हमारा परमोच्च शब्द रचना शास्त्र, भाग – एक

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डॉ. मधुसूदन

सारांश:

ॐ– शब्द का – पहले पहले परिपूर्ण विश्लेषण करनेवाला देश?– भारत ।

ॐ– “भाषा विज्ञान में, पश्चिम की अपेक्षा २५ शतियाँ आगे कौन देश? —भारत।”—-भाषा विज्ञानी” नओम चॉम्स्की।

ॐ– “किस देशका व्याकरण संगणकों में, योजा गया? —भारत का।

ॐ– “किस देश का भाषाविज्ञान विश्व-श्रेष्ठ?”–भारत का। ——प्राच्यविद “फ्रिट्ज़ स्टाल”

 

 download (1)(एक ) नवीन शब्द रचना

भाषाओं में, कठिनतम मानी जाती है, नये शब्दों की रचना।

(एक) अंग्रेज़ी शब्द-उधारी की भाषा है।

जब नवीन शब्द रचना की समस्या खडी होती है, तो अंग्रेज़ी उधार ले कर काम चलाती है। बहुत सारी अन्य भाषाएं भी कुछ ऐसा ही करती हैं। अंग्रेज़ी मानसिकता की दास्यवृत्ति वाली हमारी मूढ प्रजा है; जो, हिंदी में भी अंग्रेज़ी शब्दों का बिना विचारे प्रयोग करने पर तत्पर है। उसे अंग्रेज़ी शब्दों के स्वीकार में बडे गौरव का अनुभव होता है। शायद यह पता भी नहीं है, कि, अंग्रेज़ी ने स्वतः प्रमुखतः अन्य ४९ भाषाओं से शब्द उधार लिए हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार यह आँकडा १२० का है। पर इन घनघोर अंग्रेज़ी प्रेमियों को कौन समझाएं कि, जो अंग्रेज़ी स्वतः इतनी उधारी कर चुकी है, उसीसे उधार लेने में कैसा गौरव ?

(दो) पर संस्कृत अपना शब्द प्रायः स्वयं रच लेती है।

पर संस्कृत अपना शब्द प्रायः स्वयं रच लेती है। दूसरी बात यह भी ध्यान रखना उचित है, कि, संस्कृत का दिया गया वह शब्द आप जैसी कल्पना करेंगे, वैसा होगा। आप जो भी नया शब्द चाहते हैं, उसकी कल्पना कीजिए, उसका सही वर्णन कीजिए, संस्कृत आपको वैसे अर्थका शब्द बनाकर देने में समर्थ है। नया शब्द भी वैसा ही माप-तौल कर बनाया जाएगा। क्यों कि संस्कृत व्याकरण में शब्द रचना की नियमांकित विधि है।

और तो और वह, शब्द संक्षिप्त भी होगा, और अर्थदर्शी भी होगा। और विशेषता भी कैसी, कि, ऐसा शब्द प्रायः सारी भारतीय जन-भाषाओं में प्रयुक्त होने की संभावना भी होगी। इतना ही नहीं, आप को बहुत बार, दो दो-तीन तीन पर्यायवाची शब्द भी मिल जाएंगे, फिर आप अपनी रूचि के अनुसार उनमें से शब्द चुन सकते हैं।

अब ऐसा शब्द रचना शास्त्र, जिस भारत के पास हो, उसे किसी और परदेशी भाषा से भीख माँगने की कोई आवश्यकता? कुबेर भी क्या कभी भीख माँगने जायगा? पर ऐसा ही हो रहा है।

(तीन) अंग्रेज़ी मानसिकता का प्रमाण

हिंदी में, हमने अंग्रेज़ी से भीख माँग माँग कर लाए हुए शब्दों ने ऐसी अराजकता फैलाई है, जिसे संसार की घोर विडंबना ही माननी पडेगी। अचरज है, हमें हमारी ऐसी ओढी हुयी छद्म दरिद्रता पर व्यथा भी होती नहीं है। इससे बढकर अंग्रेज़ी मानसिकता का प्रमाण और क्या हो सकता है ?

यहाँ, प्रति दिन दूरदर्शन पर “टॉप स्टोरी” से हिंदी समाचार प्रारंभ होकर “इन्टरनॅशनल न्यूज़” से अंत होते हैं। हिंदी कक्षाओं में, छात्रों को हिंदी सीखने के लिए दूर दर्शन देखने का परामर्श दिया जाता है। वे छात्र ही ऐसे समाचार सुन कर उलझ जाते हैं। अब, उनके प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जाए? किसी भी समाचार में हिंदी की संख्या जब भी बोली जाती है, उन्निस सौ अस्सी नहीं, पर नाइन्टीन एट्टी ही होती है। क्या देखकर ऐसे समाचार-दाताओं को दूर दर्शन पर नियुक्त किया जाता है?

(चार ) तो कठिनाई कहाँ है?

इस के अतिरिक्त भी बडी कठिनाई है, हमारा प्राथमिक शब्द रचना का अज्ञान। जिस देश के पास सर्वश्रेष्ठ शब्द रचना शास्त्र हो, उस देश को उसी का ही अज्ञान? ऐसी अस्मिता की घोर उपेक्षा इतिहास में ढूंढ कर भी दूसरी नहीं मिलेगी।

संस्कृतकी ही जब ऐसी घोर उपेक्षा हुयी है, वह भी स्वतंत्रता के पश्चात, तो यह अभागा लेखक क्या कर सकता है? ऐसी अज्ञानी अवस्था में मुझे इस विषय के कुछ सीधे सरल पहलु बताकर ही संतोष करना होगा। आशा करता हूँ, कि, कुछ तो युवा समझेंगे और जागेंगे और अगली पीढी को भी सचेत करेंगे, और ऐसी परमोच्च धरोहर को बचाकर रखेंगे। ऐसी धरोहरें केवल जानने से नहीं बचाई जाती, उनका अभ्यास, अध्ययन और क्रियान्वयन सतत होना चाहिए। कात्यायन, पाणिनि, पतंजलि और यास्क इत्यादि जैसा आदर्श समर्पण इस के पीछे आवश्यक होता है।

(पाँच) शंख फूँक कर कहता हूँ।

इसी देश की इस अलौकिक भाषा ने विश्व की अनेक भाषाओं को सिंचित कर समृद्ध बनाया है। क्या इस देश का कुछ कर्तव्य बनता नहीं है? मैं मानता हूँ, कि, ऐसी भाषा का संरक्षण,इस देश का परमोच्च कर्तव्य बनता है।भले वह देश उस भाषा में नया योगदान ना दें। वैसे उसकी आजकी हीन अवस्था में यह संभव भी नहीं लगता।

जब वह स्वयं ही अंग्रेज़ी का मर्कट बन गया है, तो भी, इस विश्व की धरोहर को नगण्य मान कर उसकी अवगणना कदापि स्वीकार नहीं है।

(छः) भारत का परम पवित्र कर्तव्य

भारत का न्यूनतम पर परम पवित्र कर्तव्य बनता है, कि, इस भाषा का अग्निहोत्र ज्वलंत और जीवंत रखें; अग्नि को प्रज्वलित रखे। इसी भाषा के आधारपर अपनी समस्त जन भाषाएं सिंचित कर उजागर करें।

और कुबेर के ये बेटे संसार की भाषाओं से,बिना सोचे विचारे, भीख माँगना बन्द करें। आवश्यक अंग्रेज़ी पढनी हो, तो अवश्य पढें, पर हिन्दी को हिन्दी रहने दे। हिंग्रेज़ी ना बनाएं, हिंग्लिश ना बनाएं।

(सात) कठिनाई

पर आज तो, कठिनाई है, इस विषय को समझानेमें भी। जब समझने के लिए आवश्यक जानकारी से सज्ज पाठक ही ना हो, तो लेखक क्या कर सकता है? भाग हमारा, कि, हमें गुरु ही अँधला मिला, कि हम, ६६ वर्षों से कूप में पडे पडे कुढ रहे हैं। नहीं तो कहीं के कहीं पहुंच चुके होते। कितनी भाग्यशाली परम्परा वाले हम, पर कितने अभागे?

त्रिशंकु बने बने, हम अंग्रेज़ी के जूते चाट रहें हैं; न इधर के न उधर के। उधर के हम हज़ार वर्षों में भी हो नहीं सकते; इतनी भी समझ नहीं है। क्या, सारे भारत की प्रजा को, अंग्रेज़ी पढा पढा कर देश की उन्नति कर सकते हो ?

जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध।

अँधा-अँधा ठेलिया, दून्यू कूप पड़ंत॥ –कबीर

(आँठ)हम कौन है?

हमारे ही उच्च गणित से संसार आगे बढा है। हमारे अंकों के बिना संसार में आज भी अराजकता फैल जाएगी। हमारे पाणिनि से ही तो, संगणक भी सुसज्ज है। हमारे संगीत के स्वरों पर सारा संसार मुग्ध है।क्या क्या कहें? सारा संसार हमारा ऋणी है, पर हम अपने पुरखों के ऋणी नहीं हैं।

हिरोशिमा और नागासाकी पर अणुबम झेलकर भी, जापान अपनी चित्रमय भाषा को सँवारकर दस-बीस वर्षों में आगे बढ पाया; छोटा सा, ३६ अलग भाषा-भाषियों का देश, इज़राएल, अपनी हिब्रु भाषा को पुनर्जीवित कर पाया। हिब्रुका एक अकेला भक्त “बेन येहूदा” अपने अकेले, परिवार से प्रारंभ कर, हिब्रु को, फैलाकर आज उस को, राष्ट्र भाषा के पद पर आसीन करा पाया है।

पर हम अभागे अपनी सर्व श्रेष्ठ भाषा का सम्मान तो नहीं कर पाए। और पराई भाषा के पीछे भाग भाग कर हिंदी को भी दिन दूनी रात चौगुनी बिगाड बैठे हैं। लिखते लिखते भी आँसू टपक जाते हैं।

(नौ ) कठिन विषय :

इस लिए, छेडा हुआ, विषय कुछ कठिन हो सकता है। पर इस को समझे बिना आप को संस्कृत (और हिन्दी) के एक परमोच्च गुण का आकलन नहीं हो सकेगा। इस लिए कुछ धीरे धीरे अध्ययन की भाँति इन आलेखों को पढें। सारे विरोधकों को भी भेजे। प्रश्न भी पूछें, इसे साहेब वाक्यं, या पण्डित वाक्यं की भाँति प्रमाण न मानें।

वास्तव में मुझे शायद ही कोई सन्देह है, कि इन आलेखों को एक चुनौति के नाते क्यों न प्रस्तुत किया जाए, पर जो भी आप को मानना हो, वो मानकर इन आलेखों का अवश्य अध्ययन करें, केवल पढे नहीं। भारत के हित में इनका अध्ययन किया जाए। अपने अन्य मित्रों को भी भेजे, प्रवक्ता का संदर्भ अवश्य दें।

(दस ) नया शब्द कैसे रचते हैं?

(१)मान लीजिए कि, कोई नया उपकरण जैसे “टेलिफोन” बन कर आ गया। अब टेलिफोन का वर्णन कीजिए। यह ऐसा उपकरण है, जिससे दूरस्थ व्यक्ति से वार्तालाप कर सकते हैं। तो ऐसा अर्थ व्यक्त करनेके लिए शब्द बनते हैं, दूरवाणी, दूरध्वनि, या दूरभाष। प्रारंभ में शायद ऐसे शब्द कठिन लगे, पर बोलचाल में बार बार आनेपर वे रूढ हो जाएंगे।

(२) उसी प्रकार Aeroplane (एरोप्लेन) का वर्णन है, आकाश में, या वायु में उडकर जानेवाला यान। तो लीजिए शब्द बनते हैं, वायुयान, आकाशयान, या विमान । वैसे विमान शब्द तो पहले से ही हमारे पुराणों में भी पाया जाता है।

(३) Tragedy का वर्णन है, ऐसा नाटक या नाटिका जिसका अंत दुःखद हो। अभी अंग्रेज़ी के प्रभाव से,इसके लिए “त्रासदी” जैसा शब्द योजा जाता है। वैसे त्रासदायी शब्द संस्कृत है। पर जब हम अर्थ पर ध्यान देते हैं, तो करूणांतिका, शोकान्तिका, या दुःखान्तिका ऐसे तीन तीन उचित शब्द हमें मिल जाते हैं। अर्थ भी पूरा और शब्द भी तीन।

(ग्यारह ) शब्दार्थ कोश अनावश्यक

ऐसे अर्थ को साथ लेकर चलने के गुण के कारण हमें शब्दों के अर्थ देनेवाले शब्द कोश की भी आवश्यकता नहीं थीं। हमारे यहाँ निघंटु होते थे। उस में केवल शब्दों की सूची होती थी। अर्थ उन के कलेवर में पारदर्शी रूप से विद्यमान होता था। जो जानकार जानते थे।

पढा आपने? हमें शब्दार्थ देनेवाली डिक्षनरी ( शब्द का अर्थ देनेवाले) शब्दार्थ कोश की आवश्यकता ही नहीं होती थी।

हमारे पास निघंटु था, अमर कोश था। जानकार धातुओं के अर्थ जानते थे। तो बस कुल २०१२ में से, पहले ५३० विशेष धातुओं का अध्ययन पाठ करते, और फिर उपसर्ग और प्रत्ययों की जानकारी के आधार पर विशेष अर्थ किया जाता। नया शब्द भी इसी विधि से रच लेते, खेल खेल में।

(बारह ) संस्कृत शब्द रचना विधि उदाहरण

क्रमवार विधि : (१) नए शब्द का वर्णन कीजिए। (२) उसके विशेष गुण दिखाइए। और शब्द लीजिए।

संस्कृत अपने ही घटकों को नियमबद्ध रीति से परिवर्तित कर नया शब्द रच लेती है।

एक उदाहरण

नीचे एक मूल से जुडे हुए शब्द देखिए। शब्दों का मूल है, भाष् भाषते इसी धातु से भाषा बनता है।

भाषा , भाषित, भाषण, संभाषण, बहुभाषी, परिभाषा, परिभाषित, भाषायी, भाषिक, भाषावार, भाषिणी, भाषान्तर, भाषीय, भाष्य, भाष्यकार, भाष्यकृत, सुभाषा, सुभाषित स्वभाषा, परभाषा, द्विभाषा, द्विभाषा सूत्र, द्विभाषी, त्रिभाषी, त्रिभाषा सूत्र, द्वैभाषिक, इत्यादि।

क्रमशः==> टिप्पणियों के संकेत को ध्यान में रखकर आगे आलेख बनाने का प्रयास करूँगा।

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डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

11 COMMENTS

  1. आदरणीय मधुसूदन जी ,

    समय समय पर आपके लेख पढ़ता रहा हूँ, और ह्रदय गर्व से भर जाता है |
    परन्तु जब व्यवहार की बात आती है तो अपने ही ऊपर झल्ला उठता हूँ कभी कभी
    क्योंकि तत्क्षण शब्द नहीं मिलते प्रयोग के लिए तो हिंग्लिश, उर्दू या कुछ भी बोल कर काम निकाल लेता हूँ |
    ये आदतों की बात होती है
    शब्द हम भूल भूल जाते हैं
    जब होती है कभी आवश्यकता
    शब्द लुका छिपी दिखाते हैं ||

    • धन्यवाद अचल जी।
      “हिंखोज”लिख कर खोजें। शब्द कोश आप को अंतरजाल पर मिल जाएगा। प्रयोग कर के देखें।
      टिप्पणी के लिए फिरसे धन्यवाद।

      • http://www.spokensanskrit.de इति शब्दकोष का भी उपयोग करके देखें । संस्कृत से आङ्ग्लभाषा और आङ्ग्लभाषा से संस्कृत, में अनुवाद किया जा सकता है ।

  2. ऐसे विद्वत्तापूर्ण व मार्गदर्शक लेख के लिए आभार। कृपया अपने लेखों की आवृत्ति बढ़ाएँ।

  3. हमारी भाषा अंग्रेज़ी की अपेक्षा ४ से ५ गुना अधिक सक्षम है।
    “फ्रिट्ज़ स्टाल” तो कहते हैं, कि, “भारत (हम) भाषा विज्ञान में पश्चिम से २५ शतियाँ आगे हैं।”
    जैसे जैसे अध्ययन कर रहा हूँ, अभिभूत नहीं, बहुत बहुत चकित हूँ।
    पर विरोधक तर्क नहीं दे पाते तो निम्न पदवियाँ देकर प्रमाणित करते हैं।
    मैं उनके लिए, “मनुवादी,ब्राह्मणवादी, दकियानुसी या परम्परावादी” हूँ। (बिना प्रमाण) ब्राह्मण मानते हैं।
    मैं पाली,अर्धमागधी, या द्रविड भाषाओं का द्वेष्टा नहीं हूँ।
    मैंने तो अंग्रेज़ी माध्यम से २५+ वर्षों तक अमरिका के नामी विश्वविद्यालय में,पढाया है।
    यह सब मेरे मित्रों को ही, कहा गया है। जो वैसे तो मित्र ही, पर दिग्भ्रमित हैं।
    कुछ कहते हैं, उन्हें ऐसे आलेखों को जानने की भी इच्छा नहीं है।
    कहने को वे हिंदी के “चर्चा” समूह चलाते हैं। कुछ संस्कृत को “डेड लॅंन्ग्वेज” मानते हैं।
    एक सज्जन रोमन लिपि को ही सर्व श्रेष्ठ मानते हैं-बहुत सरल लिपि है २६ अक्षरों वाली। संसार में फैली इसी लिए है। ऐसे मित्र ही जब हैं, हमें शत्रुओं की क्या आवश्यकता?

  4. कुछ संदेह का समाधान करने के लिए, एक प्रश्न, श्री. रमेश जोशी जी से किया था।
    कि, क्या सही है?
    जायेगा, जाएगा, और जायगा?
    उनका उत्तर निम्न है।
    उत्तर के लिए, सभी पाठकों की ओरसे जोशी जी को धन्यवाद ।
    ================================

    “हिंदी में जायेगा और जाएगा दोनों स्वीकृत हैं |”
    हिंदी एक तद्भव भाषा है और लोकभाषा भी इसलिए उसमें संस्कृत जितना अनुशासन और बंधन नहीं है |
    “हाँ, जायगा प्रचलित नहीं है”
    फिर भी कवि छंद में मात्रा के वज़न की मांग के कारण यह छूट ले लेते हैं |
    ===लेखक, कवि, पूर्व हिंदी अध्यापक, प्रधान सम्पादक, ‘विश्वा’, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की त्रैमासिक पत्रिका

  5. आदरणीय मधुसूदन जी,

    आप के लेखों मे दिये गए प्रामाणिक व तर्कपूर्ण ज्ञान को पा कर मुझे अपने भारतीय होने पर बहुत गर्व होता है | भारतीय शिक्षण संस्थानो मे आज के समय मे दी जाने वाली शिक्षा मे भारत के प्रति स्वाभिमान की भावना जगाए जाने का नितांत अभाव है और इसका कारण है हिन्दी, संस्कृत या अन्य किसी भी भारतीय भाषा का रोजगार की भाषा न बन पाना | आम जन मानस के मन मे ये मिथक बड़ी ही मजबूती से बैठा दिया गया है की यदि विज्ञान सीखना है तो अंग्रेज़ी का ज्ञान आवश्यक है, यदि प्रबंधन सीखना है तो अंग्रेज़ी का ज्ञान आवश्यक है यहाँ तक की यदि आप को अपने ही देश मे आधुनिक और सभ्य दिखना है तो अंग्रेज़ी का ज्ञान आवश्यक है | इन्ही बातों ने हमारे भीतर हीन भावना भरी और साथ ही बड़ी ही चालाकी के साथ संविधान संशोधन के द्वारा अंग्रेज़ी को राजभाषा का दर्जा दिये जाने से अंग्रेज़ी को सरकारी समर्थन और पोषण भी मिला | इस सब का नुकसान आज ये है की हमारे देश का विज्ञान पिछड़ा हुआ है, कोई भी नया शोध नहीं होता, आई आई टी के छात्र भारत मे पढ़ाई पूरी कर के विदेशी कंपनियों के लिए काम करने की इच्छा लिए विदेशों मे बस जाते है और हम लाचार हो कर बचे खुचे से काम चलाते है |

    आज ज़रूरत है हमे आप जैसे देशभक्त ज्ञानियों की जो हमे सही मार्गदर्शन दे सके जिस से की हम अपने देश मे फैली इस गुलाम मानसिकता का समूल नाश कर के एक ऐसी नयी व्यवस्था की रचना कर सके जो भारतीयता आधारित हो और जिसमे भारतीय भाषाओं को ही प्राथमिकता हो | आपकी वेदना भारत के हर उस व्यक्ति की वेदना है जो देशभक्त है | मेरा निवेदन है की आप एक ऐसी पुस्तक लिखें जिसके द्वारा हम तर्क पूर्ण ढंग से अङ्ग्रेज़ी का विरोध कर सके | ऐसी पुस्तक से मिलने वाले प्रमाणो के द्वारा अपनी बात को फैलाने मे हमे बहुत ही सहायता मिलेगी |

    • बंधु शुक्ल जी।–नमस्कार।
      अवश्य।
      टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
      समस्या वैयक्तिक ही नहीं सामुहिक भी है। दोनों को सुलझाने के उपाय अलग अलग है। सामुहिक समस्या शिक्षातंत्र-सुधार के प्रबंधन से ही संभव है।
      वैयक्तिक, परिवार के मुखिया के निर्णय से प्रभावित और संचलित हुआ करते है।
      जन भाषा में पढाई से हमारा ४०% (राष्ट्रीय संपत्ति का भाग) बच जाता है।
      प्रत्येक छात्र के ५ वर्ष बच जाते हैं। साथ उसकी उत्पादन क्षमता, चिंतन क्षमता बढ जाती है।
      ———————————————
      इन बचे ५ वर्षों में स्वैच्छिक रीति से जिन्हें रूसी, चीनी, जापानी, फ़्रान्सीसी, जर्मनी, अंग्रेज़ी, लातिनी, युनानी, अरेबिक, फारसी, इत्यादि अनेक भाषाओं में से चुनकर पढने की सुविधा भी दी जा सकती है।
      यह विश्वविद्यालयीन स्तर पर होगा।
      —————————————————
      कभी जर्मनी का बोलबाला था। (ई.स. १९३०-४० के आसपास)–तो जर्मन सीखो।
      कभी रूस का बोलबाला था। (ई.स. १९४५ के बाद )—रूसी सीखो।
      कभी इंग्लैण्ड का भी राज था। (ई. स. १९५० तक)—इंग्लिश सीखो।
      अब अमरिका का भी बोलबाला घटता जा रहा है।—अमरिकन (अलग है) सीखो।
      ====>हमें कम से कम सोचना तो चाहिए, कि, आगे की दिशा क्या होगी?
      —————————————————————–
      कुछ लोग अवश्य परदेशी भाषाएं सीखेंगे-और सीखनी भी चाहिए।अंग्रेज़ी उसमें एक भले हो।
      पर इसके लिए. ४०% अधिक खर्च, साथ, प्रति छात्र, ५ वर्ष का अनुचित खर्च भारत क्यों कर रहा है?
      ==>यह आलेख के लिए उचित विषय है।

      प्रश्न सदा उठाते रहें। दिशा मिलती है विचार के लिए।
      टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

      • आपकी बात एकदम सही है | ऐसे राष्ट्रीय संसाधनो की बरबादी के कारण ही हम पिछड़े हुए है | विचारों और सोचने की क्षमताओं मे गिरावट आ रही है | मेरा ऐसा मत है की यदि हमारे देश को आगे बढ़ना है तो शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है | साथ ही शिक्षा मातृभाषा मे हो तभी उत्तम है | इसके साथ साथ हमारी प्राथमिकता एक विदेशी भाषा के साथ साथ प्रत्येक छात्र को एक भारतीय भाषा का ज्ञान दिये जाने की भी होनी ही चाहिए | यदि प्रत्येक छात्र मातृ भाषा के साथ साथ एक और भारतीय भाषा जैसे हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलेगु, मलयालम, कन्नड, असमिया, गुजरती आदि मे से कोई एक भाषा सीखेगा तो इस से भी रोजगार मे सकारात्मक तौर पर वृद्धि हो सकती है | प्रत्येक स्कूल या कॉलेज को लगभग छब्बीस भारतीय भाषाओं के शिक्षकों को नियुक्त करना होगा और इसके द्वारा भाषा की दूरियाँ मिटाई जा सकती है | अपनी इच्छा से किसी भी एक भारतीय भाषा और एक विदेशी भाषा के अध्ययन से अंग्रेज़ी का प्रभुत्व खत्म होगा और सकारात्मक सोच का विकास होगा | अलग अलग भाषाओं के साहित्य को पढ़ कर लोगों को अपनी विचारशीलता को बढ़ाने मे मदद मिलेगी और सबसे बड़ी बात भाषा के आधार पर जो बंटवार इस देश का अलग अलग राज्यों मे किया गया है उसका महत्व खत्म हो जाएगा | अंग्रेज़ी के प्रभुत्व के कारण आज बड़ी आसानी से हमारे नेता अपनी क्षुद्र सोच को बड़ी आसानी से हमारे मन मे बैठा कर हमे आपस मे लड़वाते है और अपना उल्लू सीधा करते है | इस से राष्ट्र की एकता भी खतरे मे पड़ जाती है | इसीलिए शिक्षा मे भाषा के लिए एक अलग नीति की सख्त आवश्यकता है | हालांकि शुरुआत मे ये कठिन होगा पर यदि ऐसी किसी भी नीति को क्रियान्वित किया जाये तो इसके दूरगामी सकारात्मक परिणाम होंगे | हम अपने राष्ट्र पर गर्व कर सकेंगे और अपनी कुरीतियों के जंजाल से भी बाहर आ सकेंगे |

  6. श्रद्धेय डा.साहब
    अति उत्तम आलेख के लिये कोटि कोटि धन्यवाद.
    १.यजुर्वेद के ३२वे अध्याय मे विमान शब्द आया है.
    इसका अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द लिख्ते हैं-सब लोक लोकान्तरों को विशेष मान युक्त अर्थात जैसे आकाश मे पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोको का निर्माण करता और भ्रमण कराता है.
    स्पष्ट है कि महर्षि यहाँ ईश्वर की स्तुति में इस शब्द कि इस प्रकार व्याख्या कर रहे है.यहाँ वि का अर्थ पक्षी से है इसलिए विमान का अर्थ पक्षी के सामान उड़ने वाला भी बनता है.परन्तु यहाँ अंतरिक्ष के उस विज्ञानमय रहस्य को भी स्पष्ट कर दिया है कि आकाश में असंख्य लोक लोकान्तर हैं जो भ्रमण कर रहे हैं.सचमुच कितनी वैज्ञानिक है हमारी संस्कृत भाषा.
    २.दिल्ली के निकट नॉएडा में प्रज्ञान संस्थान है जिसमे प्रज्ञान शब्द की वर्त्तनी संस्थान के विद्वान् प्रबंधकों ने pragyan लिखी है.
    ३.इसी शहर में institutional को हिंदी में इंसिटीट्यूशनल लिखा गया है.
    ४.स्वामी रामदेव जी द्वारा जो औषधि आदि उत्पादित की जा रही हैं उनके लिए एक दुकान के बाहर लिखा था-स्वामी रामदेव के “उत्पात” यहाँ मिलते हैं.
    जब भी कहीं ऐसी मूर्खताओं को देखता हूँ तो बड़ा कष्ट होता है.इसलिए युवा पीढ़ी के जागरण की महती आवश्यकता है अतः आपके समसामयिक आलेख के लिए आपको ह्रदय से नमन करता हूँ.
    आपका मार्गदर्शन युवा पीढ़ी के लिए अतीव लाभप्रद सिद्ध होगा ऐसा विश्वास है.
    सादर

    • प्रिय राकेश जी
      सप्रेम नमस्कार।
      अब धीरे धीरे ऐसा भी लगता जा रहा है, कि सचमुच में शिव जी का डमरु बजा ही था।
      आज मुझे पूरा तर्कनिष्ठ विश्वास होता चला है, कि (१) ’देवनागरी’ समस्त विश्व-भाषाओं में परमोच्च लिपि, और(२) उसके साथ जोड दीजिए परमोच्च भाषा’देववाणी’।
      फिर (३) उसकी ’परमोच्च शब्द रचनाक्षमता’।
      और (४) और ’परमोच्च परिपूर्ण व्याकर’।
      यह सारा (५) हम जैसी ’परमोच्च कुपात्र प्रजा’ को, देने में परमात्मां ने भी हमारा पक्ष क्यों लिया ?
      ———————————सोचिए!——————————–
      न लातिनी, न युनानी, न अरेबिक, न चीनी/जापानी इत्यादि सारी भाषाओं को जोड कर जो भाषा बनेगी, उसकी भी ऐसी क्षमता नहीं हो सकती।इतनी सारी तो मौलिक भाषाएं समझी जाती है, जो अपने अपने शब्द भी रचती है।पर हमारी तुलना में तुच्छ ही है।( नहीं, मुझे पागल कुत्ते नें काटा नहीं है।)
      इन सारों के जोड से भी हम आगे हैं।बाकी भाषाएं तो स्वतः उधारी पर ही चलती है।कभी इसी बिन्दू की चर्चा आगे आलेख में उचित अनुक्रम से करना चाहता हूँ।
      वास्तव में जैसे जैसे अध्ययन कर रहा हूँ; अनेकानेक पहलु सामने आ जाते हैं।
      ईश्वरी कृपा है, गर्व नहीं करता।
      टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

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