ममता का वामपंथ प्रेम कितना असली ?

पैंतीस साल के वामशासन की आयरनी है कि लोकतंत्र की रक्षा का भार अब वाम के कंधों से उतरकर अवाम दलों के कंधों पर चला गया है। वाम का एकच्छत्र सामाजिक नियंत्रण टूट चुका है। विकल्प के रूप में विपक्षी दलों की साख बेहतर हुई है। खासकर ममता बनर्जी और उनके दल के प्रति आम आदमी की आस्थाएं मुखर हुई हैं। यह पश्चिम बंगाल के लोकतांत्रिक वातावरण के लिए शुभसंकेत है। वामदलों को अपनी

राजनीतिक कार्यपद्धति पर गंभीर मंथन करने की जरूरत है। उन्हें उन कारणों को गंभीरता के साथ विश्लेषित करना चाहिए जिनके कारण ममता बनर्जी आज लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की प्रतीक बन गई हैं। वाममोर्चा ने 35 सालों में सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की सबसे बड़ी गलती की है। यह काम किया गया लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतंत्र की आड़ में। वाममोर्चे को यदि फिरसे जनता का दिल जीतना है तो

सामाजिक नियंत्रण की राजनीति को तिलांजलि देनी होगी। वरना भविष्य में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी सेभी बुरी अवस्था का उसे सामना करना पड़ सकता है।

विगत पाँच सालों में ममता बनर्जी और उनके दल की कार्य पद्धति में मूलगामी बदलाव आया है। वे जनता के हितों और दुखों के साथ तेजी से जुड़ी हैं। यह काम उन्होंने पालुलिस्ट राजनीतिक हथकंड़े अपनाते हुए किया है। वे पापुलिज्ट वाम की भाषा बोलती रही हैं। इसी कड़ी में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने 20 फरवरी को धर्मतल्ला पर अपनी चुनाव सभा में कहा ‘वामपंथ अच्छा है,लेकिन

वाममोर्चा खराब है।’ उन्होंने कहा वे वामपंथ की असली वारिस हैं, इसलिए वामपंथी जनता उनका साथ दे। ममता बनर्जी का यह प्रभावशाली चुनावी पैंतरा है। वे इसके बहाने एक साथ कई शिकार करना चाहती हैं,पहला शिकार हैं वाममोर्चे के हमदर्द। ये किसी न किसी वजह से स्थानीय वामनेताओं की दादागिरी से दुखी हैं। ममता के दूसरे शिकार हैं वे लेखक-संस्कृतिकर्मी-फिल्मी कलाकार जो किसी न किसी रूप में

वाम विचारों में आस्था रखते हैं, लंबे समय तक वाममोर्चे के साथ रहे,लेकिन नंदीग्राम-सिंगूर की घटना के बाद से वाममोर्चे का साथ छोड़कर ममता के साथ चले आए हैं। ममता बनर्जी इन लोगों को बाँधे रखना चाहती हैं। इन लोगों की ममता की मीडिया इमेज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। ममता के तीसरे शिकार हैं वे सरकारी कर्मचारी ,कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक जो वाम के साथ हैं लेकिन अपने

वेतनमानों और अन्य सुविधाओं के संबंध में उठायी गयी समस्याओं के अभी तक समुचित समाधान नहीं किए जाने से वाममोर्चा से नाराज हैं। सब जानते हैं ममता बनर्जी और उनका दल वामदल नहीं है। इस दल में वाम के कोई राजनीतिक लक्षण नहीं हैं। यह एकनायककेन्द्रित बुर्जुआदल है,जिसका नव्यउदार आर्थिक नीतियों में विश्वास है।जिसका सामाजिक आधार मध्यवर्ग,लंपट सर्वहारा,कारपोरेट घराने और

जमींदार हैं।

असल में ममता बनर्जी अपने वोटबैंक का दायरा बढ़ाना चाहती हैं और इस समय उनके पास जो वोट हैं वे अब तक के सबसे ज्यादा वोट हैं। इनमें यदि कहीं से भी बढ़ोतरी हो सकती है तो वह है वाममोर्चे के वोट बैंक में सेंधमारी करके। नंदीग्राम-सिंगूर के बहाने जो प्रचार अभियान ममता हनर्जी ने चलाया था उसने वाम के ग्रामीण और अल्पसंख्यक जनाधार को सीधे प्रभावित किया है और वाम को विगत लोकसभा

चुनाव में बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा ।

वाममोर्चे ने जनाधार को बचाए रखने की नीति अपनायी और गांवों में उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण के काम को पूरी तरह रोक दिया। उल्लेखनीय है कारखानों के लिए भूमि अधिग्रहण के सवाल ने पहले से मौजूद सामाजिक असंतोष को अभिव्यक्ति दी है। इसका तत्काल फायदा मिला और गांवों में उठा वामविरोधी उन्माद थम सा गया है, लेकिन इस प्रक्रिया में गांवों में वाममोर्चे का एकच्छत्र शासन खत्म हो गया

है।गांवों में लोकतंत्र को प्रवेश मिल गया है और संयोग से इसका श्रेय किसानों की प्रतिवादी चेतना और ममता बनर्जी को जाता है । उल्लेखनीय है त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था बनाई वाममोर्चे ने, लेकिन पंचायतों के संचालन के नाम पर गांधीवादी सामाजिक शिरकत, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की पद्धति को त्यागकर सामाजिक नियंत्रण की चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पद्धति लागू की गई। वाममोर्चे के

नेता भूल गए पंचायती राज्य का मकसद है गांवों में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जरिए लोकतंत्र को दीर्घजीवी बनाना,लेकिन उन्होंने पंचायती व्यवस्था और भूमि सुधारों को पार्टी के शासनतंत्र और सामाजिक नियंत्रण का हिस्सा बना दिया। इस मसले पर आज भी वाम मोर्चा साफ नहीं है कि क्या वो भविष्य में गांवों में सामाजिक नियंत्रण जारी रखेगा ? वाममोर्चा यदि सामाजिक नियंत्रण में ढ़ील देता

है तो उसे गावों में अपने कैडरों की हत्याओं का डर है, बनाए रखता है तो आम जनता से कट जाने का खतरा है। लालगढ़ में माओवादियों के साथ माकपा की चल रही जंग इस स्थिति का आदर्श उदाहरण है। वाममोर्चे के पास इस प्रसंग में विकल्प बहुत कम हैं। वे सिर्फ एक ही स्थिति में गांवों में जनाधार बनाए रख सकते हैं सामाजिक नियंत्रण और पुलिसबलों के जरिए । ऐसी स्थिति में सतह को नियंत्रित किया जा सकता

है कि लेकिन ग्रामीण जनता के मन में शासन नहीं किया जा सकता, यदि आगामी विधानसभा चुनाव में शांति से वोट पड़े तो ममता बनर्जी के पक्ष में गांवों में हवा बह सकती है। यदि वामदलों ने सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रिया के दौरान हुई ज्यादतियों के लिए आम जनता से ईमानदारी माफी मांगी और उसका दिल जीतने की कोशिश की तो ममता बनर्जी की गांवों में आँधी थम सकती है,लेकिन यह सब कुछ निर्भर करता है

स्थानीय वामनेताओं की विनम्रता और विश्वसनीय कोशिशों पर। वामनेताओं पर आम जनता का विश्वास कम हो गया है और यही सबसे बड़ी बाधा हैं गांवों से लेकर शहरों तक। वामदलों की भाषा,भंगिमा और राजनीति में किसी भी किस्म की लोच इन दिनों नजर नहीं आ रही है और यह वाम समर्थकों के लिए चिन्ता का प्रधान कारण है। वामनेताओं का अहंकार,सत्तामद,बाहुबल का नशा,संगठन का नशा,अन्य दलों के प्रति

नकारात्मकभाव आदि चीजें हैं जो ममता बनर्जी को ईंधन प्रदान कर रहे हैं।

 

 

 

 

 

2 COMMENTS

  1. सत्य तो यह है की बंगाल में ज्यादा जरूरत है जास्मिन जैसी क्रांति की. भारत जैसे प्रजातान्त्रिक देश में, चुपचाप एक तानाशाही स्टालिन स्टाइल वाली तीस साल से चल रही है और यह देश दुसरे देशों को प्रजातंत्र की शिक्षा दे रहा था! बंगाल से सीपीएम का तुरंत खात्मा बहुत जरूरी है. सीपीएम के कैडरों ने कितनो की हत्या की होगी. हमें शर्म आनी चाहिए की एक माफिया राजनीतिक दल की तरह व्यहवहार करते भारत के प्रजातंत्र में पनपता रहा और इस देश के स्वयम्भू दार्शनिक तत्त्व इस माफिया के हाथ में खेलते रहे. येही बामवादी इतिहासकारों ने अकबर औरंगजेब के बारे में ऐसे विस्तार में लिखा है की जैसे यह सारे के सारे उन मुग़ल बादशाहों के समय में जिन्दा थे और आँखों देखा हाल लिखा हो. यह देश बामवादी प्रभावित इतिहास से भी छुटकारा चाहता है.

  2. सरदार है चमकता पर कलई है निक्किल,
    मैडम की रहती है हर शै विजिल
    बाबा को है पढाना और बढानी है स्किल
    बंद करी राग दरबारी उम्र रही है फिसिल
    करी मेहनत खूब पर है बढ़ी मुस्किल
    जब हों DMK TMC जैसे मुवकिल

    समेट ले खोमचा, लग गए कुनबों के ठेले ग़ालिब,
    अब नहीं रही कोई उम्मीद फॉर एनी तालिब.

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