“सेकुलर” अर्थात् धर्मनिरपेक्षता: राक्षसी भावना अथवा संवैधानिक मूल्य

dharmप्रोफेसर महावीर सरन जैन

टॉइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र में समाचार प्रकाशित हुआ है कि नरेंद्र मोदी ने “डॉटकॉम पोस्टर बॉय्ज़” राजेश जैन एवं बी. जी. महेश को यह दायित्व सौंपा है कि वे इंटरनेट पर ऐसा अभियान चलावें जिससे सन् 2014 के लोक सभा के होने वाले आम चुनावों में भाजपा को 275 सीटें मिल सकें। अभियान का एकमात्र उद्देश्य है कि नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधान मंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके। वफादार राजेश जैन एवं बी. जी. महेश ने मिलकर इस अभियान को अंजाम देने के लिए कथ्य एवं कंप्यूटर की तकनीक दोनों के माहिर 100 विशेषज्ञों की टीम बनाई है। इस टीम के सदस्यों का एकमात्र कार्य इंटरनेट पर मोदी के पक्ष में वातावरण निर्मित करना तथा यदि कोई देश का नागरिक मोदी पर लगे धब्बों के बारे में टिप्पणी करता है तो उसके विरुद्ध अभद्र टिप्पणी करना तथा यह साबित करना है कि टिप्पणी करने वाले को तथ्यों की जानकारी नहीं है या वे तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहा है। “राजधर्म का पालन न होने” सम्बंधी अटल जी के कथन का संदर्भ आते ही टीम के कुछ सदस्य अति उत्साह में भाजपा के माननीय अटल जी को अज्ञानी (इग्नोरेंट) तक की उपाधि से विभूषित कर रहे हैं।

सम्प्रति, मेरा उद्देश्य टीम के सदस्यों के व्यवहार एवं आचरण पर टिप्पणी करना नहीं है। पिछले कुछ दिनों से टीम के सदस्यों के द्वारा अंग्रेजी के समाचार पत्रों एवं इंटरनेट पर “सेकुलर” शब्द तथा हिन्दी के समाचार पत्रों एवं इंटरनेट पर हिन्दी की साइटों पर “धर्म निरपेक्षता” शब्द का अवमूल्यन करने का प्रयास किया जा रहा है। इधर मैंने हिन्दी की एक लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका में एक विदूषी चिंतक का लेख पढ़ा जिसमें सेकुलर पर कुछ ऐसा ही टिप्पणी किया गया है। उस लेख में संदर्भित विचार की अभिव्यक्ति निम्न वाक्यों में हुई हैः

“— – –   “ रिलीजन” और “धर्म” के बीच बुनियादी अंतर को समझे-समझाए बिना न तो भक्ति और दर्शन की संकल्पना को अभिव्यक्त किया जा सकता है, न ही भारतीय साहित्य, संगीत तथा अन्य कलाओं को, न लोक जीवन को, और इन सबके बिना तो इतिहास बाहर की चीज ही रहेगा। “सेकुलर” और “कम्यूनल” जैसे शब्दों का अर्थ भी राजनैतिक पूर्वग्रह और विचारधाराओं की जकड़बंदी से मुक्त होकर ग्रहण करना होगा। – -”

इस लेख के उद्धृत अंशों को पढ़ने के बाद मुझे जनवरी, 2001 में भारत के प्रख्यात विधिवेत्ता, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के तत्कालीन अध्यक्ष एवं गहन चिंतक तथा साहित्य मनीषी श्री लक्ष्मी मल्ल सिंघवी जी के साथ इसी विषय पर हुए वार्तालाप का स्मरण हो आया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में 31 जनवरी, 2001 को आयोजित होने वाली “हिन्दी साहित्य उद्धरण कोश” विषयक संगोष्ठी का उद्घाटन करने के लिए सिंघवी जी पधारे थे। संगोष्ठी के बाद घर पर भोजन करने के दौरान श्री लक्ष्मी मल्ल सिंघवी ने मुझसे कहा कि सेक्यूलर शब्द का अनुवाद धर्मनिरपेक्ष उपयुक्त नहीं है। उनका तर्क था कि रिलीज़न और धर्म पर्याय नहीं हैं। धर्म का अर्थ है = धारण करना। जिसे धारण करना चाहिए, वह धर्म है। कोई भी व्यक्ति अथवा सरकार धर्मनिरपेक्ष किस प्रकार हो सकती है। इस कारण सेक्यूलर शब्द का अनुवाद धर्मसापेक्ष्य होना चाहिए। मैंने उनसे निवेदन किया कि शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से आपका तर्क सही है। इस दृष्टि से धर्म शब्द किसी विशेष धर्म का वाचक नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है। मगर संकालिक स्तर पर शब्द का अर्थ वह होता है जो उस युग में लोक उसका अर्थ ग्रहण करता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से तेल का अर्थ तिलों का सार है मगर व्यवहार में आज सरसों का तेल, नारियल का तेल, मूँगफली का तेल, मिट्टी का तेल भी “तेल” होता है। कुशल का व्युत्पत्यर्थ है कुशा नामक घास को जंगल से ठीक प्रकार से उखाड़ लाने की कला। प्रवीण का व्युत्पत्यर्थ है वीणा नामक वाद्य को ठीक प्रकार से बजाने की कला। स्याही का व्युत्पत्यर्थ है जो काली हो। मैंने उनके समक्ष अनेक शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किए और अंततः उनके विचारार्थ यह निरूपण किया कि वर्तमान में जब हम हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इसाई धर्म, सिख धर्म, पारसी धर्म आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इन प्रयोगों में प्रयुक्त “धर्म” शब्द रिलीज़न का ही पर्याय है। अब धर्मनिरपेक्ष से तात्पर्य सेक्यूलर से ही है। सेकुलर अथवा धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म विहीन होना नहीं है। इनका मतलब यह नहीं है कि देश का नागरिक अपने धर्म को छोड़ दे। इसका अर्थ है कि लोकतंत्रात्मक देश में हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का समान अधिकार है मगर शासन को धर्म के आधार पर भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। शासन को किसी के धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। इसका अपवाद अल्पसंख्यक वर्ग होते हैं जिनके लिए सरकार विशेष सुविधाएँ तो प्रदान करती है मगर व्यक्ति विशेष के धर्म के आधार पर सरकार की नीति का निर्धारण नहीं होता। उन्होंने मेरी बात से अपनी सहमति व्यक्त की।

प्रत्येक लोकतंत्रात्मक देश में उस देश के अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष सुविधाएँ देने का प्रावधान होता है। अल्पसंख्यक वर्गों को विशेष सुविधाएँ देने का मतलब “तुष्टिकरण” नहीं होता। यह हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा प्रदत्त “प्रावधान” है। ऐसे प्रावधान प्रत्येक लोकतांत्रिक देशों के संविधानों में होते हैं। उनके स्वरूपों, मात्राओं एवं सीमाओं में अंतर अवश्य होता है। भारत एक सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। संविधान में स्पष्ट है कि भारत “सेकुलर” अथवा “धर्मनिरपेक्ष” लोकतांत्रिक गणराज्य है। जिस प्रकार “लोकतंत्र” संवैधानिक जीवन मूल्य है उसी प्रकार “धर्मनिरपेक्ष” संवैधानिक जीवन मूल्य है। एक बार भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश पर आपात काल थोपकर लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत कदम उठाया था और उनको इसका परिणाम भुगतना पड़ा था। जो देश के सेकुलर अथवा  धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से छेड़छाड़ करने की कोशिश करेगा, उसको भी उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा।

स्वामी विवेकानन्द की डेढ़ सौवीं जयंती मनाई जा रही है। मैं देश के प्रबुद्धजनों से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे केवल स्वामी विवेकानन्द के नाम का जाप ही न करें, उनके विचारों को आत्मसात करने की कोशिश करें। विवेकानन्द ने अपने सह-यात्री एवं सहगामी साथियों से कहा थाः “ हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि “दूसरों के धर्म के प्रति कभी द्वेष न करो”; इसके आगे बढ़कर हम सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनको पूर्ण रूप से अंगीकार करते हैं”।

विवेकानन्द धार्मिक सामंजस्य एवं सद्भाव के प्रति सदैव सजग दिखाई देते हैं।विवेकानन्द ने बार-बार सभी धर्मों का आदर करने तथा मन की शुद्धि एवं निर्भय होकर प्राणी मात्र से प्रेम करने के रास्ते आगे बढ़ने का संदेश दिया।

पूरे विश्व में एक ही सत्ता है। एक ही शक्ति है। उस एक सत्ता, एक शक्ति को जब अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है तो व्यक्ति को विभिन्न धर्मों, पंथों, सम्प्रदायों, आचरण-पद्धतियों की प्रतीतियाँ होती हैं। अपने-अपने मत को व्यक्त करने के लिए अभिव्यक्ति की विशिष्ट शैलियाँ विकसित हो जाती हैं। अलग-अलग मत अपनी विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करने लगते हैं। अपने विशिष्ट ध्वज, विशिष्ट चिन्ह, विशिष्ट प्रतीक बना लेते हैं। इन्हीं कारणों से वे भिन्न-भिन्न नजर आने लगते हैं। विवेकानन्द ने तथाकथित भिन्न धर्मों के बीच अन्तर्निहित एकत्व को पहचाना तथा उसका प्रतिपादन किया। मनुष्य और मनुष्य की एकता ही नहीं अपितु जीव मात्र की एकता का प्रतिपादन किया।

काश, स्वामी विवेकानन्द का नाम जपने वाले विवेकानन्द का साहित्य भी पढ़ पाते तथा विवेकानन्द की मानवीय, उदार, समतामूलक दृष्टि को समझ पाते।

आज का युवा जागरूक है, सजग है। सब देख रहा है। उसे नारे नहीं चाहिए।  काम चाहिए। देश को अतीत की तरफ नहीं, भविष्य की तरफ देखना है। हमें अपने हाथों अपने देश का भविष्य बनाना है। यह आपस में लड़कर नहीं, मिलजुलकर काम करने से ही सम्भव है। यह भारत देश है। भारत में रहने वाले सभी प्रांतों, जातियों, धर्मों के लोगों का देश है। सबके मिलजुलकर रहना है, निर्माण के काम में एक दूसरे का हाथ बटाना है। समवेत शक्ति को कोई पराजित नहीं कर सकता।

क्या हम ऐसे नेताओं की आरती उतारें जो वोट-बैंक की खातिर हमारे देश के समाज को समुदायों में बांटने का तथा उन समुदायों में नफरत फैलाने का घृणित काम करते  हैं। अलकायदा एवं भारत के विकास तथा प्रगति को अवरुद्ध करने वाली शक्तियाँ तो चाहती ही यह हैं कि भारत के लोग आपस में लड़ मरें। भारत के समाज के विभिन्न वर्गों में द्वेष-भावना फैल जाए। देश में अराजकता व्याप्त हो जाए। देश की आर्थिक प्रगति के रथ के पहिए अवरुद्ध हो जायें। मेरा सवाल है कि जो नेता अपनी पार्टी के वोट बैंक को मज़बूत बनाने की खातिर देश को तोड़ने का काम करते हैं,  वे क्या भारत-विरोधी शक्तियों के लक्ष्य की सिद्धि में सहायक नहीं हो रहे हैं।

देश को कमजोर करने तथा समाज की समरसता को तोड़ने वाले नेताओं का आचरण वास्तव में लोकतंत्र का गला घोटना है। नेताओं को यह समझना चाहिए कि दल से बडा देश है, देश की एकता है, लोगों की एकजुटता है। लोकतंत्र में प्रजा नेताओं की दास नहीं है। नेता जनता के लिए हैं, जनता के कल्याण के लिए हैं। वे जनता के स्वामी नहीं हैं; वे उसके प्रतिनिधि हैं।यह तो पढ़ा था कि राजनीति के मूल्य तात्कालिक होते हैं। उत्तराखण्ड की विनाश-लीला में भी जिस प्रकार की घिनोनी राजनीति हो रही है, उससे यह संदेश जा रहा है कि  राजनीति मूल्यविहीन हो गई है। लगता है कि नेताओं के लिए देश की कोई चिंता नहीं है,  उन्हें चिंता है तो बस किसी प्रकार सत्ता मिल जाए। मैं केवल दो बात कहना चाहता हूँ। जनता को सत्ता लोलुप लोगों को वोट नहीं देना चाहिए। दूसरी बात यह कि परम परमात्मा इन नेताओं को सद् बुद्धि प्रदान करे कि वे आत्मसात कर सकें कि दल से बड़ा देश होता है।

63 COMMENTS

  1. अंगेजी भाषा के समाचार पत्र, टाइम्ज़ ऑफ इंडिया, से लताड़े जाने के पश्चात हिंदी भाषियों से सहानुभूति की अपेक्षा में आप प्रवक्ता.कॉम पर व्यर्थ ही “बूंदी का किला”, मेरा मतलब, मोदी का किला बना उसे भेदने चले हैं| पाठकों की टिप्पणियों पर आपकी लम्बी चौड़ी अप्रासंगिक कट एंड पेस्ट प्रतिक्रियाएं अब दूभर और अहसहनीय होती जा रही है| इस से पहले कि आप मन का संतुलन पूर्णतया खो बैठें, आप श्री नरेन्द्र मोदी विरोधी अभियान के सभी लेखकों से कहें कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली क्योंकि भारत की प्रबुद्ध जनता अब जान गई है कि वास्तविक शत्रु कौन है!

    • आप का वास्तविक नाम क्या है- यह ज्ञात नहीं है। टॉइम्स ऑफ इंडिया में भी छद्म नामों से प्रहार किए गए थे। आपके टिप्पणों से यह स्पष्ट है कि आप भी उन लोगों की तरह मोदी के अंध भक्त हैं। अतिवादी एवं दुराग्रही व्यक्ति विचार बिंदु सामने नहीं रखता। दूसरे पर नीचे स्तर पर उतर कर प्रहार करने लगता है। ऐसा तभी होता है जब वह मतांध हो जाता है। ऐसे मतांध व्यक्ति से विचार-विमर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

      • मुझे जिसका भय था मैं आपकी वैसी दशा देख रहा हूँ| आप बौखला गए हैं| मेरा वास्तविक नाम पूछे बिना आपने मुझे अतिवादी और दुराग्रही शब्दों से अलंकृत किया है| मेरे गाँव में एक छोटी बच्ची हुआ करती थी| स्वयं द्वार पर दस्तक दे पूछती थी “कौन?” अब कौन अतिवादी और कौन दुराग्रही है, यह तो कोई तीसरा व्यक्ति ही बता पायेगा| देखता हूँ कि यहाँ लगभग सभी पाठक गण आपके विचार बिंदु पर अपनी टिप्पणियों द्वारा आपको यथार्थ अवस्था से अवगत करवा रहे हैं| आप सर्वसम्मति में कोई विश्वास नहीं रखते| कह दीजिए सभी अतिवादी और दुराग्रही व्यक्ति हैं| खेद इसी बात का है कि सामान्य शिष्टाचार के विपरीत आपके कपटी और क्रूर विचारों के समक्ष क्षण भर नीचे स्तर आ मैंने आपका विरोध किया है| लेकिन आपके अपावन उद्देश्य का विरोध आवश्यक ही नहीं बल्कि ऐसा करना भारत की प्रबुद्ध जनता के लिए अनिवार्य है|

        • जिस प्रकार कभी कांग्रेस में कुछ लोगों ने “इंदिरा इज़ इंडिया” का नारा लगाकर व्यक्ति पूजा की परम्परा डाली थी और लोकतंत्रात्मक दर्शन में विश्वास करने वाले लोगों ने उसकी आलोचना की थी, उसी प्रकार अब मोदी को देश के विकास के लिए एक मात्र विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। यह भारत के करोड़ों प्रतिभावान लोगों का अपमान है।

          • राष्ट्रवादी श्री नरेन्द्र मोदी विरोधी निबंध श्रृंखला में धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत निर्मल रानी के लेख, धर्मनिरपेक्षता में ही निहित है देश का विकास, पर मेरी निम्नलिखित प्रतिक्रया आपके लाभार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ| श्री प्रभु जी आपको मन की शान्ति व सद्बुद्धि दें|

            “तथाकथित स्वतंत्रता के समय से मेरी पीढ़ी “पंचपरमेश्वर” जैसी लघुकथाओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ उसका अनुसरण करती रही है| आज छियासठ वर्षों पश्चात इस पाठ की क्योंकर आवश्यकता पड़ रही है? देश विभाजन के पश्चात हिन्दू सांप्रदायिकतावाद नव भारतीय समाज का आधार होना चाहिए था| यह हिन्दू धर्म है जो अनादिकाल से अल्पसंख्यक से मत भेद होते हुए नानक, महावीर, दयानंद, व अन्य साधू संतों और उनके अनुयायिओं का आदर सम्मान करता आया है| धर्मनिरपेक्षता वास्तव में सांप्रदायिकतावाद का विलोम शब्द नहीं है बल्कि सांप्रदायिकतावाद समाज में अच्छे बुरे आचरण का बोधक है| लेखिका को पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस आचरण पर शोध व समीक्षा करनी होगी ताकि अपने इस प्रयास से कुच्छ शिक्षण प्राप्त कर सके| अंत में इस अनावश्यक लेख के संदर्भ में मैं चाहूँगा कि भारतीय जनता धर्मनिरपेक्षता के आचरण को निभाती आगामी चुनावों में राष्ट्रवादी उमीदवारों को अपना समर्थन दे|”

  2. धर्मनिरपेक्षता की आड़ में लिखा प्रस्तुत लेख श्री नरेन्द्र मोदी पर सीधा प्रहार है| मुझे खेद है कि देश में हिंदी भाषा और हिन्दुओं की वर्तमान दयनीय दशा देखते हुए लेखक न तो हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार-विकास में कोई कार्यकारी योगदान दे पाया है और न ही इस लेख को हिंदी भाषा में लिखते एक अच्छे भारतीय नागरिक की मर्यादा का पालन कर पाया है| पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वे अपना कीमती समय व्यर्थ के वाद-विवाद में न लगा श्री मोदी को अपना समर्थन दें ताकि वे सत्ता में आ धर्म, जाति, एवं सभी भेद भावों से ऊपर उठ भारतीय जन साधारण के लिए उपयुक्त कायदे कानून बना धर्मनिरपेक्षता को सही ढंग से परिभाषित कर सकें|

    • मैंने आपके मोदी की वकालत के बारे में पढ़ा। आप यदि पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं तो मेरा टिप्पण करने का कोई मूल्य नहीं है। मैंने हिन्दी के प्रचार और प्रसार के लिए कोई योगदान दिया है अथवा नहीं दिया – इसका प्रस्तुत लेख से कोई सम्बंध नहीं है। टिप्पणकार को लेख में व्यक्त विचार के बारे में लिखना चाहिए। लेख के लेखक की निन्दा करने का टिप्पणकार को अधिकार है या वह टिप्पणकार की नैतिक मर्यादा का अंग है या नहीं है – इस पर तटस्थ विचारक विचार करें – ऐसी मेरी कामना है।
      बहस विचार पर होनी चाहिए, किसी व्यक्ति को केन्द्रित कर उसके प्रचार अभियान को लेख के टिप्पण का अंग नहीं होना चाहिए।
      जिस प्रकार कभी कांग्रेस में कुछ लोगों ने “इंदिरा इज़ इंडिया” का नारा लगाकर व्यक्ति पूजा की परम्परा डाली थी और लोकतंत्रात्मक दर्शन में विश्वास करने वाले लोगों ने उसकी आलोचना की थी, उसी प्रकार अब मोदी को देश के विकास के लिए एक मात्र विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। यह भारत के करोड़ों प्रतिभावान लोगों का अपमान है। क्या भाजपा को मोदी के अलावा और कोई नज़र नहीं आता। क्या इससे राजनाथ सिंह और मोदी मिलकर अपने अलावा भाजपा के अपने से वरिष्ठ सभी नेताओं को किनारे नहीं लगा रहे हैं। क्या भारत ऐसा देश है जहाँ मोदी के अलावा बाकी सब नालायक एवं नाकाबिल हैं। क्या भारत के भविष्य का विकास चाय बेचने वाले, स्कूल की टीचरी करने वाले एवं मँहगे दामों में आटा, साबुन, क्रीम, मसाले एवं नकली शहद बेचने वाले करेंगे। भारत की प्रबुद्ध जनता का अपमान मत कीजिए। इतिहास आपको कभी माँफ नहीं करेगा।

      • यदि आप हिंदी पढ़ते पढ़ाते श्री नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीति में कूद पड़ें हैं तो मुझे कोई अचम्भा नहीं है| नमक का मोल चुकाते हैं अन्यथा तथाकथित स्वतन्त्र भारत में हिंदी भाषा की दुर्गति पर भी कोई टिपण्णी की होती| जिस अपावन व्यवस्था में आप का भविष्य “उज्जवल” रहा है उसी परिधि से ऊपर उठ प्रोफेसर योगेद्र यादव ने नए इतिहास की रचना की है! श्री नरेन्द्र मोदी इस इतिहास की अनुपम कड़ी हैं| स्वयं मेरे लिए तो यह गर्वित इतिहास है लेकिन यह इतिहास आपको कभी क्षमा नहीं करेगा|

        • हमारे समाज का ताना बाना मेल मिलाप का है, भाइचारे का है। वोट पाने के लिए जो भी हमारे समाज मे जहर घोलने का काम करता है वह देश के विकास एवं प्रगति का शत्रु है और अल कायदा जैसी नापाक ताकतों का सहायक है।

          • मूल में जाइये ‘ केवल चिकनी बातों से विद्वता मत दिखाइए . जेहादियों का सफाया ही एक मात्र शांति की स्थापना है , हाल में नरोबी और पाकिस्तान के चर्च के हमले से स्पस्ट है . जो मुस्लिम बने ही समाज को नस्ट करने के लिए हैं उनके लिए सहनुभूति रखने से क्या समयस्य का समाधान हो जायेगा. बचपन की सीख और शिछा जीवन भर मनुष्य को नहीं भूलती. मदरसों में दो बाते बचपन में शिखा दी जाती हैं . मुहम्मद को काफिरों ने यातनाएं दे दे कर मारा था, और काफ़िर तुम्हारे दुश्मन हैं इनको मरना या मुस्लिम बनाना हर मुस्लिम का फर्ज है,. बस यही ज्ञान पूरी उम्र मुस्लिम साथ लेकर चलता है. इस पर रोक लगने से ही शांति आ सकती है. आप तो कुछ समझाने से रहे आज तक कोई हिन्दू फ़िदैऎन देखा है. कितने हिंदुयों को बैम्नास्यता की सिच्छा दी जाती है . सब को बस भाई चारा सिखाया जाता है / मिटने वालों को सुधारो . सुधरे हूँऐ को मत सुधारो . जय हिन्द ,

          • राष्ट्रवादी श्री नरेन्द्र मोदी विरोधी निबंध श्रृंखला में धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत निर्मल रानी के लेख, धर्मनिरपेक्षता में ही निहित है देश का विकास, पर मेरी निम्नलिखित प्रतिक्रया आपके लाभार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ| प्रभु आपको सद्बुद्धि दें|

            “तथाकथित स्वतंत्रता के समय से मेरी पीढ़ी “पंचपरमेश्वर” जैसी लघुकथाओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ उसका अनुसरण करती रही है| आज छियासठ वर्षों पश्चात इस पाठ की क्योंकर आवश्यकता पड़ रही है? देश विभाजन के पश्चात हिन्दू सांप्रदायिकतावाद नव भारतीय समाज का आधार होना चाहिए था| यह हिन्दू धर्म है जो अनादिकाल से अल्पसंख्यक से मत भेद होते हुए नानक, महावीर, दयानंद, व अन्य साधू संतों और उनके अनुयायिओं का आदर सम्मान करता आया है| धर्मनिरपेक्षता वास्तव में सांप्रदायिकतावाद का विलोम शब्द नहीं है बल्कि सांप्रदायिकतावाद समाज में अच्छे बुरे आचरण का बोधक है| लेखिका को पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस आचरण पर शोध व समीक्षा करनी होगी ताकि अपने इस प्रयास से कुच्छ शिक्षण प्राप्त कर सके| अंत में इस अनावश्यक लेख के सन्दर्भ में मैं चाहूँगा कि भारतीय जनता धर्मनिरपेक्षता के आचरण को निभाती आगामी चुनावों में राष्ट्रवादी उमीदवारों को अपना समर्थन दे|”

      • श्रीमान या तो जनता अज्ञानी है और आसानी से झासों में आ जाती है और आप समझदार है जो इस तरह की तिकड़मों को दूर से ही समझ जाते है, तो कृपया राष्ट्र का मार्गदर्शन करें की क्या वो यूपीए-३ को चुने अथवा किसी अन्य राजनितिक दल अथवा नेतृत्व को
        किसी की व्यक्ति के व्यक्तित्व, नीति अथवा नियत की आलोचना आसान है लेकिन विकल्प सुझाना उतना आसान नहीं होता, तो आपसे अपेक्षा करता हूँ की आप जरूर कोई बेहतर विकल्प सुझायेंगे जो आलोचना से परे होगा

        • आज के राजनैतिक फलक पर जब मैं विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि प्रत्येक राजनैतिक दल में ईमानदार एवं बेइमान दोनों तरह के लोग शामिल हैं। जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले हम यह प्रण करें कि अपने अपने निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव में जितने प्रत्याशी मैदान में हों हम उनमें जो सबसे ईमानदार प्रत्याशी हो अथवा उनमें जो सबसे कम बेइमान हो उसको अपना मत प्रदान करें। हमारे देश में अमेरिका की तरह की प्रणाली नहीं है। हनारे यहाँ संसदीय प्रणाली है जहाँ निर्वाचित लोक सभा के सदस्यों का जिसको बहुमत प्राप्त होता है वह प्रधान मंत्री होता है और अपनी सरकार बनाता है। मेरा विचार या दृष्टि यही है कि सर्वप्रथम हमें ईमानदार संसद सदस्यों को चुनने पर ध्यान देना चाहिए। ईमानदार संसद सदस्यों का बहुमत अपने विवेक से जिसे चुनेगा वह निश्चित रूप से सबसे बेहतर विकल्प होगा। भारत में प्रतिभावान लोगों की कमी नहीं है। आज बेइमान लोग गुट बनाकर गंदा खेल खेल रहे हैं। भारतीय समाज में दरारें डाल रहे हैं तथा देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं। आरोप प्रत्यारोप की राजनीति बंद होनी चाहिए।

          • मैंने कहा था कि आप हिंदी पढ़ते पढ़ाते श्री नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीति में तो उतर आये हैं किन्तु आपको यह भी समझना होगा कि श्री नरेन्द्र मोदी किस वस्तु के विकल्प के रूप में लोकप्रिय हैं|

          • आपके मतानुसार हमें संविधान संशोधन करके दलीय लोकतंत्र को ख़त्म करना होगा, सो आप ऐसा उपाय बता रहे जो अभी होना संभव नहीं, मेरे सवाल को टाल गए की क्या यूपीए-३ को चुना जाये

          • श्रीमान,

            आपकी हिंदी बहुत अच्छी है. और लगता है .. की आप उस पर आत्ममुग्ध हो वही लेख के अंश हर किसी जवाब में पेस्ट कर रहे हैं…आपकी जवाब कतई भी तथ्यपरक नहीं हैं… बस उपदेशों से भरे हैं…. जो की आज के समाज में बिल्कुल भी सामंजस्य नहीं बनाते| एक भाई तो थप्पड़ मारता रहता है.. और यह उसकी प्रवत्ति में शामिल है.. उसे सिखाया ही ऐसा गया है.. और आप दूसरे भाई से अपने उपदेश में कह रहे हैं… “ऐसा नहीं करते, भाईचारा करते हैं, मिल कर रहते हैं, समाज को और भाईचारे को ख़तम किया जा रहा है”… क्या आप सिक्षा दे रहे हैं दूसरे भाई को कायर बनने की और अपने अंत के इंतज़ार करने की? अरे साहब, … मरखना बैल आ रहा है भाग जाईये या अपनी रक्षा करने को डंडा उठा लीजिये… उपदेशों से काम नहीं चलेगा…

            आसाराम जी भी उन दिल्ली के बलात्कारियों को उपदेश देने, और “भाई” बुलाने को कह रहे थे… क्या उस दशा वैसा होना संभव था? क्या वे बलात्कारी उपदेशों से मान जाते… ??

            “जय श्री राम” बोलो “वन्दे मातरम” और “भारत मत की जय” ..!!

            क्या हुआ? आप एक बार भी नहीं बोलते “वन्दे मातरम” और “भारत मत की जय” ……

    • मैं भारत की जनता से अपील करता हूँ कि आगामी चुनाव में ईमानदार, राष्ट्र के विकास एवं प्रगति के लिए समर्पित एवं भारतीय समाज की एकजुटता में विश्वास करने वाले प्रत्याशियों को वोट प्रदान करें। साम्प्रदायिक ताकतें भारतीय समाज में नफरत फैलाने का काम कर रहीं हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी एवं भारत की प्रगति एवं विकास की विरोधी ताकतें तो चाहती ही यह हैं कि भारतीय समाज की एकजुटता खंडित हो जाए। आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता। जो लोग हिन्दू आतंकवादी अथवा मुसलमान आतंकवादी जैसे वाक्यांशों का प्रयोग करते हैं वे जाने अनजाने भारत विरोधी ताकतों के हाथ मजबूत कर रहे हैं।आतंक एवं धर्म अथवा दहशतगर्द एवं मजहब परस्पर एकदम विपरीतार्थक हैं। इस कारण वे भारतीय समाज की एकजुटता को तोड़ने वाली ताकतों को पाजित करें।

      • महावीर भाई, आपके मूंह में घी शक्कर! यदि हम मोदी अथवा केजरीवाल नहीं बन पाते हैं, अवश्य ही हम अनुयायी की मर्यादा में रह बिना किसी भय अथवा संशय के संगठित हो उन्हें अपना समर्थन कयों नहीं देते? यदि भारतीय जनसमूह में सांप्रदायिक मनोवृति के अल्पसंख्यक नागरिक हैं तो उन्हें कुशल कानून और उनके उचित प्रवर्तन द्वारा सुधारा जा सकता है| वर्तमान शासकीय व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय समाज को विभाजित कर राष्ट्रद्रोही तत्व सत्ता में पूर्ण रूप से स्थापित, समाज और देश को खोखला किये जा रहे हैं| भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतर्गत फिरंगी के लिए “भारत छोडो” अभियान चला था, अब भारतीय रंग रूप के इन राष्ट्रद्रोहियों को भारत छोड़ कहाँ भेजें? हमारे स्वयं के चरित्र में सुकृत परिवर्तन द्वारा अशोक खेमका, विनोद राय, अरविन्द केजरीवाल, विजय कुमार सिंह, अथवा दुर्गा शक्ति नागपाल जैसा सच्चाई व न्यायसंगत व्यक्तित्व होना अति आवश्यक है| यदि “हिन्दू” शब्द पाश्चात्य परिभाषित धर्म नहीं बल्कि जीवन में आचरण को संबोधित करता है तो उस आचरण के उचित पालन अर्थात हिंदुत्व के संस्कारों से लाभान्वित व प्रभावित हमें भारत व भारतीयों के विकास व उन्नति के लिए एकजुट राष्ट्रद्रोही तत्वों को उखाड़ फैंकने का संकल्प लेना होगा| आज के दूषित वातावरण में इस संकल्प की प्रस्तावना श्री नरेन्द्र मोदी जी को हमारे समर्थन से प्रारंभ करनी होगी| मुझे विश्वास है कि आप इस बिंदु विचार से सहमत हैं|

        • आपसे निवेदन है कि आप मेरे आलेख को दुबारा पढ़ने की कृपा करें। श्री लक्ष्मी मल्ल सिंघवी के साथ विचार विमर्श में इस मुद्दे पर बात को विस्तारपूर्वक विवेचित किया जा चुका है। इसे आत्मसात करने का प्रयास करें। हमारे यहाँ धर्म शब्द का प्रयोग होता था। उसके पूर्व कोई विशेषण नहीं जोड़ा जाता था। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता, वेदांत, साख्य, योग, वैशेषिक, न्याय ग्रंथों का पहले अध्ययन करें। तब शायद आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी।

          • मैंने आपका लेख पढ़ा है और लेख और उस पर पाठकों की टिप्पणियों पर आपकी प्रतिक्रिया में आपके उद्देश्य को भी प्रतक्ष्य देखा समझा है| आज उपभोक्तावाद और वैश्विकता के युग में “धर्म” शब्द के पूर्व विश्लेषण जोड़ना अति आवश्यक हो गया है| आपकी भावभीनी भावना “आगामी चुनाव में ईमानदार, राष्ट्र के विकास एवं प्रगति के लिए समर्पित एवं भारतीय समाज की एकजुटता में विश्वास करने वाले प्रत्याशियों को वोट प्रदान करें” के साथ अपने समझौते में पूर्णतया संतुष्ट इस वाद-विवाद को अब विश्राम देता हूँ| वन्दे मातरम्|

          • भारत में धर्म के पहले कभी भी कोई विशेषण नहीं जुड़ता था। विशेषण जुड़ने से धर्म भेदक हो जाता है। सम्प्रदाय हो जाता है। पंथ हो जाता है।

      • आप कहते हैं, कि,===>”मैं भारत की जनता से अपील करता हूँ कि आगामी चुनाव में ईमानदार, राष्ट्र के विकास एवं प्रगति के लिए समर्पित एवं भारतीय समाज की एकजुटता में विश्वास करने वाले प्रत्याशियों को वोट प्रदान करें।”
        ——————————————————————————————————————
        ====>मेरे मत में, ऐसी प्रधान मंत्री पदके लिए सर्वथा योग्य एक ही व्यक्ति है। नरेंद्र मोदी। और कोई हो, तो बताने की कृपा करें।
        मात्र, विरोध ना करें। पर्याय सुझाएं।

  3. एक ही बात…

    “परस्पर सहयोग, प्रेम, सहिष्णुता हमारी जीवन पद्धति की आधार भित्ति है।”

    ये.. क्या फखत हिंदुयों के लिए है? और धर्मों का कोई दायित्व नहीं है… ??

    कहाँ है सहिष्णुता व हिंदू धर्म के लिए सम्मान… ?? … सिर्फ अहंकार और नीचा दिखाने की कोशिश होती है..

    आप कितने हिंदू लड़कों को जानते हैं जिन्होंने मुस्लिम लड़कियों से शादी की ?… और हम देखते है की लव जेहाद के अनुसार हिंदू लड़कियों को बरगला कर मुस्लिम धर्म में परिवर्तित किया जाता है… येही है प्रेम का स्वरुप??

    क्या आप तैयार हैं तो जैन धर्म को भी एक दिन ऐसा ही भुगतना पड़ेगा…..

    • धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलाल अथवा ठेकेदार अध्यात्म सत्य को भौतिकवादी आवरण से ढकने का बार-बार प्रयास करते हैं । इन्हीं के कारण चित्त की आन्तरिक शुचिता का स्थान बाह्याचार ले लेते हैं । पाखंड बढ़ने लगता है । कदाचार का पोषण होने लगता है । जब धर्म का यथार्थ अमृत तत्व सोने के पात्र में कैद हो जाता है तब शताब्दी में एकाध साधक होते हैं जो धर्म-क्रान्ति करते हैं। धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अधार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का प्रहार कर, उसके यथार्थ स्वरूप का उद्घाटन करते हैं । इस परम्परा में ही रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानन्द आते हैं। इस परम्परा के अध्यात्म साधकों के जीवन चरित का अध्ययन करने पर यह सहज बोध होता है कि आत्मस्वरूप का साक्षात्कार अहंकार एवं ममत्व के विस्तार से सम्भव नहीं है। अपने को पहचानने के लिए अन्दर झाँकना होता है, अन्तश्चेतना की गहराइयों में उतरना होता है। धार्मिक व्यक्ति कभी स्वार्थी नहीं हो सकता। आत्म-गवेषक अपनी आत्मा से जब साक्षात्कार करता है तो वह एक को जानकर सब को जान लेता है, पहचान लेता है, सबसे अपनत्व-भाव स्थापित कर लेता है।
      विवेकानन्द धार्मिक सामंजस्य एवं सद्भाव के प्रति सदैव सजग दिखाई देते हैं।विवेकानन्द ने बार-बार सभी धर्मों का आदर करने तथा मन की शुद्धि एवं निर्भय होकर प्राणी मात्र से प्रेम करने के रास्ते आगे बढ़ने का संदेश दिया। उनके इन विचारों को आत्मसात करने के लिए उनकी निम्न सूक्तियाँ उद्धरणीय हैं :
      “प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप, दुराचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी। उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष, निरन्तर संघर्ष! पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो — सारा धर्म इसी में है”।
      “बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है”।
      अलकायदा जैसी शक्तियों को निर्मूल करने के लिए भारतीय समाज की एकजुटता जरूरी है।

      • न तो इतनी पुस्तके लिखी हैं और आपकी भांति योग्य भी नहीं.. .. इसलिए आपकी सोच पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाने की गलती सकता….. परन्तु सर आप क्या कहना चाहते हैं… वो कतई भी साफ़ नहीं है… यह भाषा दोष है, उलझे विचार या मेरा अज्ञान इसे भी समझ नहीं पा रहा हूँ …

        पर मेरे अनुसार (जो की आपके विचारों को प्रभावित करने के लिए नहीं) पुस्तकों-लेखों का प्रकाशन आदमी की मानसकिता का आईना हो या उसकी कथनी और करनी में अंतर को साबित न करता हो ऐसा भी नहीं..

        दिल मिलाने से पहले, हाथ मिलाने के लिए दो हाथ चाहिए… इसमें एक हाथ अपना और एक दुसरे का होना चाहिए… अपने ही तो हाथ मिलाने का क्या लाभ…? हिन्दूओ को ही क्यों आप सभी महानुभाव धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा रहे हैं… अरे!! हिंदुत्व की तो रग- रग में धर्मनिरपेक्षता, सर्व-समभाव है …तभी तो यहाँ भारत में इतने अक्रान्ता, लुटेरे, व्यापारी और विभिन्न धर्मों के लोग आये और अपना रोब गाठने में सफल हुए … आप का रिकॉर्ड की सुई एक ही जगह पर अटक गयी है.. “धर्मनिरपेक्षता” पर यह है किसके लिए? मात्र हिन्दुओं के लिए? मोदी के आप विरोधी है… क्योंकि अटल जी ने उन्हें राजधर्म का पालन करने को कहा था… तो क्या इसका मतलब अटलजी ने उन्हें अपराधी घोषित किया था?? राजधर्म का पालन हताहतों और घायलों को न्याय और मदद देना भी तो होता है… या आपका मतलब जैसा कि अभी मुज़फ्फरनगर में गाँधी परिवार एवं मौन प्रधानमंत्री जी ने केवल मुसलमानों को सांत्वना दे कर किया न कि अन्य प्रभावित हिन्दू जाटों को (ये ही आपका धर्मनिरपेक्षता है?, लानत है!! ), बीजेपी के नेताओं को फंसा कर गिरफ्तार क्या जा रहा था और रहा है… जबकि सपा के आका गाँधी परिवार, नेता आदि प्रभावित क्षेत्र में खुले आम जा रहे हैं… इसी धर्मनिरपेक्षता कि बात आप करते हैं??? मोदी (चाय वाले, शहद बेचने वाले) के अतिरिक्त आपके विचार से किसे आप सड़क से प्रधानमंत्री तक पहुंचा सकते हैं?? … कृपया बताये …

        सारे पाठ जिन्हें आप पढ़ाने कि कोशिश कर रहे हैं वो… हजारों वर्षों पुराने हिंदुत्व कि ही देन हैं… जिन्हें अन्य धर्मों को सीख अपना कर गले लगाने कि ज़रुरत हैं… जिस दें वे ये सीख जायेंगे… धर्म निरपेक्षता अपने आप आ जाएगी…

        बोलो “वन्देमातरम ..भारत मत कि जय”

        • भारत आज विश्व की उभरती हुई ताकत है। हमें भारतीय समाज की एकता को मजबूत करना होगा। तभी हम और आगे बढ़ सकते हैं और हमारे नेताओं ने भारत के सम्बंध में जो स्वप्न देखे थे उनको पूरा कर सकते हैं। इसके लिए देश में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने वालों को जड़ से उखाड़ फेंकना जरूरी है। अल कायदा जैसी ताकतें तो चाहती हीं यह हैं कि हमारी एकता कमज़ोर हो जाए। हमें उनके मन्सूबों को और इरादों को ध्वस्त करना है। आशा है, आप मेरी सोच एवं विचारों को बोधगम्य कर सकेंगे। मैंने सीधी सादी भाषा में अपनी बात कहने की कोशिश की है। अटल जी ने हमेशा इसी कारण सोशल इंजीनियरिंग की वकालत की और राजधर्म के पालन करने पर जोर दिया। राजसत्ता को समाज के सभी सदस्यों को लेकर चलना होगा और बिना भेद भाव के इंसाफ करना होगा। इसी कारण धर्म निरपेक्षता संवैधानिक मूल्य है। आप मूल आलेख को तटस्थ भाव से दुबारा पढ़ने और उस पर मनन करने की कोशिश करेंगे – इसी भावना के साथ आपने मेरे सम्बंध में जो सकारात्मक बातें कहीं हैं उनके लिए आपको धन्यवाद। श्री लक्ष्मी मल्ल सिंघवी जी बड़े मनीषि और चिंतक थे। अटल जी और वे परस्पर मित्र थे। अटल जी ने उन्हें आप्रवासी भारतीयों से सम्बंध सूत्र स्थापित करने के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी। उसका उन्होंने सार्थक निर्वाह किया। अगर हमें बड़ा बनना है तो हमें अपनी सोच भी बड़ी बनानी होगी। कितने मुसलमान हैं जिन्होंने देश भक्ति के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का ताना बाना मेल मिलाप का है, भाइचारे का है। वोट पाने के लिए जो भी हमारे समाज मे जहर घोलने का काम करता है वह देश के विकास एवं प्रगति का शत्रु है और अल कायदा जैसी नापाक ताकतों का सहायक है।

          • “कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का ताना बाना मेल मिलाप का है, भाइचारे का है। ”
            कृपया मार्गदर्शन करें की गीता का उपदेश क्या था, क्यों श्रीकृष्ण ने दो भाइयों को आपस में लड़ाया अगर दुर्योधन का चरित्र अच्छा नहीं था तो युधिष्ठिर कौन से दूध के धुले थे, जो व्यक्ति जुआड़ी था यहाँ तक की सभी भाई मिलकर जुए में अपनी पत्नी तक को हार गए ऐसे लोगो का साथ देने का क्या औचित्य था
            कृपया भाईचारे की व्याख्या तय कीजिये जिन मुसलमानों ने देश को बाँट दिया और न केवल देश को बांटा बल्कि उन देशों में हिन्दुओं का जातीय सफाया कर दिया, ऐसी नसीहतों के पीछे तथ्य भी होने चाहिए मनमोहन सिंह की तरह कोरे उपदेशों से कुछ नहीं होगा

      • Due to mishandling of text converter the Hindi was not typed appropriately… Here is the corrected version:

        माननीय, मैंने न तो इतनी पुस्तके लिखी हैं और आपकी भांति मैं योग्य भी नहीं.. .. इसलिए आपकी सोच पर प्रश्न चिन्ह लगाने की गलती नहीं कर सकता….. परन्तु सर आप क्या कहना चाहते हैं… वो कतई भी साफ़ नहीं है… यह भाषा दोष है, उलझे विचार या मेरा अज्ञान इसे भी मैं समझ नहीं पा रहा हूँ …

        पर मेरे अनुसार (जो की आपके विचारों को प्रभावित करने के लिए नहीं)अनेकों पुस्तकों-लेखों का प्रकाशन आदमी की मानसकिता का आईना हो या उसकी कथनी और करनी में अंतर को साबित न करता हो ऐसा भी नहीं..

        हाथ मिलाने के लिए पहले दिल मिलने चाहिए, और… इसमें एक हाथ अपना और एक दुसरे का होना चाहिए… अपने ही दो हाथ मिलाने का क्या लाभ…? हिन्दूओ को ही क्यों आप सभी महानुभाव धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा रहे हैं… अरे!! हिंदुत्व की तो रग- रग में धर्मनिरपेक्षता, सर्व-समभाव है …तभी तो यहाँ भारत में इतने अक्रान्ता, लुटेरे, व्यापारी और विभिन्न धर्मों के लोग आये और अपना रोब गाठने में सफल हुए … आपके रिकॉर्ड की सुई एक ही जगह पर अटक गयी है.. “धर्मनिरपेक्षता”, पर यह है किसके लिए? मात्र हिन्दुओं के लिए? मोदी के आप विरोधी है… क्योंकि अटल जी ने उन्हें राजधर्म का पालन करने को कहा था… तो क्या इसका मतलब अटलजी ने उन्हें अपराधी घोषित किया था?? राजधर्म का पालन हताहतों और घायलों को न्याय और मदद देना भी तो होता है… या आपका मतलब जैसा कि अभी मुज़फ्फरनगर में गाँधी परिवार एवं मौन प्रधानमंत्री जी ने केवल मुसलमानों को सांत्वना दे कर किया न कि अन्य प्रभावित हिन्दू जाटों को (ये ही आपका धर्मनिरपेक्षता है?, लानत है!! ), बीजेपी के नेताओं को फंसा कर गिरफ्तार क्या जा रहा था और रहा है… जबकि सपा के आका गाँधी परिवार, नेता आदि प्रभावित क्षेत्र में खुले आम जा रहे हैं… इसी धर्मनिरपेक्षता कि बात आप करते हैं??? मोदी (चाय वाले, शहद बेचने वाले) के अतिरिक्त आपके विचार से किसे आप सड़क से प्रधानमंत्री तक पहुंचा सकते हैं?? … कृपया बताये …

        सारे पाठ जिन्हें आप पढ़ाने कि कोशिश कर रहे हैं वो… हजारों वर्षों पुराने हिंदुत्व कि ही देन हैं… जिन्हें अन्य धर्मों को सीख अपना कर गले लगाने कि ज़रुरत हैं… जिस दिन वे ये सीख जायेंगे… धर्मसापेक्षता (निरपेक्षता) अपने आप आ जाएगी…

        बोलो “वन्देमातरम ….भारत माता की जय”

        • सही कहा!
          धर्मनिरपेक्षता हिंदु, जैन, बौद्ध इ. की ही देन है।
          पाकीस्तान में, या बंगलादेश में कितनें धर्म-निरपेक्ष हैं?

          • आप सनातन परिस्थिति की ओर संकेत करते हैं लेकिन लेखक का सविराम इतिहास तो केवल फिरंगी और उसके उपरान्त फिरंगी द्वारा १८८५ में ऊपजी भारतीय राष्ट्रीय कांगेस तक ही सीमित है| जब कभी लेखक को स्वयं अपने व “डॉटकॉम पोस्टर बोय्ज़” राजेश जैन एवं बी.जी. महेश के बीच समानता समझ आ जायेगी तो भद्र दिखने वाले इस हिपोक्रिटिक लेखक को कबीर का दोहा, “बुरा जो देखण मैं चला, बुरा ना मिलया कोए; जो मन खोजा आपणा तो मुझसे बुरा ना कोए” याद हो आएगा और लेखक को कभी चाय बेचने एवं स्कूल की टीचरी करने वाले और इतालवी वेट्रस में समानता व अंतर स्वत: स्पष्ट हो जायेंगे| ऐसी स्थिति में निर्मल मन, लेखक धर्मनिरपेक्षता का अद्भुत ज्ञान प्राप्त कर छोटे बड़े सभी भारतियों को सम्मान की दृष्टि से देख पायेगा|

          • साम्प्रदायिक ताकतें भारतीय समाज में नफरत फैलाने का काम कर रहीं हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी एवं भारत की प्रगति एवं विकास की विरोधी ताकतें तो चाहती ही यह हैं कि भारतीय समाज की एकजुटता खंडित हो जाए। आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता। जो लोग हिन्दू आतंकवादी अथवा मुसलमान आतंकवादी जैसे वाक्यांशों का प्रयोग करते हैं वे जाने अनजाने भारत विरोधी ताकतों के हाथ मजबूत कर रहे हैं।आतंक एवं धर्म अथवा दहशतगर्द एवं मजहब परस्पर एकदम विपरीतार्थक हैं। धर्म अहिंसा, उदारता, सहिष्णुरता, उपकारिता एवं परहित के लिए त्याग सिखाता है जबकि आतंकवाद हिंस्रता,उग्रता एवं कट्‌टरता, नृशंसता, क्रूरता एवं गैर लोगों का संहार करना सिखाता है। मज़हब नेकचलनी सिखाता है; दहशतगर्दी वहशीपन सिखाता है। मज़हबी रहमदिल होता है; दहशतगर्द बेरहम होता है। मज़हबी मोमदिल होता है; दहशतगर्द पत्थरदिल होता है। मज़हबी बंदानवाज़ होता है; दहशतगर्द ज़ल्लाद होता है। मज़हबी हमदर्द और मेहरबान होता है; दहशतगर्द वहशी और दरिंदा होता है। मज़हबी सादिक होता है; दहशतगर्द दोज़खी होता है।
            जब धर्म /मजहब का यथार्थ अमृत तत्त्व आतंकवादियों के हाथों में कैद हो जाता है तब धर्म/मजहब के नाम पर अधार्मिकता एवं साम्प्रवदायिकता का जहर वातावरण में घुलने लगता है। धर्म /मजहब धर्म की रक्षा के लिए धर्म युद्‌ध / जे़हाद के नारे भोले भाले नौजवानों के दिमाग में साम्प्रदायिकता एवं उग्रवादी आतंक के बीजों का वपन कर उनको विनाश, विध्वंनस, तबाही, जनसंहार के जीते जागते औज़ार बना डालते हैं।
            कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को यदि मिटाना है, निर्मूल करना है तो धर्माचार्यों को धर्म /मजहब के वास्तोविक एवं यथार्थ स्वनरूप को उद्‌घाटित करना होगा, विवेचित करना होगा, मीमांसित करना होगा। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि यदि चित्त में राग एवं द्वेष है, मेरे तेरे का भाव है तो व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तेरात्मा में होता है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर उसका वास है, इस कारण अपने अन्दर झाँकना चाहिए, अन्दर की आवाज सुनना चाहिए तथा अपने हृदय अथवा दिल को आचारवान, चरित्रवान, नेकचलन एवं पाकीज़ा बनाना चाहिए। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार सम्भव नहीं है। क्या किसी ‘परम सत्ता’ एवं हमारे बीच किसी ‘तीसरे’ का होना जरूरी है ? क्या अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वार /अल्लाह के सामने शरणागत होना अध्यात्म साधना है ? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसरिक इच्छा ओं की पूर्ति में निहित है ? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्‌देश्य से आराध्य की भक्ति करना धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है ? क्या् स्नान करना, तिलक लगाना, माला फेरना, आदि बाह्य आचार की प्रक्रियाओं को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है ? धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेष रहित होने में है ? धर्म का रहस्यर संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व्, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्यग, आदि के आचरण में ?
            मैं फिर कहना चाहता हूँ कि जो वोट बटोरने के लिए हमारे समाज में नफरत फैला रहे हैं, वे भारत के शत्रु हैं।

        • साम्प्रदायिक ताकतें भारतीय समाज में नफरत फैलाने का काम कर रहीं हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी एवं भारत की प्रगति एवं विकास की विरोधी ताकतें तो चाहती ही यह हैं कि भारतीय समाज की एकजुटता खंडित हो जाए। आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता। जो लोग हिन्दू आतंकवादी अथवा मुसलमान आतंकवादी जैसे वाक्यांशों का प्रयोग करते हैं वे जाने अनजाने भारत विरोधी ताकतों के हाथ मजबूत कर रहे हैं।आतंक एवं धर्म अथवा दहशतगर्द एवं मजहब परस्पर एकदम विपरीतार्थक हैं। धर्म अहिंसा, उदारता, सहिष्णुरता, उपकारिता एवं परहित के लिए त्याग सिखाता है जबकि आतंकवाद हिंस्रता,उग्रता एवं कट्‌टरता, नृशंसता, क्रूरता एवं गैर लोगों का संहार करना सिखाता है। मज़हब नेकचलनी सिखाता है; दहशतगर्दी वहशीपन सिखाता है। मज़हबी रहमदिल होता है; दहशतगर्द बेरहम होता है। मज़हबी मोमदिल होता है; दहशतगर्द पत्थरदिल होता है। मज़हबी बंदानवाज़ होता है; दहशतगर्द ज़ल्लाद होता है। मज़हबी हमदर्द और मेहरबान होता है; दहशतगर्द वहशी और दरिंदा होता है। मज़हबी सादिक होता है; दहशतगर्द दोज़खी होता है।
          जब धर्म /मजहब का यथार्थ अमृत तत्त्व आतंकवादियों के हाथों में कैद हो जाता है तब धर्म/मजहब के नाम पर अधार्मिकता एवं साम्प्रवदायिकता का जहर वातावरण में घुलने लगता है। धर्म /मजहब धर्म की रक्षा के लिए धर्म युद्‌ध / जे़हाद के नारे भोले भाले नौजवानों के दिमाग में साम्प्रदायिकता एवं उग्रवादी आतंक के बीजों का वपन कर उनको विनाश, विध्वंनस, तबाही, जनसंहार के जीते जागते औज़ार बना डालते हैं।
          कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को यदि मिटाना है, निर्मूल करना है तो धर्माचार्यों को धर्म /मजहब के वास्तोविक एवं यथार्थ स्वनरूप को उद्‌घाटित करना होगा, विवेचित करना होगा, मीमांसित करना होगा। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि यदि चित्त में राग एवं द्वेष है, मेरे तेरे का भाव है तो व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तेरात्मा में होता है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर उसका वास है, इस कारण अपने अन्दर झाँकना चाहिए, अन्दर की आवाज सुनना चाहिए तथा अपने हृदय अथवा दिल को आचारवान, चरित्रवान, नेकचलन एवं पाकीज़ा बनाना चाहिए। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार सम्भव नहीं है। क्या किसी ‘परम सत्ता’ एवं हमारे बीच किसी ‘तीसरे’ का होना जरूरी है ? क्या अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वार /अल्लाह के सामने शरणागत होना अध्यात्म साधना है ? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसरिक इच्छा ओं की पूर्ति में निहित है ? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्‌देश्य से आराध्य की भक्ति करना धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है ? क्या् स्नान करना, तिलक लगाना, माला फेरना, आदि बाह्य आचार की प्रक्रियाओं को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है ? धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेष रहित होने में है ? धर्म का रहस्यर संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व्, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्यग, आदि के आचरण में ?
          मैं फिर कहना चाहता हूँ कि जो वोट बटोरने के लिए हमारे समाज में नफरत फैला रहे हैं, वे भारत के शत्रु हैं।

  4. The word secular has a different meaning in India by Indian politicians and it means anti Hindu if you care to study the developments since independence under Nehru and the Nehru-Gandhi dynasty.
    They have used, abused, misused to humiliate and degrade Hinduism and Hindus and whatever related to Hindus.
    The ghost of secularism was introduced in Indian constitution in 1976 by Mrs. Indira Priyadashani Nehru- Gandhi -Khan to destroy the roots of Hindus and this is being shamelessly defended by so called secularists- pseudo seculars who do not know the meaning of the word secularism.
    Secularism is destroying India and under the umbrella of secularism they are destroying their own roots.
    India is secular only because of Hindu majority and it will change over night when Hindus would be in minority as we see in Pakistan, Bangladesh and other 56 Muslims nations.

    • दुराग्रह का कोई उत्तर देना समय एवं श्रम का अपव्यय है। इस सम्बंध में मेरे अतिरिक्त श्री आर. सिंह अपने दिनांक १५ जुलाई के टिप्पण में तथा मेरे मित्र एयर वाइस मॉर्शल (सेवानिवृत्त) विश्व मोहन तिवारी विस्तार से इस विषय पर विचार व्यक्त कर चुके हैं। यदि कोई यह कहता है कि धर्मनिरपेक्षता संवैधानिक मूल्य नहीं है तो कहावत है कि अज्ञान में आनन्द है। फिर तो कोई बहस हो ही नहीं सकती। भारत देश की महानता यह है कि यह विविध धर्मों, भाषाओं, जातियों, संस्कृतियों का देश है। इसको आत्मसात करें।

      • विश्व मोहन तिवारी जी व आर सिंह जी द्वारा धर्मनिरपेक्षता पर प्रस्तुत टिप्पणियों में संतुलित व निष्पक्ष दृष्टिकोण की ओर ध्यान बंटा लेखक यहाँ बड़ी धूर्तता से अपने लेख में श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रति संशय व भ्रम को फैलाने के घिनौने उद्देश्य से अपने हाथ धोते दिखाई देता है|

    • YOU SAID IT RIGHT SIR…. ONE CANT LEAVE ITS NATURAL BEHAVIOR, LIKE ISLAM HAS TO RULE OTHERS. BUT THESE PSEUDO SECULAR ARE DESTROYING THEIR ROOTS. WISE PEOPLE TAKE LESSEN FROM THE PAST BUT SOME ARE BORN TO REPEAT IT AGAIN AND AGAIN, AND GET THEIR DIGNITY DOWN SHAMELESSLY.

      THESE ARE NOT READY TO TAKE LESSON FROM THE PAST OR HISTORY.

      ALL SHOULD PEEK INTO THE INSIDE STORY OF INDIRA, NEHRU FAMILY. NO ONE SHOULD RELATE THEM GANDHI THEN…

  5. 1. “जिस प्रकार “लोकतंत्र” संवैधानिक जीवन मूल्य है उसी प्रकार “धर्मनिरपेक्ष” संवैधानिक जीवन मूल्य है।”

    2. “मैं केवल दो बात कहना चाहता हूँ। जनता को सत्ता लोलुप लोगों को वोट नहीं देना चाहिए। दूसरी बात यह कि परम परमात्मा इन नेताओं को सद् बुद्धि प्रदान करे कि वे आत्मसात कर सकें कि दल से बड़ा देश होता है।”

    डा. जैन के उपरोक्त दो कथनों से तो शायद ही कोई असहमत हो।मैं तो पूर्ण सहमत हूं।
    उनके इन कथनों को सिद्ध करने की शैली या उदाहरणों से असहमति हो सकती है।
    जब वे यही दो बातें कहना चाहते हैं तब इन दो बातों के लिये डा. जैन् नरेन्द्र मोदी पर क्यों आक्रमण कर रहे हैं, यह तर्क संगत तो नहीं लगता।क्या नरेन्द्र मोदी समर्थकों की तरह ही उनला एजैंडा मोदी‌पर आक्रमण करना तो नहीं ? मोदी को वे अयोग्य सिद्ध करने का प्रयास करते नज़र आते हैं, किन्तु उनके स्थान पर वे कोई सुझाव नहीं देते, क्यों ?
    इस संवाद में एक बात जो अधिक महत्वपूर्न है वह है ‘धर्म निरपेक्षता’ की परिभाषा। इसी पर वाद संवाद और विवाद हो रहा है।
    इसकी परिभाषा स्वयं डा जैन ने दी है (जो उनके ही कथन के आधार पर श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी‌जी ने स्वीकार की थी.) डा. जैन की परिभाषा है : ” इसका अर्थ है कि लोकतंत्रात्मक देश में हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का समान अधिकार है मगर शासन को धर्म के आधार पर भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। शासन को किसी के धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। इसका अपवाद अल्पसंख्यक वर्ग होते हैं जिनके लिए सरकार विशेष सुविधाएँ तो प्रदान करती है मगर व्यक्ति विशेष के धर्म के आधार पर सरकार की नीति का निर्धारण नहीं होता। उन्होंने ( श्री सिंघवी जी)मेरी बात से अपनी सहमति व्यक्त की।” सिंघवी जी की सहमति का उतना महत्व नहीं है जितना कि ‘क्या शासन डा. जैन् की परिभाषा को स्वीकार करता है ?’ मुझे तो लगता है कि नहीं।
    इस से आगे जाएं तो दिखता है कि शासन तो धर्मनिरपेक्ष शब्द को महत्व नहीं देता, वह तो ‘सैक्युलर’ शब्द को ही‌ मानता है।और, एक मानक परिभाषा के अभाव में सैकुलर शब्द के अर्थ भिन्न दल भिन्न मानते हैं, जिसका पूरा लाभ शासन उठाता रहता है।
    महत्वपूर्न बात यह है कि शासन की समझ में ‘सैक्युलर’ शब्द का क्या अर्थ है , शासन ने इसे शायद ही‌कभी स्पष्ग्ट किया हो ।संविधान में इस महत्वपूर्ण शब्द की परिभाषा होना चाहिये, किन्तु जहां तक मेरी‌जानकारी है, यह परिभाषा नहीं दी गई है।बहुत सारे विवाद इसी‌ कारण हैं। शासन के व्यवहार से लगता है कि उसकी सैक्युलर की परिभाषा (डा जैन के वाक्य से मिलती जुलती‌है किन्तु पूरीनहीं)‌ है – अपवादों का उपयोग अपवाद केस्तर पर ही होना चाहिये, किन्तु शासन के व्यवहार से ऐसा नहीं दिखता। शासन के व्यवहार से लगता है कि उसके लिये सैक्युलर की
    परिभाषा है : “अल्पसंख्यक वर्ग के लिए सरकार को विशेष सुविधाएँ प्रदान करना ही है, और इसी आधार पर सरकार की नीति का निर्धारण होता है”।
    शासन के लिये जब कोई शब्द महत्वपूर्ण है तब उसकी परिभाषा अनिवार्य होना चाहिये, विशेषकर कि जब वह शब्द या उसकी अवधारणा ही आयातित हो, और सुनिश्चित न हो। क्या शासन अपनी इस त्रुटि का विशेष लाभ नहीं उठा रही है ?

    • सम्मान्य विश्व मोहन तिवारी जी
      मैं आपका आभारी हूँ जो आपने मेरी मूल स्थापनाओं के प्रति अपनी सहमति प्रकट की। मैं किसी सरकार या किसी राजनैतिक दल का न तो प्रवक्ता हूँ और न सदस्य। मैंने टॉइम्स ऑफ इंडिया में विगत दिनों अंग्रेजी में एक टिप्पण किया था जिसका भाव केवल यह था कि मैं नरेंद्र मोदी के बारे में कोई टिप्पण नहीं करना चाहता। मेरे इस टिप्पण पर मोदी की डिजीटल पेड टीम के लगभग ४० सदस्यों ने तोबड़तोड़ हमले किए तथा अमर्यादित एवं अभद्र टिप्पणियाँ कीं। मेरे लेख में इस बात की प्रतिक्रिया थी कि टीम के सदस्यों ने धर्म निरपेक्षता को अमान्य एवं गर्हित ठहराने की कोशिश की थी। मुझे तो जाने दीजिए, उन दिनों टीम के सदस्यों ने भाजपा के सबसे वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी पर अशोभनीय टिप्पणियाँ की थीं। लोकतंत्र में, मैं इस प्रवृत्ति का समर्थन नहीं कर सकता। मैंने सरकार की नीति का हमेशा समर्थन किया हो, ऐसा नहीं है।जब सरकार के कुछ लोगों ने भगवा आतंक अथवा हिन्दू आतंक का नामकरण करने की कोशिश की थी, मैंने इसका विरोध किया था। मैंने लिखा थाः
      “आतंक एवं धर्म परस्प र एकदम विपरीतार्थक हैं। दहशतगर्द एवं मजहब बरअक्स हैं। धर्म अहिंसा, उदारता, सहिष्णुेता, उपकारिता एवं परहित के लिए त्या्ग सिखाता है जबकि आतंकवाद हिंस्रता,उग्रता एवं कट्‌टरता, नृशंसता, क्रूरता एवं गैर लोगों का संहार करना सिखाता है। मज़हब नेकचलनी सिखाता है; दहशतगर्दी वहशीपन सिखाता है। मज़हबी रहमदिल होता है; दहशतगर्द बेरहम होता है। मज़हबी मोमदिल होता है; दहशतगर्द पत्थगरदिल होता है। मज़हबी बंदानवाज़ होता है; दहशतगर्द ज़ल्ला्द होता है। मज़हबी हमदर्द और मेहरबान होता है; दहशतगर्द वहशी और दरिंदा होता है। मज़हबी सादिक होता है; दहशतगर्द दोज़खी होता है”।
      जैसा मैंने आतंक को धर्म के साथ जोड़कर देखने का विरोध किया था उसी प्रकार मैं राष्ट्रीयता को भी धर्म के साथ जोड़कर प्रतिपादित करने के विचार से सहमत नहीं हूँ।राष्ट्रीयता देश के प्रति प्रेम है। राष्ट्रीयता देश के प्रति भक्ति है। धर्म अथवा मजहब अपने आराध्य अथवा उपास्य के प्रति श्रद्धा है। भारत के लोगों के अपने-अपने अलग-अलग आराध्य हैं जिनकी संख्या हजारों में है।
      जब वोट बटोरने की खातिर कुछ साम्प्रदायिक ताकतें धर्म/मजहब के नाम पर समाज को बाँटने का काम करने लगते हैं तो समाज के वातावरण में अधार्मिकता एवं साम्प्रेदायिकता का जहर घुलने लगता है। धर्म /मजहब की रक्षा के लिए धर्म युद्‌ध / जे़हाद के नारे भोले भाले नौजवानों के दिमाग में साम्प्रसदायिकता एवं उग्रवादी आतंक के बीजों का वपन कर उनको विनाश, विध्वंस, तबाही एवं संहार के जीते जागते औज़ार बना डालते हैं। धर्म अथवा मजहब को वोट बटोरने का साधन या जरिया नहीं बनाया जाना चाहिए।

  6. This problem is connected with the 1300 years long history of slavery of India. How Mahatmas are named and their contribution propagated. Gandhi’s relation with Maniben and others made him Mahatma as well as due to his service in British Imperial army as sergeant major. Indian Freedom history concocted many myths about Nehru and Gandhi. Why British left India, at what cost Nehru got power? Why Indira gandhi (itrafaros) named herself Gandhi? Please search the true and impartial history you will get the answer.

    Rename secularism for glorious history of slavery of Muslim & British of long 1300 years?

  7. This problem is connected with the 1300 years long history of slavery of India. How Mahatmas are named and their contribution. Gandhi’s relation with Maniben and others made him Mahatma or his service in British Imperial army as sergeant major. Indian Freedom history concocted many myth about Nehru and Gandhi. Why British left India, at what cost Nehru got power? Why Indira gandhi (itrafaros) named herself Gandhi? Please search the true and impartial history you will get the answer.

      • सिंह साहब,

        आर्यजी ने अपने उस लेख में, जिसका आप लिंक भेज रहे हैं लिखा है — “भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप भी तभी जिंदा रहता माना जाता है जब राम और कृष्ण को कोसा जाए या रामायण और महाभारत को तो काल्पनिक माना जाए और मुस्लिम सुल्तानों के पापों को भारत के लिए पुण्य सिद्घ करने का प्रयास किया जाए। पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने तो इस प्रकार की एक राजाज्ञा ही जारी कर दी थी कि मुस्लिम शासकों के कार्यों को भारतीयों के हित में सिद्घ किया जाए। ”

        आज का सच है.. और इसको हमारे कुछ कमजोर, अपने को देव हृदयी घोषित करने वाले, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हिन्दू ही बढ़ावा देते हैं… जिन्हें न तो हिन्दुओं के इतिहास से, सांस्कृतिक पतन से लेना देना है.. न अपने आने वाले भविष्य की चिंता.. हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता को संरक्षित करता है… पर एक धर्म चाटुकारिता को नहीं… पर हो तो ऐसा ( इस्लाम चाटुकारिता) ही हो रहा है … और इसको हिन्दू ही क्योंकि उनको धर्मनिरपेक्षता का तमगा अपने ढीले सीने पर लगा देखना चाहते हैं… उन्हें मतलब नहीं है इस्लाम के वर्चस्ववादी इतिहास और क्रूरता से… जिसके उदाहरण आज कितने ही हिन्दू कश्मीर और अन्य हिस्सों में काफ़िर की तरह रहने को मजबूर हैं…कितने ही हिन्दू आज इस्लाम में हो (बलात धर्म परिवर्तन) कर उसको पोषित करने को विवश हैं.. .. पर याद रखना होगा… इतिहास स्वयं को दोहराता है… और कुछ पूर्वजो की गलतियों को आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पडता है… … कहीं ये तमगे वाले हिन्दू ऐसा ही तो नहीं कर रहे???..

    • kashi ayoudhya mathura what you have to say about them?You and others are the product of British India. Mugal empire Afghan&Path-an rule, invasion of Gori & Gazni, what you have to say about qutubminar and slave dynasty?There are more than 120 non secular countries in the World. When British made Hindustan and Pakistan why converted Hindustan as a secular country.

      JAB HA-MARE BHAGWAN HI KAID HO AP KEISE KAHATE HAIN HUM AZAD HAIN

      • मेरे विचार और आपके विचार इतने अलग हैं कि किसी तरह के वाद विवाद की गुंजाइश ही नहीं. मैं हिदू के देवताओं ,जिनकी मूर्तियाँ मंदिरों में स्थापित हैं,उनके प्रति श्रद्धा और भारत राष्ट्र के प्रति प्रेम को एक नहीं मानता और न भारत माता की चितेरे के हाथ चित्रित काल्पनिक तस्वीर को भारत राष्ट्र का प्रतीक.

  8. जब गुजरात में नरसंहार की घटनाएँ हुईं थीं, अटल जी वहाँ गए थे। उस समय टी. वी. के सभी चैनलों ने अटल जी के वक्तव्य को बार-बार प्रसारित किया था। मेरी स्मृति इतनी कमजोर नहीं हुई है कि मैं उस अपने कानों से सपनी हुई वाणी को भूल जाऊँ। जिस ट्यूब को आपने सुनने के लिए आग्रह किया है, वह ट्यूब असली नहीं है। नरेंद्र मोदी ने “डॉटकॉम पोस्टर बॉय्ज़” राजेश जैन एवं बी. जी. महेश की टीम के द्वारा बनाई गई है। इनकी ओर मैंने अपने लेख के आरम्भ में संकेत किया है। मैंने भाषा-विज्ञान पर काम किया है और डी. लिट्. एवं पी.-एच. डी. के शोधकों से कराया है। मैं जानता हूँ कि विधेयात्मक वाक्य को निषेधात्मक वाक्य में कैसे बदला जाता है। आप लगता है, नरेंद्र मोदी के भक्त हैं। मैं किसी व्यक्ति या पार्टी का भक्त नहीं हूँ। मेरे लिए दल से बड़ा देश है।जिन व्यक्तियों ने भाजपा का निर्माण किया, उनमें देश निर्माण के लिए काम करने की भावना थी। उनके अपने आदर्श थे। उनकी निष्ठा संदेह के परे थी। उनके जीवन में त्याग भावना थी। जिस प्रकार कभी कांग्रेस में कुछ लोगों ने “इंदिरा इज़ इंडिया” का नारा लगाकर व्यक्ति पूजा की परम्परा डाली थी और लोकतंत्रात्मक दर्शन में विश्वास करने वाले लोगों ने उसकी आलोचना की थी, उसी प्रकार अब मोदी को देश के विकास के लिए एक मात्र विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। यह भारत के करोड़ों प्रतिभावान लोगों का अपमान है। क्या राजनाथ सिंह को मोदी के अलावा और कोई नज़र नहीं आता। वे क्या इससे उत्तर-प्रदेश में अपने अलावा भाजपा के अपने से वरिष्ठ सभी नेताओं को किनारे नहीं लगा रहे हैं। क्या भारत ऐसा देश है जहाँ मोदी के अलावा बाकी सब नालायक एवं नाकाबिल हैं। क्या भारत के भविष्य का विकास चाय बेचने वाले, स्कूल की टीचरी करने वाले एवं मँहगे दामों में आटा, साबुन, क्रीम, मसाले एवं नकली शहद बेचने वाले करेंगे। भारत की प्रबुद्ध जनता का अपमान मत कीजिए। इतिहास इनको कभी माँफ नहीं करेगा। मोदी ऐसा दिखाते हैं, जैसे गुजरात के विकास का सारा श्रेय केवल उनको है। मैं लाल कृष्ण आणवाडी जी के इस आकलन से सहमत हूँ कि भाजपा ने जब नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजा था, गुजरात पहले से विकसित था। मैंने अमेरिका में गुजरातियों की मेहनत, निष्ठा, कर्तव्यभावना को जाना पहचाना है। मोदी जिस प्रकार का प्रचार कर रहे हैं वह भारत के १३० करोड़ लोगों का तो अपमान है ही, यह मेरे गुजरात के भाइयों का भी अपमान है। भाजपा में मेरे अनेक मित्र हैं। मोदी भाजपा का फायदा कर रहे हैं अथवा कांग्रेस को लाभ पहुँचा रहे है – यह विचारणीय है। मैं फिर दोहराना चाहता हूँ कि मुझे न तो भाजपा के प्रति अंध भक्ति है और न कांग्रेस के प्रति लगाव है। हमें देखना चाहिए कि हमारा देश मजबूत बने। देश कैसे मजबूत बनेगा।बोधगया के बौद्ध मंदिर में आतंकवादी घटना के तत्काल बाद राज नाथ सिंह ने अपना प्रिय वक्तव्य दोहरा दिया कि वर्तमान सरकार आतंकवादी घटना से निबटने में सक्षम नहीं है। वे भूल जाते हैं कि आतंकवादी घटना संसार में हर जगह हो रहीं हैं और फिर भाजपानीत सरकार के दौरान तो संसद भवन पर भी आतंकवादी हमला हुआ था और मोदी की नाक के नीचे अहमदाबाद के अक्षरधाम मंदिर भी आतंकवादी घटना से अछूता नहीं रहा। मैं फिर दोहराना चाहता हूँ कि आतंकवादी घटना होने के बाद राजनीति नहीं होनी चाहिए, आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति नहीं होनी चाहिए। सबको एकजुट होकर इसका मुकाबला करना चाहिए।
    जब चीन ने हमारी सीमाओं का अतिक्रमण किया, हमारे कुछ नेताओं ने फतवा ज़ारी कर दिया की चीन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाए। उस समय मैंने टिप्पण किया था कि दल से बड़ा देश है। हमें देश के भविष्य को ध्यान में रखकर, कदम उठाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, हमें युद्ध नहीं; निर्माण के रास्ते का वरण करना चाहिए। देश की जनता को बिजली चाहिए, पानी चाहिए, सड़कें चाहिएँ, सुरक्षा चाहिए। चीन का सामना कैसे करना है, इसका निर्धारण भारत सरकार के विदेश मंत्रालय को करने दीजिए। इस विषय पर सरकार के निर्णय का इंतजार करना चाहिए। यदि टेबल पर बैठकर वार्ता से समस्या का समाधान हो सकता है तो वह कदम देश के लिए हितकर होगा। बिना जाने-समझे तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए। युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए। युद्ध बच्चों का खेल नहीं है। अपनी हैसियत और तैयारियों का आकलन किए बिना भावावेश में आकर युद्ध की घोषणा करना उचित नहीं होगा। हमें देखना होगा कि चीन की सीमाओं से लगने वाले क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछा है अथवा नहीं बिछा है। युद्ध के समस्त संसाधनों का तुलनात्मक आकलन करना होगा। जब अपनी मजबूत स्थिति सुनिश्चित हो जाए तभी युद्ध करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।
    कुछ नेता तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ करने की कला के बाज़ीगर हैं। देश में निराशा, हताशा, असुरक्षा का वातावरण निर्मित करने में उन्हें मज़ा आता है। वे संवेदनात्मक दोष से ग्रसित हैं। जब सत्ता में होते हैं तो उन्हें देश चमकता हुआ नज़र आता है। सत्ता छिनते ही उन्हें चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा नज़र आता है। यदि चीन की सीमाओं से लगने वाले क्षेत्रों में सड़कों का जाल नहीं बना है, आवागमन के साघनों की कमी है तो इसकी उत्तरदायी केवल वर्तमान सरकार ही नहीं है, इसके लिए वे सब सरकारें उत्तरदायी हैं जिन्होंने विगत 20-25 वर्षों सें शासन की बागडोर सम्भाँली। मैं दोहराना चाहता हूँ कि सबको एकजुट होकर देश के विकास के मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए।
    आज का युवा जागरूक है, सजग है। सब देख रहा है। उसे नारे नहीं चाहिए। काम चाहिए। देश को अतीत की तरफ नहीं, भविष्य की तरफ देखना चाहिए। हमें अपने हाथों अपने देश का भविष्य बनाना है। यह आपस में लड़कर नहीं, सबको मिलजुलकर काम करने से ही सम्भव है। यह भारत देश है। भारत में रहने वाले सभी प्रांतों, जातियों, धर्मों के लोगों का देश है। सबके मिलजुलकर रहना है, निर्माण के काम में एक दूसरे का हाथ बटाना है। समवेत शक्ति को कोई पराजित नहीं कर सकता।

    • आ. प्रो. जैन साहब-

      प्रश्न (१)कांग्रेस के, लाख प्रयासों के उपरान्त भी, जो आरोप आज तक प्रमाणित ही नहीं हुआ, उसी को सच कैसे मान लें?
      प्रश्न (२) क्या वर्चस्ववादी आदर्श वाला इस्लाम = सर्व समन्वयवादी आदर्श पर खडा हिन्दू धर्म ? क्या यही कुतर्क सर्वधर्म समभाव की संकल्पना का भी मूल है? वर्चस्ववाद को पुष्ट नहीं कर रहे हैं, आप?
      प्रश्न (३) यदि संविधान ही कुतर्क पर खडा है, तो उसके विषय में सचेत करना, आप जैसे विद्वान का कर्तव्य नहीं?
      सादर –बिन्दुवार संक्षिप्त उत्तर आपका समय बचाएगा।

      अटलजी ने भी जो प्रचार हुआ होगा, उसे ही सच मानकर कुछ कहा हो सकता है।

      • आपके प्रश्नों का बिन्दुवार उत्तरः
        (1) यह आरोप नहीं है, हकीकत है। अनुभूत तथ्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। अटल जी को क्या आप इतना अबोध मानते हैं कि उन्होंने सुनी-सुनाई बातों पर यकीन कर लिया होगा। आप कांग्रेस को बीच में लाकर चर्चा के विषय को राजनैतिक क्यों बना रहे हैं। मैं किसी राजनैतिक दल का प्रवक्ता नहीं हूँ। मैं यह स्पष्ट कर चुका हूँ। मैं आपसे सैद्धांतिक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। भारत एक सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है या इसमें भी आपको कोई संदेह है। आप गम्भीर चिंतक हैं। आपको पूर्वाग्रह रहित होकर विचार करना चाहिए। देश की दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के आचरण एवं करनी-कथनी के अंतराल के कारण, देश की जनता में नेताओं एवं राजनैतिक व्यवस्था के प्रति अवहेलना, उपेक्षा, तिरस्कार एवं नफरत के भाव बढ़ते जा रहे हैं। जनता के मन में यह विश्वास मज़बूत होता जा रहा है कि देश के नेताओं को देश से अधिक, सत्ता पर काबिज़ होने की चिंता है। इन दलों के नेतृत्व को यह सोचना चाहिए कि क्षेत्रीय दलों का प्रभाव क्यों बढ़ता जा रहा है। उनका वर्चस्व क्यों घटता जा रहा है। आज वस्तुतः प्रत्येक पार्टी के नेता को आत्म-मंथन करने की जरूरत है। कुछ तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ तत्त्वतः क्षेत्रीय होकर रह गई हैं।
        (2) मैंने “विश्व चेतना एवं सर्व धर्म समभाव” विषय पर एक ग्रंथ की रचना की थी जिसका प्रकाशन सन् 1966 में वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा हुआ था। लगे हाथ, मैं आपको इस तथ्य से अवगत कराने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि इस ग्रंथ का कहीं से पारायण करने के बाद विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंहल ने दिनांक 15 मई, 2000 को मुझे केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पते पर एक पत्र भेजा था जिसमें उन्होंने यह स्वीकार किया था कि उन्होंने मेरी पुस्तक का अध्ययन किया और मेरे द्वारा पुस्तक में दी गई भारतीय दृष्टि के महत्व को स्वीकार किया था। (याद रखेः भारतीय दृष्टि के महत्व को न कि हिन्दू दृष्टि के)। डॉ. अनूप सिंह ने विगत चालीस-पचास वर्षों के दौरान देश-विदेश के गुरुजनों, सहयोगी-प्राध्यापकों, मित्रों एवं शिष्यों के द्वारा मुझे लिखे गए पत्रों में से चयनित पत्रों का संग्रह संपादित एवं प्रकाशित किया है। उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक का शीर्षक हैः “ महावीर सरन जैनः पत्रों के दर्पण में”। अशोक सिंहल का उक्त पत्र संदर्भित पुस्तक के पृष्ठ 20 पर प्रकाशित है। भारत में अनेक धर्मों, जातियों, प्रजातियों, संस्कृतियों के लोग रहते हैं। मैं भारतीय समाज में रहने वाले अलग-अलग धर्मों के अनुयायियों के बीच नफरत के बीजों का वपन करने वाले किसी भी व्यक्ति का समर्थन नहीं कर सकता। जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का छात्र था, मेरी मुलाकात यूनिवर्सिटी के तत्कालीन रजिस्ट्रार श्री कन्हैया लाल गोविल जी के घर पर रज्जू भैया से होती थी। गोविल साहब मेरे पिता जी के मित्र थे। मेरे पिता जी ने मुझे गोविल साहब के कारण इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एम. ए. और डॉक्टरेट की पढ़ाई करने के लिए भेजा था। रज्जू भैया की नियुक्ति इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में गोविल साहब के कारण हुई थी। मैं विश्वविद्यालय का छात्र था, रज्जू भैया विश्वविद्यालय के अध्यापक थे। मगर एक चीज़ हमारे बीच समान थी। हम दोनों गोविल साहब को चाचा जी कहते थे। उनसे हुई बातों को यहाँ अभिव्यक्त नहीं करना चाहता। यह अवांतर हो जाएगा। इस बात का संकेत मैंने केवल इस कारण किया है कि मैं भाजपा एवं राष्ट्रीय संघ का कभी सदस्य तो नहीं रहा मगर मेरी पहचान इनके शीर्षस्थ लोगों से रही है। भाजपा में आरम्भ से दो तरह के लोग रहे हैं। एक उदारवादी, प्रगतिशील, सहिष्णु, खुले दिमाग वाले, पूर्वाग्रहहीन एवं भारत की सामासिक संस्कृति को स्वीकारने वाले। दूसरी तरह के वे लोग रहे हैं जो कट्टरवादी, अनुदार, हठी, बंद दिमाग वाले, रूढ़िवादी, अपने विचारों से असहमत होने वालों के प्रति अमानवीय व्यवहार करने वाले एवं उन्हें आतंकित करने वाले। पहले वर्ग का प्रतिनिधि चेहरा अटल बिहारी वाजपेयी का माना जा सकता है। दूसरे वर्ग का प्रतिनिधि चेहरा गुजरात के मोदी का है। भाजपा के नए नए नौसिखिए नेतृत्व को यह निश्चित करना है कि भविष्य की भाजपा को किस मार्ग पर ले जाना चाहता है। अटल बिहारी वाजपेयी के रास्ते पर अथवा गुजरात के मोदी के रास्ते पर। भारत का प्रधान मंत्री वही हो सकता है जिसे केन्द्रीय सरकार को चलाने का अनुभव हो। एक राज्य का नेता भारत का नेता नहीं हो सकता। भारत का प्रधान मंत्री तो वही हो सकता है जो भारत के हर भाग के प्रत्येक धर्म, जाति, प्रजाति, वर्ग के लोगों के लिए स्वीकार्य हो। भाजपा में से भारत के केन्द्र की सरकार का नेता आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, सुषमा स्वराज्य तथा जेटली जैसे लोगों में से कोई एक हो सकता है। जिसने कभी भारत के बाहर जाकर बाकी की दुनिया देखी ही नहीं, गुजरात के अतिरिक्त जो जहाँ प्रचार करने गया वहाँ भाजपा की लुटिया ही डुबा दी, उत्तराखण्ड की त्रासदी में भी जिसे केवल गुजरातियों की ही चिंता रही, उसे भाजपा का भावी चेहरा निरूपित करने का मतलब होगा कि राजनाथ जैसे नौसिखिया भाजपा को केवल गुजरात तक सिमटा देना चाहते हैं। जो राजनाथ उत्तर प्रदेश को नहीं सम्भाल सके, वे देश को क्या दिशा दे सकते हैं। जो पार्टी कभी अपने अनुशासन के लिए प्रसिद्ध थी, जिसकी पहचान “ए पार्टी विद ए डिफरेंस” के रूप में होती थी, जिसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, लालकृष्ण आडवाणी जैसे व्यक्ति थे, आज उसकी क्या हालत हो गई है – इस पर आप भावुकता में आकर नहीं अपितु तथ्यात्मक विचार करें। लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच उतनी नहीं है, जितनी नरेन्द्र मोदी और भाजपा के वरिष्ठ लोगों के बीच है। आप अमेरिका में रहते हैं। इंटरनेट पर नरेंद्र मोदी के पक्ष में वातावण बनाने में रात-दिन काम करने वाली टीम के सदस्यों के टिप्पण पढ़कर अपना मानस निर्मित करते हैं। सम्भवतः आपको जमीनी हकीकत का अहसास नहीं है। सर्वधर्म समभाव के लिए जरूरी है कि हम धर्म के पहले जुड़ने वाले विशेषण को महत्व न दें अपितु केवल धर्म को महत्व प्रदान करें। जब ऐसा करेंगे तो हिन्दू या मुस्लिम के नजरिए से नहीं देखेंगे। इसी विचार एवं दर्शन का समर्थन स्वामी विवेकानन्द करते हैं। यदि आप मेरे इस विचार से सहमत नहीं हैं तो मैं स्वामी विवेकानन्द की तत्सम्बंधी शताधिक सूक्तियों को उद्धृत कर सकता हूँ। सम्प्रति, स्वामी विवेकानन्द को योग प्रवर्तक पंतजलि का जो सूक्ति वचन पसंद था, उसे उद्धृत कर रहा हूँ –
        “जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म-मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह परमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदनुरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसी का प्रचार करना है। जगत में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय कोई भी किंचित् अंश में प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता”।
        पतंजलि के नाम से धंधा करने वालों को स्वामी विवेकानन्द के उपर्युक्त उद्धृत वचन को आत्मसात करना चाहिए। परम परमात्मा से विनय है कि आजकल के पाखंडी उपदेशकों को सद् बुद्धि प्रदान करे। मैंने अनेक टिप्पणों में पढ़ा है जिसमें लिखा गया है कि नरेंद्र मोदी ने स्वामी विवेकानन्द के रास्ते पर चलने के लिए कहा है। कहना और आचरण करना एक नहीं हैं। कुछ लोग जो कहते हैं, उसके विपरीत आचरण करते हैं। ऐसे लोगों के लिए गौतम बुद्ध ने कहा थाः

        बहुंपि चे संहितं भासमानो,न तक्करो होति नरो पम्मतो।
        गोपो व गावो गणयं परेसं,न भागवा सामञ्ञस्स होति।
        चाहे कितनी ही संहिताओं का उच्चारण करे, जो उसके अनुसार आचरण नहीं करता, वह दूसरों की गायों को गिनाने वाले ग्वाले की भाँति संयासीपन का भागी नहीं होता।
        भावार्थ भी समझा दूँ।जिस प्रकार केवल दूसरों की गायों को चराने वाला ग्वाला गायों का स्वामी नहीं हो जाता, वैसे ही केवल धर्मग्रंथों की अच्छी-अच्छी बाते कहने वाला व्यक्ति श्रेष्ठजन नहीं होता।
        (3) भारत के संविधान का जिन विभूतियों ने निर्माण किया, वे भारत के मनीषी विद्वान एवं प्रातिभ व्यक्ति थे। भारत के संविधान की इज्जत दुनिया भर के संविधानविद् करते हैं। अच्छा हो, यदि कुतर्क की उपाधि देने के पहले आप भारत के संविधान का जिन लोगों ने निर्माण किया उन सबके नामों पर दृष्टिपात करलें। मैं इस विषय पर फिलहाल इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्पित सपूतों का और उनकी प्रतिभा का अनादर नहीं करना चाहता। इतना दुस्साहस मुझमें नहीं है।

        • आ. जैन साहब -आप कह रहें हैं;
          —>(1) “यह आरोप नहीं है, हकीकत है। अनुभूत तथ्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।”
          —————————————————————————————————-
          मेरा प्रतिप्रश्न —–>अनुभूति आपकी आपको, वैयक्तिक मान्यता की स्वतंत्रता देती है, परंतु दूसरा भी उसे तब मान सकता है, जब आप अपनी मान्यता को प्रमाणित करें।
          प्रमाण से ही, आपकी मान्यता “सार्वजनिक – तथ्य” हो सकती है।
          बिना प्रमाण, आपका उत्तर वैयक्तिक मान्यता ही है।
          सादर —

          • प्रिय मधु सूदन जी
            आपने तीन प्रश्नों पर मुझसे बिंदुवार उत्तर माँगे थे। मैंने आपकी अपेक्षा के अनुरूप तीनों प्रश्नों का बिंदुवार उत्तर दिया था। आपका केवल एक बिंदु पर मेरे उत्तर के सम्बंध में प्रतिउत्तर मिला है। लगता है, आप अन्य दो बिंदुओं पर मेरे द्वारा दिए गए उत्तर से सहमत हैं। आपकी इस सदाशयता के लिए आपको साधुवाद।
            एक बिंदु पर आपका प्रतिउत्तर निम्न हैः
            आ. जैन साहब -आप कह रहें हैं;
            —>(1) “यह आरोप नहीं है, हकीकत है। अनुभूत तथ्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।”
            —————————————————————————————————-
            मेरा प्रतिप्रश्न —–>अनुभूति आपकी आपको, वैयक्तिक मान्यता की स्वतंत्रता देती है, परंतु दूसरा भी उसे तब मान सकता है, जब आप अपनी मान्यता को प्रमाणित करें।
            प्रमाण से ही, आपकी मान्यता “सार्वजनिक – तथ्य” हो सकती है।
            बिना प्रमाण, आपका उत्तर वैयक्तिक मान्यता ही है।
            सादर —
            आपके प्रतिउत्तर देने के पूर्व, मैं भी आपसे तीन प्रश्न पूँछना चाहता हूँ। इनका बिंदुवार उत्तर देने की कृपा करें –
            (1) आप मानने में और जानने में अंतर मानते हैं या नहीं। यदि दोनों में अंतर मानते हैं तो कृपया यह स्पष्ट करें कि दोनों के अंतर की आपकी अवधारणा क्या है।
            (2) जब गुजरात में नर संहार हुआ था और भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री माननीय अटल जी गुजरात गए थे और उन्होंने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में जन सभा में राजधर्म के बारे में जो वक्तव्य दिया था और जिसको टी. वी. के सभी चैनलों ने दिखाया था और जिसकी भारत की हर भाषा के समाचार पत्रों ने रिपोर्टिंग की थी, क्या आपने अपनी आखों एवं कानों से टी. वी. चैनलों के द्वारा दिखाए गए अटल जी के वक्तव्य को देखा और सुना था या नहीं और यह भी कि आपने तत्कालीन समाचार पत्रों में प्रस्तुत रिपोर्टिंग को पढ़ा था या नहीं। अगर आपने अपनी आँखों से देखा था और अपने कानों से सुना था और आप मेरी बात को प्रमाणित नहीं मान रहे हैं तो आपको पूर्व में पूछे गए अपने तीन प्रश्नों के बाद यह जोड़ने की जरूरत क्यों पड़ी कि “अटलजी ने भी जो प्रचार हुआ होगा, उसे ही सच मानकर कुछ कहा हो सकता है”।
            (3) आप देश को ज्यादा महत्व देते हैं या दल विशेष को। यदि आपकी प्रतिबद्धता दल विशेष या व्यक्ति विशेष के प्रति है तो फिर मेरे और आपके बीच किसी तरह के संवाद होने की कोई प्रासंगिकता या प्रयोजनशीलता नहीं रह जाएगी। इस स्थिति में आपको उत्तर देने की भी जरूरत नहीं है।

          • आ. जैन साहब -नमस्कार
            (१)आपका दृष्टि बिन्दु परिपूर्णता का है, मेरा सापेक्षता का है।
            मुझे आज की परिस्थिति में नरेन्द्र भाई के सिवा कोई पर्याय दिखाई नहीं देता। बिलकुल ही नहीं।
            गुजरात में बहुत बदलाव आए हैं। सुमित्रा गांधी कुलकर्णी ने भी साक्षात्कार दिया था और गुजरात की बदली हुयी स्थिति की प्रशंसा ही की थी।
            रेल जलने का मूल कारण भी आपने दृष्टि-आड ही कर दिया है। अहिंसावादी गांधी का गुजरात, जैन और वैष्णवों की प्रचुर संख्या वाला सहिष्णु गुजरात यदि क्रोधित हुआ, तो क्यों?
            जिसमें ५८ लोग जले, चीखते रहे, उनका आक्रंदन भी कल्पा नहीं जाता।उसे उपेक्षित नहीं कर सकता।
            (२)नए विडियो में, अटलजी का भी मत बदला हुआ दिखाई देता है। समय समय की जानकारी अलग होगी। मुझे नया विडियो भी (कुछ निरीक्षण-परीक्षण के बाद) -गलत नहीं लगता। छाया दोनोपर पडती है। कृत्रिम विडियो में ऐसा नहीं हो सकता। ये नया विडियो है।
            (३) गांधी जी ने भी अपने बदलते मतों के विषय में लिखते हुए कहा है, (हिंस स्वराज ) की इन्ट्रोडक्शन में, कि जो मत नई तारीख में प्रकाशित है, उसे पुराने की अपेक्षा सही माना जाए।
            (४)मैं गांधीवादी परिवार में जन्मा, पर संघ शाखामें मैं ने संस्कार पाया है। वहाँ राष्ट्र को संघसे भी अधिक निष्ठा की बात स्वयं गुरुजी ने कही हुयी जानी है।बाहर रहा अवश्य हूँ, पर सोते जागते भी भारत ही विचार में होता है। संघवालों ने ही कई प्रकल्प चलाए हुए हैं–उसी में लगे रहते हैं-गिलहरी का ही योगदान, कोई गर्व नहीं करता।
            जब श्याम रूद्र पाठक के काम को जाना, तो नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सका।

            आदर सहित ही, चर्चा को और बढाना सही नहीं लगता।
            वंदे मातरम।

    • Jain sahib 1947 to till today how many riots took place, Sikh genocide and horror created in Congress rule,and Hindus are still third grade citizen in their own country,why?IF Nehru created Hindustan or Gandhi brought Swaraj when British fled away by his AHIMSA???

  9. आज धरम निरपेक्षता को राजनीतिज्ञों ने सत्ता पाने व अपने विपक्षी को बदनाम करने का एक मात्र हथकंडा बना लिया है.शायद संविधान की इस विषय में भावना व अवधारणा को वे समझना ही नहीं चाहते.इसलिए लगता है कि उन्होंने इस शबद का दुरूपयोग कर ,इसे मजाक बना दिया है.और यह भी कि वे केवल एक धरम के पक्ष में बोल कर व बहुधरमियों कि उपेक्षा कर अपना फर्ज निभा रहें हैं.वास्तव में इन्होने समाज को बाँटने का इंतजाम कर दिया है.

  10. प्रो.जैन का कथन वैसे तो अस्पष्ट है की वो कहना क्या चाहते हैं?हाँ,दो बातें मुझे समझ आयीं.एक, देश दल से बड़ा होता है.दो,उत्तराखंड की विनाश लीला में भी घिनोनी राजनीती की गयी है.मोदीजी ने अपने एकाधिक वक्तव्यों में ये स्पष्ट किया है की उनके लिए भारत मत की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है. और उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है देश सबसे पहले.अगर किसी को इसमें कोई गलत बात नजर आती है तो उसका दृष्टिदोष ही कहा जा सकता है.स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था की अगले डेढ़ सौ वर्षों तक सब देवी देवताओं को बंद करके केवल भारत मत की ही आराधना करें.यही बात अगर मोदी जी कहते हैं तो कहाँ गलत है?उत्तराखंड के सन्दर्भ में कल (जुलाई १४) टाईम्स ऑफ़ इण्डिया ने एक स्पष्टीकरण पकाशित करके इस बात पर खेद प्रगट किया की उनके द्वारा मोदी जी को रेम्बो बताते हुए १५००० लोगों को निकल ले जाने का समाचार २३ जून को प्रकाशित किया था. जबकि समाचार देने वाले उत्तराखंड के प्रवक्ता अनिल बलूनी द्वारा कभी भी न तो मोदी को रेम्बो बताया गया और न ही ये कहा गया था की उन्होंने १५००० लोगों को बचाया है. अलबत्ता ये अवश्य कहा गया था की उन्होंने लगभग १५००० लोगों को विभिन्न प्रकार की यथा,भोजन,वस्त्र, यातायात,दवाएं आदि की सहायता अपनी टीम के जरिये दी गयी थी.गलत समाचार प्रकाशन को आधार बनाकर कुछ राजनीतिक प्रवक्ताओं ने रेम्बो, मुगेम्बो और न जाने क्या क्या नाम उन्हें दे दिए और टीवी चेनलों ने भी लम्बी चर्चाएँ प्रसारित कर डाली. लेकिन अब जब स्वयं टाईम्स ऑफ़ इण्डिया ने खंडन व खेद प्रगट किया है तो किसी चेनल ने उसे दिखाने का कष्ट नहीं किया.
    एक बात और.संविधान के निर्माताओं ने संविधान में मूल रूप से न तो ‘सेकुलर’ और न ही ‘सोसीअलिस्ट’ शब्द रखे थे बल्कि ये दोनों शब्द कुख्यात इमरजेंसी के समय लोकतंत्र का गला घोटकर श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा संविधान की प्रस्तावना में शामिल किये गए थे.जिन्हें बाद में इंदिरा गाँधी को हराकर सत्ता में आने वाली जनता पार्टी की सरकार ने यथावत बने रहने दिया.
    वैसे भी संविधान सभा का गठन किसी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई संविधान सभा द्वारा नहीं किया गया था. और इसमें बहुत सी खामियां आज भी बनी हुई हैं इसी कारण संविधान में सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं.आज कहा जा रहा है की सेकुलर का अर्थ है ‘सर्व धर्म सम भाव’.हिन्दुओं के अतिरिक्त क्या और कोई इसे मानता है?कुछ दशक पूर्व तत्कालीन पॉप भारत आये थे और मुंबई में देश के राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उनसे भेंट करके ये आग्रह किया था की भारत में सभी धर्मों का आदर किया जाता है.अतः वो सहिष्णुता और सर्व धर्म सम भाव का सन्देश अपने अनुयायियों को दे दें.पॉप ने स्पष्ट कहा की वो सहिष्णुता का सन्देश तो दे सकते हैं लेकिन अपने अनुयायियों को सर्व धर्म सम भाव का सन्देश कैसे दे सकते हैं क्योंकि उनका तो काम ही इसाईयत को अन्य धर्मों से श्रेष्ट बताने का है.ये तो केवल हम हिन्दू मानते हैं की पूरे विश्व में केवल एक ही सर्वोच्च सत्ता है. हम ही तो कहते हैं की “एकं सद विप्रः बहुधाम वदन्ति”सत्य एक ही है. विद्वान् लोग उसे अलग अलग नामों से बुलाते हैं.

  11. प्रोफ़ेसर जैन की प्रस्तुति उनकी विद्वता के अनुरूप है. मैं बार बार कहता हूँ कि धर्म निरपेक्षता हमारी संस्कृति का अंग है. यह भारत कि संस्कृति ही है,जहां नास्तिकों को भी हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता. यह कोई आवश्यक नहीं है कि हम ईश्वर के एक या अनेक रूपों की पूजा अर्चना करें. आवश्यक है हमारा चरित्र और सात्विक व्यवहार. बौध धर्म में ईश्वर नहीं है,पर चरित्र निर्माण और सात्विकता है..
    धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना भारतीय प्रखण्ड में न केवल एक ईश्वर बल्कि सर्व अस्तित्व की महत्वपूर्ण एकता के कारण गुंजायमान था. “एकम सत विप्र बहुधा वदंति”. परम सत्य एक ही है, पर अवास्तविक भिन्नता के कारण बहुत दिखता है. ऋग्वेद घोषित करता है कि पूजा की विभिन्न पद्धतियाँ उसी प्रकार एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती हैं, जैसे अलग-अलग नदियाँ एक ही महासागर में विलीन होती है. गीता इसकी पुष्टि करता है कि हर प्रकार की पूजा परमात्मा तक पहुँचने का सही रास्ता है. लेकिन सत्य धार्मिक कर्मकांड के कोहरे से ढँका हुआ है.
    धर्म आध्यात्मिकता का बाहरी आवरण है. इसका अंत आध्यात्मिकता में होता है. ‘आत्मानम विधि’ या स्वयं का ज्ञान, इस देश का आदर्श था. कर्म कांड, धर्म की परंपरा और अनुशासन हमे आत्मा की एकता का स्वर्गिक बोध देता है.
    एक सार्वभौमिक धर्म का स्वप्न देखते हुए, विवेकानंद ने घोषणा की थी, “हमलोग मानवों को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न कोई वेद हो, न कोई बाइबल और क़ुरान हो,फिर भी इसको सब धर्मों के पवित्र ग्रंथों को सम्मिलित करके करना है अलग-अलग धर्म केवल एकत्व की विभिन्न अभिव्यातियाँ हैं, जिसे मानव अपने उपयुक्तता के अनुसार अंगीकार करता है.”
    इसी सन्दर्भ में श्री राधाकृष्णन ने व्याख्या की है, “जबकि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र माना जाता है,तो इसका मतलब यह नहीं होता है कि हमलोग एक अनदेखे आत्मा की वास्तविकता से इनकार करते हैं या जीवन में धर्म का औचित्य नहीं समझते हैं या हमलोग अधार्मिकता को बढ़ावा देते है. इसका यह अर्थ भी नहीं होता है कि धर्म निरपेक्षता ही एक सकारात्मक धर्म बन जाता है या राष्ट्र एक ईश्वरीय प्राधिकार ग्रहण कर लेता है. हमलोग यह मानते हैं कि किसी ख़ास मत या धर्म को विशेषाधिकार नहीं प्राप्त हो सकता. धार्मिक निष्पक्षता के बारे में यह विचारधारा या अवधारणा और सहिष्णुता का राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय जीवन में एक पैगंबरीय भूमिका है.”
    धर्मनिरपेक्षता की पाश्चात्य संकल्पना धर्म विरोधी होने के कारण मूलतः इससे भिन्न है. यह धर्म के प्रति नकारात्मक रवैये से उभरता है और न्याय के लिए चिंता से प्रेरित होता है, जबकि भारत में धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य होता है, सर्व धर्मों के लिए अगाध सम्मान, यहाँ तक की नास्तिकों के प्रति भी विस्तृत और निष्पक्ष रवैया.

  12. आदरणीय जैन साहब। नमस्कार।
    (१)”शठं प्रति शाठ्यं” से ही देश आगे बढ सकता है।
    “परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम।” का काम है।
    (२)आपके आदर्श का संकेत सही है, पर वास्तविकता भी ध्यान में रखनी चाहिए, ऐसा मैं दृढता पूर्वक समझता हूँ।
    (३)संस्थाएं एक विमान की भाँति गतिमान होती हैं।
    गति, और विशालता (मोमेंटम) उनके सकारात्मक गुण होते हैं, पर साथ में वें आप को गन्तव्य के निकट पहुंचाती हैं, गन्तव्य पर नहीं।
    हर प्रबंधक यह जानता है।उसे प्रचुरता के लाभ के साथ, कुछ क्षतियाँ स्वीकारनी पडती हैं।
    (४)इस धरापर परिपूर्णता(परफेक्शन) असंभव है; अधिकाधिक आप ध्येय के निकट पहुंच सकते हैं।
    (५) नरेंद्र मोदी भी आखिर में मानव ही है। पर उनसे अच्छा आगामी प्रधान-मन्त्रीपद के लिए योग्य व्यक्ति आप दिखाएंगे? मुझे नहीं दिखाई देता।
    (६) आलेख पढा, पर आप क्या प्रस्थापित करना चाहते हैं, समझ नहीं पाया।
    आदर्श को वर्तमान के, संदर्भ में लागु करना पडता है।
    आदर सहित-

    .

    • प्रवक्ता पर एक लेख पढ़ा था जिसका शीर्षक थाः धर्म निरपेक्षताः राक्षसी भावना। उस लेख को पढ़कर जो प्रतिक्रिया हुई, उसकी परिणति प्रस्तुत लेख है। मैं यह मानता हूँ कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संवैधानिक मूल्य है। उसको राक्षसी भावना बताना तर्कसंगत नहीं है। मैं श्री अटल बिहारी के विचारों का समर्थन करता हूँ कि शासक को राज धर्म का पालन करना चाहिए।

      • आ. जैन साहब।
        जो बात आप कह रहे हैं, उसीका स्पष्टीकरण निम्नांकित यु ट्यूब पर अटलजी की वाणी में सुन लीजिए।
        आपके विधान में सुधार हो ही जाएगा।
        https://youtu.be/x5W3RCpOGbQ

        अटल जी ने स्वयं स्पष्टता की है, इस यु ट्युब पर।
        कृपांकित

      • मै आपको एक ही बात बोलूँगा | आप को वर्मा ( म्यांमार ) में होना चाहिए था, वहां पर आप की बात और बिचारों की नितांत आवशयकता थी, जिसके कारन मुंबई में शहीद स्तम्भ को तोड़ दिया गया | शायद कुछ बदल जाता | यहाँ तो सब मिल के मिटने में लगे हुए ही हिंदुयों को ,आप इतना कष्ट न उठाते तो बेहतर था | या कश्मीर में होते तो …………….

        • आप पहले भारत के सास्कृतिक वैशिष्ट्य को आत्मसात करने का प्रयास करें। भारत ने एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति में विश्वास किया है। एक भारत है मगर हमने अनेकताओं को अंगीकार किया है। अनेक भाषाएँ, अनेक जातियाँ, अनेक दर्शन (षड् दर्शन), अनेक धर्म, अनेक साधना-पद्धतियाँ, अनेकताएँ जीवन के प्रत्येक व्यवहार में। राजसत्ता ने सभी धर्मों को मान्यता दी है। आप भारत की संस्कृति के इतिहास का गहन मनन करेंगे तो पायेंगे कि इस देश की धरती पर कितने आचार्य, कितने मनीषि, कितने संत, कितने महापुरुष पैदा हुए हैं। हमने पूरी वसुधा को कुटुम्ब माना है। परस्पर सहयोग, प्रेम, सहिष्णुता हमारी जीवन पद्धति की आधार भित्ति है।

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