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सेक्यूलरवाद या जिम्मीवाद : शंकर शरण

संसद पर आतंकी हमले के मुख्य अपराधी मुहम्मद को फाँसी की सजा से मुक्त करने के लिए जम्मू-कश्मीर विधान सभा प्रस्ताव पास करने वाली थी। अभी भी उस की संभावना बनी हुई है। इस पर भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग लगभग मौन रहा। मानो उसे इस से कोई मतलब न हो। कल्पना करें, यदि किसी प्रदेश की विधान सभा ने ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस कांड को मार डालने वाले दारा सिंह को सजा-मुक्त करने के लिए ऐसा ही कोई प्रस्ताव पास करने पर विचार किया होता तो देश के सेक्यूलर-वामपंथी बौद्धिक वर्ग ने क्या हंगामा मचाया होता! भारतीय बुद्धिजीवियों, बल्कि भारतीय राजनीति में प्रचलित यह दोहरापन किस बात का संकेत है?

लंबे काल में बनी सामाजिक मनोवृत्तियाँ आसानी से नहीं बदलतीं। 19 जून 1924 को लिखे अपने एक लेख में महात्मा गाँधी ने कहा थाः “तेरह सौ वर्षों के साम्राज्यवादी विस्तार ने मुसलमानों को एक वर्ग के रूप में योद्धा बना दिया है। इसलिए वे आक्रामक होते हैं। … हिन्दुओं की सभ्यता बहुत प्राचीन है। हिन्दू मूलतः स्वभाव से अहिंसक होता है। इस प्रवृत्ति के कारण उन में हथियारों का प्रयोग करने वाले कुछ ही होते हैं। उन में आम तौर पर हथियारों के प्रयोग की प्रवृत्ति नहीं होती, जिस से वे कायरता की हद तक भीरू होते हैं।”

गाँधी के इस अवलोकन की तुलना लगभग साठ वर्ष बाद के इस अनुभव से करें जो हमारे पूर्व विदेश सचिव जे. एन. दीक्षित को पाकिस्तान में भारतीय राजदूत के रूप में हुआ था। उन्होंने पाया कि पाकिस्तानियों की नजर में, “भारत एक दुर्बल देश है जहाँ हिन्दू लोकाचार व्याप्त है। इसलिए पाकिस्तान के सैन्य मनोबल के सामने इस की कोई बराबरी नहीं है।” स्वयं देश के अंदर सैयद शहाबुद्दीन जैसे प्रबुद्ध नेता ने कहा था, कि भारत का “हिंदू सेक्यूलरिज्म का पालन इसलिए करता है क्योंकि वह मुस्लिम देशों से डरता है।” यह टिप्पणी 1983 में की गई थी।

लगभग सौ वर्ष की अवधि को समेटने वाली यह तीन टिप्पणियाँ एक ही बात का संकेत करती हैं। यह ऐसा सत्य है जिसे यहाँ सभी दलों के नेता, बुद्धिजीवी अनुभव करते हैं किंतु चर्चा नहीं करते। इसी हीन स्थिति को अरबी शब्दावली में ‘जिम्मीवाद’ (dhimmitude) कहा गया है। उस तरह के यहूदी और ईसाई जिम्मी कहलाते थे, जिन्हें इस्लामी शासनों ने अपने राज्य में कुछ शर्तों पर जिंदा रहने दिया था। वास्तव में भारत में प्रचलित सेक्यूलरवाद की विशिष्टता उसी मानसिकता के संदर्भ में समझी जा सकती है। क्या कारण है कि इसी भारत से अलग हुए टुकड़ों, पाकिस्तान और बंगलादेश में सेक्यूलरिज्म की कोई हैसियत नहीं? जबकि भारत में इसे किसी देवता की तरह पूजा जाता है। हमारी संपूर्ण राज्य व्यवस्था उस सेक्यूलरिज्म के सामने झुक-झुक कर सलाम करती है, जिसे पाकिस्तान में कोई पहचानता तक नहीं! एक ही देश के दो समुदायों के बीच ऐसा विभेद और किसी तरह नहीं समझा जा सकता। ऊपर उद्धृत गाँधी जी की बात फिर से पढ़ कर देखें।

जिम्मीवाद को विश्व-विमर्श में चर्चित करने का श्रेय ईरानी मूल की ब्रिटिश लेखिका बात ये’ओर को जाता है। सदियों के इस्लामी साम्राज्यवाद के अधीन रहते हुए गैर-मुस्लिमों में जो एक स्थायी डर बैठ गया, यह उसी की संज्ञा है। यह डर तब भी बना रहता है, जब संबंधित समाज पर इस्लामी शासन का अंत हो चुका हो। यहाँ हिन्दुओं पर इसी जिम्मीवाद की छाया है जिसने सेक्यूलरिज्म का रूप धारण कर लिया है। सैयद शहाबुद्दीन ने उसी को दूसरे शब्दों में रखा था। सोहेल अहमद सटीक कहते हैं, “इस्लामी शासन में केवल एकेश्वरवादी, अर्थात ईसाई और यहूदी ही सामान्य रूप से रह सकते हैं। किंतु बहुदेववादी या मूर्ति-पूजक नहीं रह सकते। उन्हें जिहाद द्वारा खत्म करने का ही विधान है। लेकिन फिर भी, यदि विशाल संख्या या अन्य (आर्थिक आदि) कारणों से उन्हें खत्म करना संभव न हो तो उन्हें तरह-तरह के अंकुश में, दूसरे दर्जे की प्रजा के रूप में रखा जाता रहा। लंबे समय तक ऐसे इस्लामी शासन में रह कर इन दूसरे दर्जे के नागरिकों की डरू मानसिकता ही जिम्मी कहलाती है। वे मुसलमानों से आदतन सहमे रहते हैं।”

यह अक्षरशः सत्य है। इस्लामी कानूनों का कोई भी ज्ञाता इसकी सोदाहरण पुष्टि करेगा कि इस्लामी शासन में जिम्मियों को किन प्रतिबंधों और हीन स्थितियों में रहना होता है। अभी कुछ ही वर्ष हुए, जब अफगानिस्तान में तालिबान ने वहाँ सिखों और हिन्दुओं को पीला फीता बाँध कर चलने का आदेश दे रखा था। वह जिम्मियों वाले इस्लामी कायदों में ही एक था। याद रहे, उसी तालिबान को दुनिया भर के मुस्लिम नेता-बुद्धिजीवी भी ‘सबसे आदर्श इस्लामी शासन’ बताते थे। जब भारत पर इस्लामी राज था तो हिन्दुओं के लिए प्रायः वही स्थिति थी। प्रसिद्ध शायर अमीर खुसरो ने इस पर गहरा अफसोस भी व्यक्त किया था कि ‘यदि हनाफी कानूनों का चलन न रहा होता तो इस्लाम की तलवार ने भारत से कुफ्र का सफाया कर दिया होता’। खुसरो उस कानून से रंज व्यक्त कर रहे थे जिस ने हिन्दुओं को यहूदियों, ईसाइयों की तरह जिम्मी का दर्जा देकर इस्लामी राज में भी जिंदा रहने देने की व्यवस्था दे दी!

अतएव, यदि भारत का इतिहास देखें तो हजार वर्षों की पराधीनता के सामने पिछले साठ वर्षों की स्वतंत्रता एक अल्प अवधि है। इसलिए हीन मानसिकता के अवशेष यहाँ हिन्दू उच्च वर्ग में अब भी जमे हुए हैं। वह केवल अंग्रेजी या पश्चिम भक्ति में ही नहीं, इस्लामी आक्रामकता से नजरें चुराने में भी झलकती है। ईमाम बुखारी भी समय-समय पर अरब देशों से शिकायत करने और तेल की आपूर्ति बंद कराने जैसी धमकियाँ हमारे राजनेताओं को देते रहे हैं। और क्यों न दें? आखिर हमारे जिन सासंदों ने पोप के इस्लाम संबंधी बयान की निंदा की, उन्हीं ने कभी खुमैनी, अहमदीनेजाद जैसों के जिहादी बयानों पर कभी आपत्ति नहीं की। हमारे जो प्रकाशक एम.एफ. हुसैन द्वारा बनाई गई देवी सरस्वती, दुर्गा आदि की अश्लील पेंटिंगें छापते रहे हैं, उन्हीं ने मुहम्मद के कार्टूनों को समाचार रूप में भी दिखाने से परहेज किया। वाद-विवाद चलाना तो दूर, जो उन्होंने दीपा मेहता की हिंदू-द्वेषी फिल्मों ‘फायर’ और ‘वाटर’ पर चलाया था। इस डरू नीति को सब लोग खूब समझते हैं। कश्मीरी मुसलमानों के अलगाववाद को सांप्रदायिकता न कहना, आतंकवादियों को उग्रवादी भर कहना, दीनदार-अंजुमन, सिमी जैसे संगठनों की जिहादी और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों पर मौन रखना, गोधरा का नाम तक न लेना, जबकि उसके बाद हुए दंगों पर अंतहीन स्यापा करना, इस्लामी नेताओं की हिंसक बयानबाजियों पर बगलें झाँकना, आदि उसी जिम्मी मनोवृत्ति के लक्षण हैं। इसी को सेक्यूलरिज्म कह अपनी दास-मनोवृत्ति और कायरता छिपाई जाती है।

भारतीय सेक्यूलरवाद वस्तुतः जिम्मीवाद है। इसीलिए वह हिन्दू और मुस्लिम नेताओं, संगठनों, क्षेत्रों, आबादियों के प्रति दो मानदंड रखता है। मुहम्मद अफजल और दारा सिंह, दीनदार अंजुमन और विश्व हिंदू परिषद्, उमा भारती और महबूबा मुफ्ती, जम्मू-कश्मीर और गुजरात, कश्मीरी हिन्दू और बोस्नियाई मुसलमान, मुहम्मद के कार्टूनकार और देवी सरस्वती के गंदे पेंटर, बेस्ट बेकरी और राधाबाई चाल, आदि प्रसंग निरंतर आते रहते हैं जब एक ही तरह के दो प्रसंगों पर निर्लज्ज दोहरापन स्पष्ट दिखता है। हिन्दू उच्च वर्ग और उस के प्रतिनिधि बुद्धिजीवियों का यह दोहरापन जिम्मी मानसिकता की अभिव्यक्तियाँ हैं। जो स्वभावतः मानती है कि इस्लाम का रुतबा ऊँचा और अधिकार अधिक हैं। हमारे सेक्यूलरवादियों का व्यवहार सदैव यही कहता है। यह उन की अलिखित, पर आधारभूत मान्यता है।

किंतु समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है। जिम्मी मानसिकता पर से सेक्यूलर आडंबर खुलने लगा है। अनेक बुद्धिजीवी सच देखने लगे हैं, इसलिए उन में से कइयों की प्रगल्भता कम हुई है, चाहे सच कहने का साहस नहीं आया। सेक्यूलरिज्म के नाम पर निरंतर मिथ्याचार का बचाव करते-करते वे भी अब संकोच महसूस करने लगे हैं। क्योंकि उस का पोलापन स्वतः उजागर होने लगा है। इसी को व्यक्त करते हुए हमारे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुलदीप सिंह ने एक बार कहा था, “भारत में सेक्यूलरिज्म को (इस्लामी) सांप्रदायिकता सहन करने में, उस का बचाव करने में बदल कर रख दिया गया है। अल्पसंख्यकों को समझना होगा कि वे उस संस्कृति, विरासत और इतिहास से नाता नहीं तोड़ सकते, जो हिन्दू जीवन शैली से मिलता-जुलता है।… अल्पसंख्यकवाद को राष्ट्र-विरोध का रूप लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती।”

ऐसी सम्मतियाँ भारत के करोड़ों लोगों की भावना है। किंतु दुर्भाग्य से अब भी उन पर खुली चर्चा नहीं हो रही। दिनो-दिन जो हालात बन रहे हैं, उस में यह मौन अच्छा नहीं। हिन्दुओं के प्रति जिस भेद-भाव, तज्जनित दुःख, आक्रोश और विवशता को जान-बूझ कर झुठलाया जाता है, वह समय पाकर विकृत रूप में फूटती है। हिन्दू सेक्यूलरवादियों के पाप का घड़ा भरता जा रहा है। सेक्यूलरवादी बुद्धिजीवी प्रशान्त भूषण के साथ हुई मार-पीट को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। ऐसे लोगों की चुनी हुई चुप्पियों और चुने हुए शोर-शराबे ने देश का वातावरण जितना बिगाड़ा है, उतना इस्लामी कट्टरपंथियों ने नहीं। लोग उन का अपराध समझने लगे हैं। अच्छा हो, हमारे नेता और संपादकगण भी समझें और आवश्यक सुधार करें।

(लेखक की पुस्तक ‘भारत में प्रचलित सेक्यूलरवाद’, अक्षय प्रकाशन, नई दिल्ली, के एक अंश पर आधारित)