कहो कौन्तेय-७९

विपिन किशोर सिन्हा

अपने ज्येष्ठ भ्राता के वध को अन्य भाई सह नहीं सके। उन्माद के अतिरेक में निषंगी, कवची, पाशी, दण्डधर, धनुर्धर, अलोलुप, सह, वातवेग और सुवर्चा – ये दस धृतराष्ट्र नन्दन एक साथ भीम पर टूट पड़े। क्रोध में भरे हुए भीम उस दिन साक्षात काल के समान प्रतीत हो रहे थे। उन्होंने दस भल्ल मारकर दुर्योधन के दसों भाइयों को यमलोक का अतिथि बना दिया।

सेना पीठ दिखाकर भागी जा रही थी, कर्ण चुपचाप देख रहा था। दुशासन के वध का वीभत्स दृश्य वह भूल नहीं पा रहा था। उसके मन में भी भीषण भय समा गया। राजा से सारथि बने शल्य उसका भाव समझ गए। सारथि धर्म का निर्वाह करते हुए कर्ण में उत्साह भरने का प्रयास किया –

“राधानन्दन! भयभीत होना तुम्हारे जैसे वीरों को शोभा नहीं देता। कनिष्ठ भ्राता के वध के कारण दुर्योधन किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया है। वह देखो, पाषाण बनकर चुपचाप खड़ा है। अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा आदि वीर, वीरवर भीम से उसकी रक्षा हेतु घेरकर खड़े हैं। सभी शोक से व्याकुल हैं, सबकी चेतना लुप्त हो रही है। ऐसे में सिर्फ तुम्हीं आशा के केन्द्र हो। अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखते हुए, क्षत्रिय धर्म को याद कर अर्जुन का सामना करो। वह देखो – वह तुम्हारी ओर ही बढ़ता हुआ आ रहा है। दुर्योधन ने सारा भार तुम्हारे उपर ही डाल रखा है। वह तुम पर भीष्म और द्रोण से भी अधिक विश्वास करता है। आगे बढ़ो, युद्ध करो। यदि विजय हुई, तो जब तक पृथ्वी रहेगी, तुम्हारी कीर्ति पताका लहराएगी और यदि मृत्यु हुई तो अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होगी।”

भय और शोक का त्याग कर कर्ण ने शंखध्वनि की। वह युद्ध के लिए तैयार था। उसका पराक्रमी पुत्र वृषसेन उसके रथ के आगे आया। आते ही उसने नकुल पुत्र शतानीक और नकुल को अपने अचूक प्रहारों से घायल कर दिया। मुझपर और श्रीकृष्ण पर उसने अनेक बाण छोड़े। मुझे अभिमन्यु की याद आ गई। वृषसेन पूर्ण रूप से मेरे प्रहार की परिधि में अपने आप आ गया। मैंने उसे मार डालने का निश्चय किया। मेरी भौहों में तीन जगह बल पड़े, आंखें जल उठीं।

“महारथी कर्ण! तुम सबने मिलकर अधर्म से मेरे अभिमन्यु का वध किया था। उस समय मैं उसके पास नहीं था। आज मैं तुम्हारे पुत्र को तुम्हारी आंखों के सामने मारने जा रहा हूं। तुम सब मिलकर भी उसे बचा सकते हो, तो बचा लो।” ऊंचे स्वर में कर्ण को ललकारते हुए मैंने वृषसेन का सिर कर्ण के सामने ही उसके धड़ से अलग कर दिया।

कर्ण की आंखों से आंसू की दो बून्दें टपकीं लेकिन शीघ्र ही स्वयं पर नियंत्रण किया। क्रोध में भरकर वह मेरे सम्मुख आ चुका था। अत्यन्त क्रोध में मनुष्य का मस्तिष्क विचलित हो जाता है। मैंने योजनानुसार उसके सामने उसके पुत्र का वध किया था। उद्देश्य था – उसे मानसिक रूप से असंतुलित कर देना। अत्यधिक क्रोध में उसके अंग-अंग कांप रहे थे। मेरे लिए यह अनुकूल स्थिति थी।

मेरा नन्दिघोष और कर्ण का रथ आमने-सामने खड़े थे। श्रीकृष्ण ने पांचजन्य और मैंने देवदत्त का शंखनाद कर युद्ध आरंभ करने का संकेत दिया। कर्ण ने भी शंखध्वनि कर अपनी स्वीकृति दी।

एक पल के लिए युद्धक्षेत्र में शान्ति छा गई लेकिन दूसरे ही पल शरसंधान के शोर ने कान के पर्दों को कष्ट देना प्रारंभ कर दिया। मैंने कर्ण पर नाराच, नार्लीक, वराहकर्ण, क्षुर, आंजलिक और अर्द्धचन्द्र आदि विशेष बाणों की झड़ी लगा दी। उसने बड़ी कुशलता से मेरे बाणों को काट मेरे आक्रमण को निष्प्रभावी किया। मेरे बाणों से उसका पूरा शरीर बिंध गया। लेकिन वह पर्वत की तरह अविचल रहा। प्रत्याक्रमण में उसने भी असंख्य बाणों से मुझपर प्रहार किया। मेरी भुजाओं से रक्त की धारा बह निकली। हम दोनों जीवन में दो विरोधी ध्रुवों पर खड़े थे। वह मेरा शव देखना चाह रहा था और मैं उसका।

युद्ध लंबा न खींचे, इसलिए मैंने आग्नेयास्त्र का संधान किया। पृथ्वी से लेकर आकाश तक अग्नि की ज्वाला फैल गई। शत्रु के रथ के चारों ओर भीषण लपटें उठने लगीं, सैनिक आग में झुलसने लगे। तीव्र ताप से विचलित कर्ण ने वारुणास्त्र का प्रयोग किया। इस कारण कर्ण के रथ के आस-पास वर्षा के कारण कीचड़ गहरा हो गया। मैंने स्पष्ट देखा, उसके रथ की गतिविधियां मन्द पड़ गईं। वारुणास्त्र को थोड़ी देर के लिए जानबूझकर मैंने प्रभावी होने दिया। जब उसके रथ के चारो ओर मुझे जल-ही-जल दिखाई देने लगा तो वायव्यास्त्र के प्रयोग द्वारा वारुणास्त्र को शान्त किया। सूरज फिर चमकने लगा।

इस समय कर्ण सुरक्षात्मक युद्ध लड़ रहा था। मैं आक्रमण पर था, मंत्रोच्चार के साथ मैंने प्रभावशाली ऐन्द्रास्त्र वज्र को प्रकट किया। मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब मैंने देखा, लक्ष्य तक पहुंचने के पूर्व ही उसने भार्गवास्त्र का प्रयोग कर न सिर्फ वज्र को निष्प्रभावी किया, वरन् बढ़त भी प्राप्त कर ली। हमारी सेना का एक बड़ा भाग प्राण त्यागकर धराशाई हो गया और शेष सेना हाहाकार करती हुई पलायन करने लगी।

भीमसेन ऊंचे स्वर में चिल्लाकर सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहे थे। उन्होंने मुझे लापरवाही छोड़ कर्ण का शीघ्र वध करने का आदेश दिया।

अबतक मैंने शल्य पर बाण नहीं चलाए थे। वे बड़ी चपलता से कर्ण के रथ को आगे-पीछे, उपर-नीचे करके मेरे प्रहारों को निष्फल करने में अपना योगदान दे रहे थे। उन्हें शिथिल करने के लिए दस बाणों से उनके कवच को बींध डाला। फिर उन्नीस बाण मारकर कर्ण को भी घायल किया। उसके शरीर में बहुत सारे घाव हो गए थे। वह रक्त से नहा उठा। अपनी पीड़ा को दबाते हुए उसने श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया। मेरे लिए यह असह्य था। मैंने अबतक की सबसे तीव्र बाण-वर्षा की, सारी दिशाएं, सूर्य की प्रभा तथा कर्ण का रथ, सबका दिखना बन्द हो गया। कर्ण के रथचक्रों की रक्षा करने वाले, चरणों की रक्षा करने वाले, आगे चलने वाले तथा पीछे रहकर रक्षा करने वाले समस्त योद्धाओं का पलक झपकते सफाया कर दिया। बचे हुए सैनिक कर्ण का आसरा छोड़ भाग चले। वह बिल्कुल अकेला पड़ गया। अब वह थोड़ा विचलित दिखाई पड़ा। एक पल का विलंब भी प्राणघातक हो सकता था। उसे अपने सर्पमुख बाण की याद आई। चन्दन के चूर्ण से सिक्त उस देदीप्यमान बाण को उसने मेरे कुछ समझने के पूर्व मुझपर प्रक्षेपित कर दिया। उसके रथ के कोने में प्रतीक्षारत अश्वसेन नाग को यह अवसर उपयुक्त लगा। वह बाण पर सवार हो गया।

कर्ण के धनुष से छूटा वह बाण अन्तरिक्ष में पहुंचते ही प्रज्ज्वलित हो उठा। श्रीकृष्ण को उसकी विभीषिका का भान था। उन्होंने रथ को शीघ्र ही पैर से दबा दिया। चारो अश्व पैरों को मोड़कर नीचे बैठ गए। श्रीकृष्ण के इस कौशल से वह बाण अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाया, सिर्फ मेरे किरीट से टकराया। देवराज इन्द्र द्वारा प्रदत्त वह किरीट रथ में गिर पड़ा। मेरे घुंघराले केश बिखर गए।

श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात मृत्यु से बचा लिया था। किरीट का लोभ छोड़कर मैंने श्वेत उत्तरीय से अपना सिर बांध लिया और तेजी से बाण-वर्षा कर कर्ण के रथ को बाणों के पिंजरे में जकड़ दिया। सारथि शल्य हिलडुल भी नहीं सकते थे। कर्ण का रथ अब एक ही स्थान पर स्थित हो गया।

श्रीकृष्ण मेरे रथ को मनचाही दिशा दे रहे थे। मैं हर कोण से कर्ण पर प्रहार करने में सक्षम था। अवसर का लाभ उठाते हुए मैंने सैकड़ों बाण मारकर उसके मर्मस्थलों को बींध दिया, फिर कालदण्ड के समान लंबे सायकों के प्रहार से उसे घायल किया। कर्ण वेदना से कराह उठा। उसका सुन्दर रत्नजटित मुकुट भी मेरा शिकार बना। मैंने उसके कान के कुण्डलों को काट डाला और एक बाण से उसके मुकुट को जमीन पर गिराकर धूल-धूसरित कर दिया। उसका अभेद्य कवच मेरे प्रहार से कई टुकड़ों में खण्डित हो चुका था। उसके आवरणहीन वक्षस्थल को देख उत्साह में भरकर मैंने पूरी शक्ति से नौ तीखे बाण मारे। चोट पर चोट खाकर वह अत्यन्त आहत हो गया, उसकी मुट्ठी खुल गई, धनुष और तूणीर गिर पड़े। वह रथ पर ही गिरकर मूर्च्छित हो गया। वह अब पूरी तरह मेरी इच्छा पर जीवित था। उसे शस्त्रहीन और अचेत देख, उस समय मैंने उसे मारने का विचार छोड़ दिया। मैंने गाण्डीव पर चढ़ाए बाण को प्रक्षेपित नहीं किया। शस्त्रहीन और अचेत शत्रु पर प्रहार करना धर्मविरुद्ध था।

मैं अपने हाथों और गाण्डीव को अल्प विराम दे ही रहा था कि कर्ण की चेतना वापस लौट आई। सचेत होते ही उसने दस बाणों से मुझे और छः बाणों से श्रीकृष्ण को बींध दिया। श्रीकृष्ण ने मुझे यह खेल समाप्त करने का आदेश दिया। अब सूरज भी पश्चिम की ओर ढल रहा था।

क्रमशः

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