे।”

अपनी व्यथा और आक्रोश को स्वर देते-देते पांचाली का कण्ठ अवरुद्ध हो आया, आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई, होंठ कांपने लगे और वह फूट-फूटकर रोने लगी।

हम सभी उसके अपराधी थे। कुल के मोहवश हमने अपनी प्रतिज्ञा विस्मृत कर दी थी। जीवन में पहली बार हमारी दृष्टि अंगूठे के पास धरती पर केन्द्रित थी। हम चुप थे लेकिन श्रीकृष्ण पर कृष्णा के वचनों का अपेक्षित प्रभाव पड़ा। उन्होंने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा –

“प्रिय सखी! अपने इन अनमोल आंसुओं को पोंछ डालो। यह समय तुम्हारे विलाप का नहीं, हस्तिनापुर के कौरव कुल की स्त्रियों के विलाप का है। तुम्हारे आंसू कभी व्यर्थ नहीं जाएंगे। एक पतिव्रता, सुशीला स्त्री के सार्वजनिक अपमान का फल पापीजनों को अवश्य मिलेगा। आज जिनपर तुम्हारा कोप है, वे स्वजनों, सुहृदों और सेना के साथ विनाश को प्राप्त होंगे। वे सबके सब मारे जाने के बाद, श्वानों और शृगालों के भोजन बनेंगे। पांचाली तुम यह निश्चित मानो – हिमालय भले ही अपने स्थान से टल जाय, पृथ्वी के टुकड़े-टुकड़े हो जाएं, तारों से भरा आकाश खण्ड-खण्ड हो जाय, लेकिन मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता।

कृष्णे! राजनीति की भी अपनी वाध्यताएं होती हैं – औपचारिकताएं होती हैं। मैं उन्हीं के निर्वाह के लिए हस्तिनापुर जा रहा हूं। परिणाम मुझे ज्ञात है। चट्टान पर खेती हो सकती है, अन्तरिक्ष में वृक्ष उगाए जा सकते हैं, लेकिन जड़बुद्धि दुर्योधन को संधि के लिए सहमत नहीं किया जा सकता। सिर्फ इतिहास को उत्तर देने के लिए मैं दूत की भूमिका निभाने जा रहा हूं। भविष्य कही यह न कह दे कि शान्ति-स्थापना के लिए हमारा प्रयास आधा-अधूरा था। सारे परिणामों से अवगत होने के बाद भी श्रीराम ने रावण के पास अंगद को दूत के रूप में भेजा था। पांचाली! मैं धरती और आकाश को साक्षी रख प्रतिज्ञा करता हूं कि अगर किसी कारणवश तुम्हारे पति तुम्हारे अपमान का बदला लेने में असफल रहते हैं, तो मैं स्वयं तुम्हारे शत्रुओं का वध कर, तुम्हारा संकल्प पूरा करूंगा। अपने आंसुओं को रोको और धैर्यपूर्वक कल की प्रतीक्षा करो, जो सिर्फ तुम्हारा है।”

क्रमशः 

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