नहीं चाहिए एक और शिवसेना : ठाकरेवादी राजनीति से देश कमजोर ही होगा – संजय द्विवेदी

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shivsenaमहाराष्ट्र और हरियाणा में मीडिया ने जिन्हें खलनायक बनाया था उन्हें जनता ने हीरो बना दिया। राज ठाकरे और ओमप्रकाश चौटाला जिस तरह मीडिया के निशाने पर थे। उनके कर्मों- कुकर्मों की जिस तरह टेलीविजन चैनलों पर व्याख्या हो रही थी वह अद्भुत थी। परिणाम आने के दिन भी चैनल राज के राज पर ही विशेष कार्यक्रम बनाते और दिखाते रहे। आखिर क्या राज में ऐसा क्या है जो मीडिया उनका दीवाना है। महाराष्ट्र की राजनीति में राज ने ऐसा क्या कर दिया कि उसका गुणगान किया जाए। महाराष्ट्र जैसा राज्य जो आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में भारत की प्रगति के प्रवक्ता था, आज एक बार फिर धृणा की राजनीति का केंद्र बन गया है। राज की राजनीति पर नतमस्तक हमारा मीडिया राज की गुंडागर्दी को वैधता प्रदान करता दिखता है।

टीवी चैनलों को ऐसे अतिवादी दृश्य पसंद आते हैं। किंतु इसका कैसा और कितना इस्तेमाल राजनेता करते हैं इसे नहीं भूलना चाहिए। राज ठाकरे का खुद का क्या है, सिर्फ इतना ही कि वह बालठाकरे की राजनीति का ही एक विकृत उत्पाद हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के पास भी दरअसल महाराष्ट्र को लेकर कोई सपना नहीं है। जिस तरह के मुद्दे राज और उनकी पार्टी उठा रही है दरअसल वे मुद्दे आज की राजनीति के मुद्दे हैं ही नहीं। धृणा की राजनीति का 13 सीटों तक सिमट जाना और शिवसेना का 44 सीटों पर सिमट जाना यह बताता है लोंगों को एक और शिवसेना नहीं चाहिए। इसीलिए लोगों ने नाकारा और तमाम मोर्चों पर विफल होने के बावजूद कांग्रेस की सरकार को तीसरी बार मौका दिया क्योंकि यह सरकार क्रियान्वयन के मोर्चे पर विफल जरूर रही है किंतु उसके पास ऐसा नेतृत्व है जिसकी प्राथमिकता में देश सबसे ऊपर है (संदर्भ-राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह)। लोग क्या करें वे मजबूरी में नाकारा विकल्पों को स्वीकृति देतें हैं। किंतु महाराष्ट्र के परिणाम यह बताते हैं वहां के लोगों ने धृणा की राजनीति को नकार दिया है। यह शिवसेना ही नहीं, शिवसेना मार्का राजनीति के पतन की शुरूआत है। यह कहना मामले को अतिसरलीकृत करके देखना है कि इस घर को आग लग गयी घर के चिराग से। चिराग साथ भी होते तो आज के बदलते समय में लोगों को शिवसेना या उस जैसी राजनीति करने वाले दलों से मोहभंग हो चुका है। जिस मुंबई शहर की 36 सीटों पर मनसे को 6 सीटें मिलने की मनमानी व्याख्या की जा रही है उसका सच यह है कि मनसे और शिवसेना मिलकर 10 सीटें जीते हैं और 26 सीटें अन्य दलों को मिली हैं। सो ठाकरे परिवार का यह दंभ टूट जाना चाहिए कि वे मुंबई पर राज करते हैं। मुंबई का संदेश साफ तौर कांग्रेस एनसीपी गठबंधन पक्ष में है जिन्हें 20 सीटें मिली हैं। सो 36 में बीस सीटें जीतने पर चर्चा के बजाए मनसे की 6 सीटों पर बात हो रही है। राजनीतिक ईमानदारी है तो महाराष्ट्र जैसे राज्य में समाजवादी पार्टी के चार सीटें जीतने पर और मुंबई शहर में उसका खाता खुलने पर बात क्यों नहीं हो रही है। सच्चाई तो यह है कि यह पराजय वास्तव में शिवसेना मार्का राजनीति की पराजय है और कई मायनों में कांग्रेस की विजय नहीं भी है। विकल्पहीनता के नाते जनता का मत ऐसे ही परिणाम लाता है।

शिवसेना दरअसल एक थका हुआ और पराजित विचार है। उसकी राजनीति अंततः उसे उन्हीं अंघेरों में ले जाती है जिस रात की सुबह नहीं होती। शायद इसीलिए शिवसेना को 20 वर्षों में यह सबसे बड़ी पराजय मिली है। राज उस थकी हुयी शिवसेना का ही उत्पाद हैं वे यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि उन्हें अपनी उग्र राजनीति से 13 सीटें मिल गयी हैं। पर यही उनकी शक्ति और सीमा दोनों है। संकट है यह कि राज न राष्ट्र को जानते हैं न महाराष्ट्र को उनकी राजनीति अंततः अंघेरे बांटने की राजनीति है। शिवसेना के पास राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सोच का घोर अभाव है, सो मनसे के पास ऐसा कुछ होगा सोचना बेमानी ही है। राजनीति के मैदान में राज ठाकरे के तेवर उन्हें फौरी सफलताएं दिला सकते हैं पर आज का समय और उसकी चुनौतियों से जूझने का माद्दा मनसे या शिवसेना जैसी पार्टियों के पास नहीं है। राज्य के लोंगों ने शिवसेना को ठुकराया है वे मनसे को भी अपनाने वाले नहीं है। भाजपा जैसे दलों को भी यह विचार करना पड़ेगा कि आखिर वह शिवसेना जैसे दलों के साथ कब तक और कैसा रिश्ता चाहते हैं। क्योंकि राजनीति में कार्यक्रम और नीतियों के साथ ही जिया जा सकता है। राज ठाकरे अपनी पारिवारिक विरासत से अपना हिस्सा तो ले सकते हैं किंतु नई इबारत गढ़ना आसान नहीं है। संधर्ष की राजनीति करना आसान नहीं है। कांग्रेस की राजनीति ने राज की गुंडागर्दी पर लगाम न लगाकर उन्हें महत्वपूर्ण होने का मौका दिया। इसका फायदा भी फौरी तौर पर कांग्रेस को मिला है। किंतु राज, एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक प्रवृत्ति का नाम है। वह कल किसी नए नाम और चेहरे से प्रकट हो सकती है। राज ठाकरे जैसे लोंगों की आंशिक सफलताएं भी हमारे जैसे बहुलतावादी समाज के धातक है। इस प्रवृत्ति रोक लगाने में जनता के साथ उन राजनीतिक दलों औऱ नेताओं को भी सामने आना होगा जो देश की एकता-अखंडता-सदभाव को बनाए रखना चाहते हैं। बाल ठाकरे और राज ठाकरे नुमा राजनीति से महाराष्ट्र की मुक्ति में ही उसका भविष्य है। ध्यान रहे राज ठाकरे कभी नरेंद्र मोदी नहीं हो सकते क्योंकि उनके परिवार और विचारधारा दोनों ने उन्हें कुछ भी सकारात्मक नहीं सिखाया है। इसलिए मीडिया के मित्रों को भी यही सलाह कि राज पर इतना प्यार न बरसाइए वह इसके लायक कहां हैं।

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  1. महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव परिणाम से एक बात साफ हो गयी है की महाराष्ट्र की जनता ने शिवसेना और मनसे की बाँटो और राज करो की नीति को सिरे से नकार दिया है। यह भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए एक शुभ संकेत है। मनसे के निर्माण के समय राज ठाकरे ने शिवसेना के इतिहास को दोहराते हुऐ उत्तर भारतीयों के खिलाफ महाराष्ट्र की जनता को भड़काना शुरु किया और इसी को अपना मुख्य राजनैतिक एजेंडा बनाया। फर्क बस इतना था कि इस बार निशाने इस बार दक्षिण भारतीय नही थे। जिस प्रकार बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाकर शिवसेना को एक मजबूत जनाधार की पार्टी के रूप खड़ा किया था। उसी विचारधारा को अपनाकर मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने भी अपनी पार्टी को मजबूत जनाधार देने की कोशिश की, जिसमें वे असफल हुऐ। मुंबई पर हुए 26\11 आंतकवादी हमले के समय जिस प्रकार पूरा भारत मुंबई के साथ खड़ा था। उसी समय यह दिखने लगा था कि अब राज ठाकरे की मंशा पर महाराष्ट्र की जनता मुहर नही लगायेगी। यह उत्साहजनक है और सभी भारतीयों को इसी प्रकार धर्म, भाषा, क्षेत्र के आधार पर होने वाली राजनीति को नकार कर विकास के मुद्दे को प्राथमिकता देनी चाहिए।

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