विविधा हिंद स्‍वराज

शब्द भारती

डॉ. मधुसूदन

(१)

देववाणी शब्द सिंधु* में,

डुबकी, मेरे बस की न थी ॥

लोटना सागर किनारे,

इस गिलहरी की नियति*रही॥
(शब्द -सिंधु *= शब्दों का सागर)
(नियति *= भाग्य)
(२)

चिपक गए ,जो शब्द कण,

ज्ञान और विज्ञान के॥

उतना अंग भया स्वर्ण ,
क्षण आनन्द के उल्लास के॥

(३)
मिल गए जो, दीप्त कण,
संसार किनारे ठेलती॥

अंग और प्रत्यंग झटक,
अज्ञानी की यह वैखरी ॥ (वैखरी=कण्ठ से व्यक्त शब्द )

(४)

रत्‍नाकर *सागर किनारे,

ये, चमकीले कंकड* मिले,

शब्द रत्‍नों की यह थाली,

अर्पण मेरे भारत तुझे॥
(रत्‍नाकर= रत्‍नों से भरे) (चमकीले कंकड= हीरे)
(५)

शब्द रत्‍नों के अधिकारी

हो, कुबेरविश्व अग्रणी

क्यों बने हो भिखारी,

वरदा तुम्हें जब वेदवाणी ॥

(कुबेर: अति समृद्ध )

(अग्रणी: सब से आगे.)

(७)

भण्डार अनुपम, शब्द का

गुलाम, क्यों बाहर* ढूँढता

नाभि में ले कस्तूरी क्यों,

संसार हिरना छानता ?

…………

(बाहर*= विदेशी भाषाओ में)

………………….

(८)

खाली थी मेरी टोकरी

आज आनन्द से भरी,

कृतकृत्य* मेरी जीवनी

आनंद छलकाती चाकरी
{कृतकृत्य = सफल }

देववाणी शब्द सिंधु में

डुबकी, मेरे बस की न थी॥

लोटना सागर किनारे

इस गिलहरी की नियति रही॥

*वैखरी:
वाणी के चार सोपान या अवतरण होते हैं —१ परा, २ पश्यन्ती, ३ मध्यमा, और ४ वैखरी . पहली तीन आंतरिक, रहस्यमय और गूढ होती है; जो योगी के ध्यान में झरते झरते एक नदी जैसी अव्यक्त अवस्था से व्यक्त में आकार धारण करती है.

इस ४ थे व्यक्त रूप को ही वैखरी नाम से जाना जाता है.

जब पहली तीन अवस्थाओं को भी नाम दिया गया है, यही स्पष्ट प्रमाण मानता हूँ, उनकी गूढ और अव्यक्त अवस्था का. और योगियों के अनुभव का. बिना अनुभव उन्हें नाम क्यों दिया जाता?

जिन्हें योगी ध्यान में बिना ध्वनि ही अनुभव करता है. पर जब वह ध्वनि रूप लेती है. तो शब्दों में पहले सुनी

और पश्चात सुनाई जा सकती है, उसे ही वैखरी कहते हैं.