इन दिनों सेक्स का विषय जोरदार चर्चा में है। भारत सरकार द्वारा सहमति से यौन सम्बंध स्थापित करने की महिलाओं की आयु को 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष करने के प्रस्ताव पर समाज में अलग अलग राय है। वैसे यदि देखा जाये तो भारत की प्राचीन संस्कृति में यौन सम्बंध और इस विषय को लेकर समाज में खुलापन था और समाज पर बौद्ध प्रभाव के चलते इसके प्रति न केवल संकोच होने लगा वरन इसे पाप पुण्य से जोडकर देखा जाने लगा। कालांतर में ईसाई मत पर भी बौद्ध परम्परा का अधिक प्रभाव था और उन्होंने भी इसी विचार का अनुसरण किया । पश्चिम पर ईसाई प्रभाव की प्रतिक्रिया में जब आधुनिक पश्चिमी समाज का विकास हुआ तो सेक्स को लेकर प्रतिक्रियात्मक खुलापन आया और उन्मुक्त भोग को समाज का आधार बना दिया गया ।
भारत में ब्रह्मचर्य की परम्परा भी रही है तो इसी देश में कामसूत्र की रचना हुई। ऐसे देश में यदि यौन सम्बंधी विषयों पर पश्चिम से हमें सीखना पडे तो अवश्य सोचनीय विषय है। आज आवश्यकता है कि आधुनिक सेक्सोलोजिस्ट की धारणा को आयुर्वेद की मान्यता के आधार पर चुनौती मिलनी चाहिये जो ब्रहचर्य को पूरी तरह नकार देते हैं। आज वैज्ञानिक युग में यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक आधार पर ब्रहचर्य की व्याख्या हो और उसके गुणों से किशोरों और युवा को अवगत कराया जाये न कि पाप या पुण्य के आधार पर इसे देखा जाये। पाठ्यक्रमों में कामसूत्र को स्थान दिया जाना चाहिये और इसके प्रति अधिक खुलापन लाया जाना चाहिये।
आध्यात्मिकता और सेक्स को कभी परस्पर विरोधाभाषी माना जाता है तो कभी पूरक लेकिन वास्तविकता क्या है इस बारे में कोई भी दावे से कुछ भी नहीं कह सकता।
एक ओर पश्चिमी विज्ञान इसे शरीर की आवश्यकता के साथ जोड कर देखता है क्योंकि विज्ञान अभी तक अपने सिद्धांतों के अनुपालन में शरीर से आगे के तत्व को जान नहीं सका है और इस कारण शरीर से आगे कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं है इसके विपरीत भारतीय सनातन चिन्तन शरीर रचना से आगे भी गया है और मन , बुद्धि और आत्मा की खोज भी कर सका है इसलिये सेक्स को लेकर उसका अधिक व्यापक चिंतन है।
वैसे यदि देखा जाये तो शरीर विज्ञान के सिद्धांत की परिधि में ही सेक्स की लिप्सा और इसके प्रति आकर्षण महज शरीर की आवश्यकता के दायरे में परिभाषित नहीं किया जा सकता। यदि सेक्स करना शरीर की अनिवार्य आवश्यकता होती तो फिर शरीर में सेक्स से जुडी इंद्रिय भी उसी प्रकार दैनन्दिन प्रक्रिया में कार्य करती जो अन्य दैनिक आवश्यकता से जुडी इंद्रियाँ करती हैं। हमारे शरीर में दो प्रकार की क्रिया होती है एक तो जो भी शरीर की अनिवार्य दैनिक क्रिया है उसके लिये बहिर्गामी इंद्रियाँ हैं जो शरीर से उत्सर्जन का कार्य करती हैं जैसे मलत्याग, मूत्रत्याग, पसीना इसके साथ यदि कोई तत्व शरीर में अनावश्यक आ जाये तो भी शरीर उसे बाहर निकाल देता है जैसे वमन द्वारा, बलगम, कफ इत्यादि और जो भी शरीर के तत्वों को बाहर निकालने के लिये उत्तरदायी अंग हैं वे शरीर के उन तत्वों को बाहर निकालते हैं जिनका नियमित उत्सर्जन अनिवार्य है या फिर समय समय पर ऐसा आवश्यक है। दूसरा शरीर के लिये कुछ तत्व आवश्यक हैं जो वह ग्रहण कर शरीर को और पुष्ट और स्वस्थ बनाता है जैसे भोजन, निद्रा आदि। अर्थात शरीर के परिचालन की प्रक्रिया यह है कि वह शरीर के लिये कुछ ग्रहण कर आवश्यकतानुसार शरीर का पोषण कर शेष उत्सर्जित कर देता है। इस आधार पर देखा जाये तो सेक्स क्या है? सेक्स करने की इच्छा का उत्कर्ष शरीर के कुछ तत्वों के उत्सर्जन से होता है और यदि यह तत्व नियमित रूप से उत्सर्जित होना आवश्यक होता तो शरीर रचना ही कुछ ऐसी होती कि मल , मूत्र विसर्जन की भाँति इसका विसर्जन भी नियमित तौर पर होता।
वास्तव में सेक्स शरीर के स्थूल भाग से सम्बन्ध रखता ही नहीं यह शरीर के सूक्ष्म भाग से सम्बद्ध है। सेक्स पहले एक विचार के रूप में सूक्ष्म स्वरूप में शरीर में प्रवेश करता है और फिर मस्तिष्क से आदेश की प्रतीक्षा करता है इस प्रकिया में व्यक्ति की इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति सक्रिय होती है और व्यक्ति अपने पुराने संस्कारों और वातावरण के प्रभाव में आकर जो भी निर्णय करता है उसी आधार पर शरीर का उत्सर्जन तत्व सक्रिय होता है। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो सभी आलम्बनों के प्रति एक जैसा ही भाव मन में उत्पन्न होता लेकिन ऐसा नहीं होता।
अब प्रश्न यह उठता है कि सेक्स का नैतिकता और धर्म के साथ क्या सम्बन्ध है? प्रायः सभी धर्मों में संयम और ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी गयी है और इसी आधार पर कहीं कहीं इसे पाप और पुण्य से भी जोडा गया है। लेकिन वास्तविता में देखा जाये तो नैतिकता और धर्म का प्रश्न इसे विनियमित करने का उपक्रम है। इस विषय में अंतिम निर्णय स्वयं व्यक्ति को ही करना होता है। यदि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य, शरीर रचना और शरीर से परे सूक्ष्म तत्वों के साथ शरीर के सम्बंधों को देखा जाये तो सेक्स विचार, इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति से जुडा विषय है इसलिये इसके अधीन होकर इसे विचारों पर विजय प्राप्त करने देने से व्यक्ति की इच्छा शक्ति, संकल्प शक्ति क्षीण होती है और उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता। इसके विपरीत यदि ब्रहचर्य या संयम के पालन से तेजस्विता, ओज , संकल्प शक्ति , स्मरण शक्ति और इच्छा शक्ति अधिक तीव्र होती है और व्यक्ति अधिक तेजी से स्वयं को जानने की दिशा में बढता है।
सेक्स को शरीर की अनिवार्य आवश्यकता दो कारणों से बताई जाती है एक तो आधुनिक विज्ञान केवल शरीर के स्थूल रूप को जान सका है इस कारण वह सेक्स को सूक्ष्म विचार न मानकर केवल एक शारीरिक प्रकिया मानता है और दूसरा सामान्य रूप से लोग सेक्स के विचार को अपने ऊपर शारीरिक आवश्यकता के रूप में थोप लेते हैं और इस कारण यह आदत बन जाता है जिसके कारण कुछ विशेष क्षण या स्त्री पुरुष के सम्पर्क में आने पर स्वतः ही वह विचार पूरी तरह शरीर की प्रकिया को संचालित कर देता है।
सेक्स को अनिवार्य शारीरिक आवश्यकता मानना वास्तव में एक वैचारिक परतंत्रता है जिस क्षण किसी व्यक्ति को यह पता चल जाये कि वह ऐसा इसलिये मानता है क्योंकि उसकी अपनी चेतना सक्रिय ही नहीं है वह तो वातावरण, शरीर और अपनी आदत से मजबूर है तो उसी क्षण उसे ग्लानि होने लगेगी और वह स्वयं को स्वतन्त्र करने की चेष्टा करने लगेगा।
जो लोग सेक्स को मनोरंजन मानते हैं या फिर आदत या शरीर की माँग की विवशता के चलते इसके अधीन हैं वे वास्तव में जीवन का आनंद नहीं ले रहे हैं और न ही स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं वे तो एक विवश, पराधीन, निर्विचार ऐसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं जिसका कोई लक्ष्य ही नहीं है। सेक्स करने में जितना आनंद है उससे अधिक आनंद इसकी पराधीनता छोडने पर है। जीवन में व्यक्ति सेक्स को अनिवार्य शारीरिक क्रिया मानकर और करते हुए मान लिया कि यदि बडा सोच सकता है तो फिर उसे क्रियांवित करने की क्रियाशक्ति और जीवनी शक्ति अपने भीतर उत्पन्न नहीं कर सकता। सेक्स को जब शारीरिक अनिवार्यता से परे स्वतन्त्र विचार के स्तर पर कर दिया जाता है तो इसके प्रति उत्पन्न होने वाला आकर्षण स्वतः ही क्षीण होने लगता है और इसके प्रति पाप , पुण्य अच्छा , बुरा से परे निरपेक्ष भाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिये सेक्स के बारे में यह ध्यान रखना चाहिये कि यह विचार है जिसे हम अपने ऊपर थोपते हैं और वैचारिक स्वतन्त्रता की स्थिति में इसका उदात्तीकरण हो जाता है। ध्यान और प्राणायाम से इस वैचारिक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
,आधुनिक युग मे सैक्स एक घम्भीर समस्या है
या तो इस को खुला कर देना चाहिये या फिर इस पर कडे नियम होने चाहिये।आपको बुरा लगा हो गा मगर सच्चाई तो यही है
लडकी 14वर्ष कि उम्र मे बॉयफ्रेण्ड बनाना चाहती है मगर घर वाले नही मानते है ………….. कारण सुसायड
एक लडकी लडके के साथ भग रही है …………समाज मे जगह नही ……………….कारण सुसायड
लडके को लडकी के साथ दैखा संगीन मुद्रा मे कारण ……..पीट पीट कर हत्या
पहले लडके लडकिया संबन्ध सोच समझ कर बनाते थे
अब रिस्ते नही देखे जा रहे है
परिवार मे उल्टे सीधे काम हो रहे है
माफ करना मै अपने ही समाज के बारे गलत लिख डाला लेकिन यह मेरे अकेले का मत नही है मै ने 30दिन मै कई लोगो से चर्चा करके फिर लिखा है आज यह समस्या कल का अंधकार हो सकता है इस पर हम सब को विचार कर कठोर निर्णय लेना चाहिये
हमारा देश सैक्स का गुलाम न बन जाये
क्यो कि आज कामोत्येजना के पाठ ज्यादा पढाये जा रहै है
हमारे प्राचीन आचार्यों ने बसिस्ठ, सन्दीपन आचार्य चाणक्य एक कठोर बरत का स्वयम पालन करते थे जो चरित्र निर्माण में सहायक हो और रास्त्र ( राज्य ) को चरित्रवान लोग पाप्त हों ! ऐसे लोगों को बाल्यपन में ही अछे संश्कर कोखोज कर न की अरचानाराछां के द्वारा कुलीन बालकों का चयन कर , ४ अस्राम में विभक्त कर समाज को नई दिशा और दृढ प्रतिज्ञ मनुष्य को गढ़ा !! यह जब की बात है की जब भारत व्श्व्गुरु था ! और आज क्या हो रहा है , इमानदार बातें करो तो lgata है गाली देने की तयारी हो रही है !!