पंथ निरपेक्षता है संविधान की मूल भावना

भारत के संविधान का उद्देश्य संकल्प 22 जनवरी 1947 को पारित किया गया था। इस संकल्प के माध्यम से भावी भारत का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। इस उद्देश्य संकल्प की धारा 5 में कहा गया है-‘भारत की जनता को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की तथा विधि के समक्ष समता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना, व्यवसाय, संयम और कार्य की स्वतंत्रता विधि और सदाचार के अधीन रहते हुए होगी।’ इस उद्देश्य संकल्प में राजधर्म का खाका खींचा गया है। पर इस संकल्प में विश्वास, धर्म और उपासना तीन शब्दों को अलग अलग करके लिखा गया है। यह बात महत्वपूर्ण भी है और विचारणीय भी है। स्पष्टï है कि विश्वास का अर्थ-सम्प्रदाय, मत, पंथ, मजहब से है, और उपासना का अर्थ उसकी पूजन विधि से है, जबकि धर्म को सभी नैतिक नियमों का समुच्चय मानकर हर व्यक्ति के लिए समान माना गया है। धर्म केवल और केवल निरा मानवतावाद है तो हर व्यक्ति के दिल को दूसरों के दिलों से जोड़ता है और एक सुंदर सी माला में पिरोकर सबको एक ही माला के मोती बना देता है। यह धर्म तब बाधित हो जाता है जब कोई व्यक्ति जाति, सम्प्रदाय अथवा मजहब की पूर्वाग्रही मतान्धता से किसी व्यक्ति या वर्ग का कहीं जीना हराम कर देता है। जैसा कि आजकल पूर्वोत्तर भारत में तथा कश्मीर में हिंदुओं के साथ ईसाइयत और इस्लाम कर रहे हैं। धर्म नितांत नैसर्गिक वस्तु है, जिसे निर्बाध प्रवाहित रखने के लिए संविधान में उसे अलग शब्द से अभिहित किया गया। जबकि मजहब एक भौतिक वस्तु है, जो अलगाव पैदा करता है, धर्म जोड़ता है और मजहब तोड़ता है। मजहब (पंथ-सम्प्रदाय) की इसी दुर्बलता को समझते हुए 1976 में संविधान में 42 वां संशोधन किया गया व पंथ निरपेक्षता शब्द समाहित किया  गया। ‘पंथ निरपेक्षता’ ही राज्य का धर्म है। इसका अभिप्राय है कि भारत में कोई राजकीय चर्च या शाही मस्जिद या राजकीय मंदिर नही होगा। भारत का सर्वोच्च राजकीय मंदिर संसद होगी और उस संसद में विधि के समक्ष समानता के आदर्श के दृष्टिïगत सर्वमंगल कामना (सबके लिए समान विधि का निर्माण) किया जाएगा। व्यवहार में हमने धर्म को मटियामेट कर दिया। यहां सम्प्रदायों, पंथों और मजहबों को धर्म माना गया है। ऐसा मानकर भारी भूल की गयी है। इस भारी भूल के पीछे वास्तविक कारण अंग्रेजी भाषा का है, क्योंकि उसके पास धर्म का पर्यायवाची कोई शब्द है ही नही। उसने जिसे ‘रीलीजन’ कहा है वह सम्प्रदाय अथवा मजहब का पर्यायवाची या समानार्थक है। अंग्रेज धर्म की पवित्रता को समझ नही पाए और वह संसार में सबसे प्यारी वस्तु बाईबिल और उसकी मान्यताओं को मानते थे, इसलिए उन्होंने धर्म का अर्थ इन्हीं से जोड़ दिया। इसी बात का अनुकरण अन्य मतावलंबियों ने किया। इस प्रकार अनेक धर्मों के होने का भ्रम पैदा हो गया। अब इसे रटते रटते यह भ्रम इतना पक्का हो गया है कि टूटे नही टूट रहा। भारत में ही बहुत लोग हैं जो, भारत को विभिन्न धर्मों का देश मानते हैं। इसलिए सर्वधर्म समभाव के गीत गाते हैं। उन्हें नही पता कि भारत कभी भी सर्वधर्म समभाव का समर्थक नही रहा। भारत मानव धर्म का समर्थक रहा है और उसने सर्व सम्प्रदाय समभाव को अपनी संस्कृति का प्राणतत्व घोषित किया है।
संविधान के अनुच्छेद 51 (क) के खण्ड (च) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘सामासिक संस्कृति’ का प्रयोग किया गया है। यह शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसके विषय में स्पष्ट किया है कि इस सामासिक संस्कृति का आधार संस्कृत भाषा साहित्य है, जो इस महान देश के भिन्न भिन्न जनों को एक रखने वाला सूत्र है और हमारी विरासत के संरक्षण के लिए शिक्षा प्रणाली में संस्कृत को चुना जाना चाहिए। ‘सामासिक संस्कृति’ के विकास में हमारे संविधान निर्माताओं ने देश का भला समझा था और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सही ढंग से परिभाषित भी कर दिया। परंतु देश में धर्मनिरपेक्षता के पक्षाघात से पीड़ित सरकारों ने अपना राजधर्म नही निभाया। उन्हें संस्कृत भाषा और उसकी शिक्षा प्रणाली अपने ‘सैकुलरिज्म’ के खिलाफ लगती है इसलिए इस दिशा में कोई ठोस पहल नही की गयी। फलस्वरूप संस्कृत भाषा, उसके साहित्य और उसकी शिक्षा प्रणाली का विरोध करना यहां धर्मनिरपेक्षता बन गयी। इसी को आत्म प्रवंचना कहते हैं। राजधर्म है जनता में या देश के नागरिकों में समभाव, सदभाव और राष्ट्रीय मूल्यों का विकास करना और सम्प्रदाय है राजनीति को किसी जाति अथवा सम्प्रदाय के लिए लचीला बनाना उसके प्रति तुष्टिïकरण करना और तुष्टिïकरण करते करते किसी एक वर्ग के अधिकारों में कटौती करके उसे दे देना। यह राक्षसी भावना है और यदि यह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किया जाता है तो उसे भी हम इसी श्रेणी में रखेंगे। शासन का धर्म संविधान ने  पंथनिरपेक्षता माना है तो उसका अर्थ भी यही है कि पंथ के प्रति निरपेक्ष भाव रखो, तटस्थ हो जाओ आपके सामने जो दो व्यक्ति खड़े हैं उन्हें हिंदू मुस्लिम के रूप में मत पहचानो अपितु उन्हें केवल व्यक्ति के रूप में जानो। विधि के समक्ष समानता का भाव भी यही है। जो पंथ निरपेक्ष है वही शासक धार्मिक  सत्व से पूरित भी है, अर्थात वह व्यक्ति जिसे धर्म छूता है, धारता है। सैक्युलरिज्म का अर्थ व्यावहारिक रीति किया जाता है तो इससे अच्छी व्यावहारिक रीति और क्या होगी कि आप शासन करते समय पंथ निरपेक्ष रहें। भारत ने युगों से अपनी इसी पंथ निरपेक्षता का परिचय दिया है। परंतु आज की शासकीय नीतियों में पंथ निरपेक्षता नही अपितु पंथ सापेक्षता दीखती है। जिससे शासन ही राक्षसी भावना का शिकार हो गया है।
राजधर्म के निर्वाह में सर्व सम्प्रदाय समभाव का प्रदर्शन तो उचित है, धर्मानुकूल है, परंतु एक सम्प्रदाय के किसी आतंकी के समर्थन में जब उसका पूरा सम्प्रदाय उसकी पीठ पर आ बैठे तो उस आतंकी के प्रति दयाभाव या क्षमाभाव का प्रदर्शन करना सर्वथा अनुचित है, अधर्म है राजधर्म के विपरीत है। राजधर्म का अभिप्राय कभी भी आतंकी के प्रति क्षमाभाव नही है। राजधर्म तो षठ के प्रति षठता के व्यवहार पर टिका होता है। क्योंकि प्रजा में असंतोष उत्पन्न न होने देना और हर स्थिति में शांति स्थापित रखना राजा का प्रथम कर्त्तव्य है।
अब मजहब और धर्म के मौलिक अंतर पर कुछ चिंतन कर लिया जाए। मजहब धर्म के रूप में एक छलिया है, जो कदम कदम पर मानव को भरमाता और भटकाता है। क्योंकि ये किसी खास महापुरूष की शिक्षाओं के आधार पर चलता है। इसे कोई स्थापित करता है और ये किसी अपनी धार्मिक पुस्तक के प्रति हठी होता है। इस पुस्तक में परमात्मा सृष्टिï तथा मानव और मानव समाज के विषय में कोई विशिष्ट चिंतन होता है, जिसे इसके अनुयायी सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, उसमें किसी प्रकार के हस्तक्षेप या शंका को तनिक भी सहन नही किया जाता। संसार के सारे लोग व्यवहार और जीवन दर्शन को मजहबों के अनुयायी अपनी अपनी पुस्तकों से शासित करने का प्रयास करते हैं। इसीलिए देर सवेर मजहबों में वैचारिक टकराव होते हैं जो कालांतर में सैनिक टकराव में बदल जाते हैं। क्योंकि पंथों के अनुयायी ये मानकर चलते हैं कि उनके पंथ के अनुसार विश्व में सारी व्यवस्था चले और सारा विश्व उन्हीं के मत का अनुयायी हो जाए। यह प्रवृत्ति मजहबी है जो आतंक और तानाशाही को जन्म देती है। विश्व में घृणा का प्रसार करती है। हमारे संविधान ने इस सोच पर प्रतिबंध लगाने के लिए राज्य को किसी सम्प्रदाय के प्रति लगाव रखने से निषिद्घ किया। क्योंकि हमारे संविधान निर्माता देश में कोई साम्प्रदायिक शासन स्थापित करना नही चाहते थे। जिसे मजहबी शासन कहा जाता है। जैसा कि विश्व में इस्लामी और ईसाई देशों में स्थापित है। अब धर्म के विषय में चिंतन करते हैं। धर्म पूर्णत: नैसर्गिक है वह मानव निर्मित नही है। यह हमारी चेतना का विषय है, जो हमें सहिष्णु उदार और गतिशील बनाए रखता है। पर इन गुणों की अति भी अधर्म है जैसा कि हमने अपने ही विषय में देखा भी है। अब भी हमें कुछ तथाकथित विद्वान यही समझाते हैं कि सहिष्णुता, उदारता और गतिशीलता भारत का धर्म है और यह हर स्थिति में बना  रहना चाहिए। इन लोगों को पता होना चाहिए कि भारत ने अपनी सामासिक संस्कृति को विस्तार देकर विभिन्न सम्प्रदायों को कितनी आत्मीयता से अपनाया है और अपनी रोटी में से रोटी देकर कितनी सहिष्णुता और उदारता का परिचय दिया है। इसके आतिथ्य में कोई कमी नही रही। पर ये विद्वान हमें यह भी बता पाएंगे कि अतिथि ने भी अपना धर्म निभाया या नही? यदि नही तो क्यों? अतिथि ने हमारी रोटी तो ले ली पर जिस भूमि से वह रोटी पैदा होती है उसके गीत गाने से (वंदेमातरम) मना कर दिया। यह अधर्म है, और संविधान के विरूद्घ भी है। क्योंकि संविधान इस देश के सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति सभी नागरिकों को सम्मान का भाव प्रदर्शित करने के लिए निर्देशित करता है। स्वामी विवेकानंद ने जहां हजरत मौहम्मद व ईसामसीह के प्रति सम्मान भाव का प्रदर्शन किया वहीं उन्होंने अमेरिका में एक भाषण के माध्यम से यह भी कहा था-‘और जब कभी तुम्हारे पुरोहित हमारी आलोचना करें, तो वे याद रखें कि यदि संपूर्ण भारत खड़ा होकर हिंद महासागर के तल का संपूर्ण कीचड़ उठा ले और उसे पाश्चात्य देशों की ओर फेंके तो भी वह उसका सूक्ष्मांश ही होगा जो तुमने हमारे धर्म के साथ किया है और यह सब किसलिए? क्या हमने कभी एक भी धर्म  प्रचारक संसार में धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से भेजा है?'(विवेकानंद साहित्य प्रथम खण्ड) भारत में धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने कुछ इस प्रकार कार्य किया है कि ईसाई और मुस्लिम अपने मत का प्रचार प्रसार करें और यहां धर्मांतरण (मतांतरण कहें तो ठीक है) कराएं तो भी कोई पाप नही है, क्योंकि देश धर्मनिरपेक्ष है। उसे धर्म से कुछ लेना देना नही है। बस हिंदू ऐसा ना करे, क्योंकि इससे धर्मनिरपेक्षता की हत्या हो जाएगी। क्या बकवास परिभाषा है धर्मनिरपेक्षता की? क्या सोच है इन महान विद्वानों की? हर स्थिति में अपने आप मरते रहो और दूसरों के प्रति सहिष्णु और उदार बने  रहो, यही अच्छी बात है। इसी को भारतीयता कहा जाता है। भारत के संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार की सोच को देश के लिए घातक माना था। इसलिए सबको विधि के समक्ष समान बनाने की बात कही थी। पर हमने ही ऐसी विसंगतियां पैदा कर लीं हैं कि जिनका ना तो संविधान ही समर्थन करता है और ना ही न्याय या नैतिकता। संविधान की मूल भावना पंथ निरपेक्षता की है, न कि धर्मनिरपेक्षता की।constitution

2 COMMENTS

  1. मीना जी,
    दुनिया को देखकर एक ही बात कही जा सकती हैं, दुनिया को यदि चलाया जा सकता हैं तो केवल तर्को से ओर मानवीय मूल्यो पर आधारित किताबी ज्ञान से ही चलाया जा सकता हैं।नकारात्मक्ता विवादो को जन्म देती हैं और कुतर्क फ़सादों को पैदा करता हैं ।भारतीय संस्कृति मे जो चीजे कहीं भी नही हैं जो आपने अपने चारो और इखट्ठी की हुई हैं ओर उनके ऊचे ढेर को देखकर अपने आप ही परेशान हो रहे हैं। हाँ,कुछ मिलावट खोरों ने कुछ कमिया अवश्य पैदा की हुई हैं लेकिन दूध मे यदि कोई मिलावट कर तो इसमे दूध का दोष नहीं हैं अपितु दोष मिलावट करने वाला का हैं।आपके पास मिलावट करने वाले को पकड़ने का कोई तर्क नहीं हैं
    यदि आप उसे पकड़ना चाहते हैंतो महरिशी दयानन्द को पढ़ो साथ ही अन्य संस्कृति रक्षको को पदो ।तब मेँ दावे से कहता हूँ कि मे और आप उस समय एक जैसे हो जाएंगे ।सादर

  2. लेखक कानून के जानकर हैं, पेशे से adhivkta है! अच्छे लेखक भी हैं, लेकिन अपनी धारणाओं से बाहर नहीं देखना चाहते! धर्म वही है, जो वे कहते हैं और वे वही कहते हैं जो उनकी जैसी धारणाओं के पोषक लेखकों और जजों की कुर्सी पर बैठे लोगों ने प्रकट की हैं! दुनिया केवल तर्कों और किताबी ज्ञान से नहीं चलती! सच्ची बातें लोगों के दैनिक जीवन में निवास करती हैं! लेखक लिखते हैं कि-

    “धर्म केवल और केवल निरा मानवतावाद है तो हर व्यक्ति के दिल को दूसरों के दिलों से जोड़ता है और एक सुंदर सी माला में पिरोकर सबको एक ही माला के मोती बना देता है। यह धर्म तब बाधित हो जाता है जब कोई व्यक्ति जाति, सम्प्रदाय अथवा मजहब की पूर्वाग्रही मतान्धता से किसी व्यक्ति या वर्ग का कहीं जीना हराम कर देता है। जैसा कि आजकल पूर्वोत्तर भारत में तथा कश्मीर में हिंदुओं के साथ ईसाइयत और इस्लाम कर रहे हैं।”

    आप ये क्यों भूल गए कि मनुवादी एवं ब्राह्मणवादी अमानवीय कथित धार्मिक व्यवस्था ने इस देश के हिन्दुओं के साथ धर्म के नाम पर हजारों सालों से जो अन्याय, शोषण और तिरस्कार किया है, यही नहीं आज भी किया जा रहा है, उसकी तुलना में “पूर्वोत्तर भारत में तथा कश्मीर में” कुछ भी नहीं हो रहा!

    लेखक महोदय लिखते हैं कि-

    “अब मजहब और धर्म के मौलिक अंतर पर कुछ चिंतन कर लिया जाए। मजहब धर्म के रूप में एक छलिया है, जो कदम कदम पर मानव को भरमाता और भटकाता है। क्योंकि ये किसी खास महापुरूष की शिक्षाओं के आधार पर चलता है। इसे कोई स्थापित करता है और ये किसी अपनी धार्मिक पुस्तक के प्रति हठी होता है।”

    इस सन्दर्भ में निम्न बातें विचारणीय हैं :
    १-आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर राष्ट्रीय ध्वज के लिए इस भाषा का प्रयोग किया था –

    ‘वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा, जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा…’
    २-यहां संघ कार्यकर्ताओं के लिए गीता के समान सत्य “बंच ऑफ थॉट्स” से “बलिदान महान लेकिन आदर्श नहीं” (‘Martyr, Great But Not Ideal’) का एक अंश पेश है…(जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्लाह खां के बलिदान का अपमान करता है। )

    “निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।”
    ३-आरएसएस के संस्थापक डॉ हेडगेवार तो और एक कदम आगे चले गये।
    “‘‘कारागार में जाना ही कोई देशभक्ति नहीं है। ऐसी छिछोरी देशभक्ति में बहना उचित नहीं है।””
    ४-गुरु गोलवककर के आदेश पर आपका क्या रुख है, जो उन्होंने 1940 में संघ के 1350 प्रमुख स्वयंसेवकों के समूह को संबोधित करते हुए दिया था। उनके अनुसार “एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से अनुप्राणित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।”
    ५-आरएसएस भारत की संविधान में दिये गये संघीय व्यवस्था, जो भारतीय संवैधानिक ढांचे का एक मूल सिद्धांत है, के एकदम खिलाफ है। यह 1961 में गुरु गोलवरकर द्वारा राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम सम्मेलन को भेजे गये पत्र से स्पष्ट है। इसमें साफ लिखा था,

    “आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।”
    ६-यदि आप आरएसएस और इसके संगठन, जो भारत में हिंदुत्व का शासन चाहते हैं, के अभिलेखों में झांककर देखें तो तत्काल स्पष्ट हो जाएगा कि वे सब के सब डॉ अंबेडकर के नेतृत्व में प्रारूपित संविधान से घृणा करते हैं। जब भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया तो आरएसएस खुश नहीं था। 30 नवंबर 1949 के संपादकीय में इसका मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ शिकायत करता है कि-
    “हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”
    ७-आरएसएस ‘वीर’ सावरकर द्वारा निर्धारित विचारधारा का पालन करता है। ‘वीर’ सावरकर अपने पूरे जीवन में जातिवाद और मनुस्मृति की पूजा के एक बड़े प्रस्तावक बने रहे। ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इस प्रेरणा के अनुसार-
    “मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू विधि है।”
    ८-‘हिंदू राष्ट्रवादी’ किस प्रकार का समाज बनाना चाहता है। इसके लिए मैं दलितों, अछूतों एवं स्त्रियों के लिए मनुस्मृति से उनके निर्देश उद्दृत कर दे रहा हूं-
    (क) दलितों एवं अछूतों के लिए मनु के सिद्धांत :-
    (1) अनादि ब्रह्म ने लोक कल्याण एवं समृद्धि के लिए अपने मुख, बांह, जांघ तथा चरणों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को उत्पन्न किया।
    (2) भगवान ने शूद्र वर्ण के लोगों के लिए एक ही कर्तव्य-कर्म निर्धारित किया है – तीनों अन्य वर्णों की निर्विकार भाव से सेवा करना।
    (3) शूद्र यदि द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को गाली देता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए क्योंकि नीच जाति का होने से वह इसी सजा का अधिकारी है।
    (4) शूद्र द्वारा अहंकारवश उपेक्षा से द्विजातियों के नाम एवं जाति उच्चारण करने पर उसके मुंह में दस उंगली लोहे की जलती कील ठोंक देनी चाहिए।
    (5) शूद्र द्वारा अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश देने का दुस्साहस करने पर राजा को उसके मुंह एवं कान में गरम तेल डाल देना चाहिए।
    (6) यदि वह द्विजाति के किसी व्यक्ति पर जिस अंग से प्रहार करता है, उसका वह अंग काट डाला जाना चाहिए, यही मनु की शिक्षा है।
    (7) यदि लाठी उठाकर आक्रमण करता है तो उसका हाथ काट डालना चाहिए और यदि वह क्रुद्ध होकर पैर से प्रहार करता है तो उसका पैर काट डालना चाहिए।
    (8) उच्च वर्ग के लोगों के साथ बैठने की इच्छा रखने वाले शूद्र की कमर को दाग करके उसे वहां से निकाल भगाना चाहिए अथवा उसके नितंब को इस तरह से कटवा देना चाहिए जिससे वह न मरे और न जिये।
    (9) एक ब्राह्मण का वध अथवा पिटाई नहीं करना चाहिए, भले ही उसने सभी संभव अपराध किये हों। अधिक से अधिक उसे अपने राज्य से निकाल देना चाहिए। ऐसा करते हुए सारा धन सौंप देना चाहिए तथा चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। (राजा को आदेश)
    (ख) स्त्रियों से संबंधित मनु के नियम
    (1) पुरुषों को अपनी स्त्रियों को सदैव रात-दिन अपने वश में रखना चाहिए।
    (2) स्त्री की बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं, अर्थात वह उनके अधीन रहती है और उसे अधीन ही बने रहना चाहिए; एक स्त्री कभी भी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है।
    (3) बिगड़ने के छोटे से अवसर से भी स्त्रियों को प्रयत्नपूर्वक और कठोरता से बचाना चाहिए, क्योंकि न बचाने से बिगड़ी स्त्रियां दोनों (पिता और पति के) कुलों को कलंकित करती हैं। (9/5)
    (4) सभी जातियों के लोगों के लिए स्त्री पर नियंत्रण रखना उत्तम धर्म के रूप में जरूरी है। यह देखकर दुर्बल पतियों को भी अपनी स्त्रियों को वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
    (5) कोई भी आदमी पूरी तरह से महिलाओं की रक्षा नहीं कर सकता है, लेकिन वे निम्न उपायों से ऐसा कर सकते हैं।
    (6) पति को अपनी पत्नी को अपनी संपत्ति के संवर्द्धन व संचयन, साफ सफाई, धार्मिक कर्तव्यों, खाना पकाने व घर के बरतनों की साफ सफाई में लगाना होगा।
    (7) विश्वस्त और आज्ञाकारी नौकरों के भरोसे स्त्रियों की सही सुरक्षा नहीं हो सकती लेकिन जो अपनी सुरक्षा स्वयं करती हैं वे ज्यादा सुरक्षित हैं।
    (8) ये स्त्रियां न तो पुरुष के रूप का और न ही उसकी आयु का विचार करती हैं। इन्हें तो केवल पुरुष के पुरुष होने से प्रयोजन है। … चाहे वो कुरूप हो सुंदर। यही कारण है कि पुरुष को पाते ही ये उससे भोग के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं चाहे वे कुरूप हों या सुंदर।
    (9) पुरुषों के प्रति अपनी चाह, परिवर्तनशील व्यवहार एवं अपनी स्वाभाविक हृदयहीनता के चलते स्त्रियां अपने पतियों के प्रति बेवफा हो जाती हैं चाहे उनकी कितनी भी सावधानीपूर्वक देखभाल की जाए।
    (10) मनु के अनुसार ब्रह्माजी ने निम्नलिखित प्रवृत्तियां सहज स्वभाव के रूप में स्त्रियों को दी हैं – उत्तम शैय्या और अलंकारों के उपभोग का मोह, काम-क्रोध, टेढ़ापन, ईर्ष्या द्रोह और घूमना-फिरना तथा सज-धजकर दूसरों को दिखाना।
    (11) स्त्रियों के जातकर्म एवं नामकर्म आदि संस्कारों में वेद मंत्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए। यही शास्त्र की मर्यादा है, क्योंकि स्त्रियों में ज्ञानेंद्रियों के प्रयोग की क्षमता का अभाव (अर्थात सही न देखने, सुनने, बोलने वाली) है।

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