दलित समस्याओं के समाधान के लिए सार्थक पहल की आवश्यकता

– अखिलेश आर्येन्दु

पिछले दिनों हरियाणा के हांसी के मिर्चपुर गांव के दलितों के अनेक घर गांव के दबंगो के जरिए जला देने के बाद दलित समस्या एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है। एक सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर कब तक दलित उच्च वर्गों के जरिए उत्पीड़ित किए जाते रहेंगे। कब वे दूसरी जातियों की तरह आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहतर होंगे और वह भी समाज में उसी तरह सम्मान के साथ निडर होकर जी सकेंगे जैसे समाज के अगड़े जी रहे हैं। इसी के साथ शासन की लापरवाही कार्यप्रणाली को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या कारण है आजादी के 64 वर्षों के बाद भी दलितों पर उत्पीड़न जारी है। इसी के साथ दलितों की हितों को लेकर अनेक संगठन धरना-प्रदर्शन करके अपना विरोध दर्ज कराने में लगे हैं। देखा जाए तो दलितों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लागू की गईं योजनाओं के अपेक्षित परिणाम वैसे नहीं आ रहे हैं जैसे आने चाहिए। जिस आक्रामकता के साथ दलित समस्याओं को उठाया जा रहा है उससे यह साफ हो गया कि अब दलितों के प्रति बरती जा रही उपेक्षा को ज्यादा दिन तक दलित समाज और संगठन बर्दास्त नहीं करेगा। इससे यह बात साफ हो गई है कि सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों की समीक्षा बिना किसी आग्रह या दुराग्रह के करने का वक्त आ गया है।

भारत में सामाजिक जातिगत और आर्थिक विषमता इस कदर गहरी है कि ऐसे बहुत कम लोग हैं जो दलितों को सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहतर होते हुए खुश होते हों। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दलितों की बेहतरी के लिए जो योजनाएं लागू की जाती हैं, वे अधिकांशतः भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती हैं। इसलिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों के लिए जारी धन इतनी देर में और इतने कम तादाद में पहुंच पाता है कि उससे उनकी बेहतरी की आशा नहीं की जा सकती है। उदाहरण के तौर पर मनरेगा को ही ले लें। सरकार द्वारा गांव के बेरोजगारों को 100 दिन की रोजगार की गारंटी देने वाली इस योजना के लिए आवंटित धन अधिकांश जिलों में जरूरतमंद लोगों के पास नहीं पहुंच पा रहा है और इस्तेमाल के पहले ही भ्रष्टाचार का शिकार हो जाता है। इसे ग्रामीण विकास मंत्रालय की संसदीय समिति के सर्वेक्षण रपट में भी स्वीकार किया गया है। इसी तरह दलितों के मैला ढोने के कार्य को समाप्त करने की तमाम घोषणाओं के बावजूद अभी भी बड़ी तदाद में शहरों और कस्बों की दलित महिलाएं इस अमानवीय-प्रथा से मजबूरीवश लगी हुई हैं। जबकि केंद्र और राज्य सरकारें इस कुप्रथा को जड़ से ही खत्म करने के दावे करतीं रहीं हैं। जाहिर है जब तक राज्य और केंद्र सरकार इनके रोजगार और आय के दूसरे साधनों की मुकम्मल व्यवस्था नहीं करते, इस घृणित-प्रथा से उन्हें छुटकारा दिला पाना मुश्किल का काम है। गांवों में दलित खेतीहर मजदूर के रूप में आज भी शोषण का शिकार हो रहा है। इसके अलावा लाखों की तादाद में बंधुआ मजदूर के रूप में दलित शोषित हो रहा है। जिन 75 लाख परिवारों के पास अपनी हकदारी का आवास न होने की बात सरकार मानती है उनमें से ज्यादातर दलित तबके के ही लोग हैं। गांवों में भूमि-सुधार की जो पहल आजादी के बाद की गई थी(विनोबा भावे ने एक सार्थक पहल आजादी के बाद भूमि-सुधार को लेकर बिहार और दूसरे कई राज्यों में की थी जिसके सार्थक परिणाम निकले थे) वह कारगर नहीं हो पाई, जिसका परिणाम यह हुआ कि गांव का दलित आज भी तमाम कोशिशों के बावजूद खेती के काबिल जमीन से लगभग महरूम है। गांव-गांव में पानी के संकट से निजात दिलाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने चापाकल(हैंडपंप) लगवाने की जो योजनाएं लागू की उससे बहुत बड़ी तादाद में दलितों को लाभ तो हुआ है, लेकिन अभी भारत के हजारों दलित गांव ऐसे हैं, जहां न तो चापाकल पहुंच पाया है और न ही बिजली के तार ही लग पाए हैं। इसके अलावा और भी तमाम समस्याएं हैं, जिससे गांव का दलित रोजाना रूबरू होता रहता है।

यह सच है कि अभी भी दलित समाज भारतीय समाज के दूसरे तबकों से कई मायने में बहुत पीछे है, लेकिन यह भी सच है कि आजादी के बाद दलित समाज को जो सरकारी, संवैधानिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक अधिकार हासिल हुए वे हजारों वर्षों में पहली बार हासिल हुए। इसलिए दलित संगठनों को अपनी आक्रमकता के वक्त इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि दलित उत्थान और उनकी बेहतर स्थिति जो अब है, वह भारत के इतिहास में कभी भी नहीं थी। गांवों में जहां उन्हें कुएं का पानी भरना दूर, कुएं पर चढ़ने की भी मनाही थी, वहां पर अब वह निडर होकर(कुछ अपवादों को छोड़ दे) पानी भरता है। जहां पर वह शादी-ब्याह में शान-शौकत नहीं दिखा सकता था, अब वह अपनी मर्जी से खूब धूमधाम से विवाह संपन्न कराता है। दलित शासन और प्रशासन के उस ऊंचाई पर पहुंच गया है, जहां आजादी के पहले उसके पूर्वज कभी स्वप्न में भी शायद सोचे होंगे।

आजादी के बाद से ही दलितों के किसी आयु-वर्ग के व्यक्ति के साथ भेदभाव करना एक बहुत बड़ा अपराध माना गया। इसे बाकयदे संविधान में शामिल किया गया। जो अधिकार दलितों के बच्चों और महिलाओं को आजादी के बाद हासिल हुए, वे उन्हें हर तरह से आगे बढ़ने की गारंटी और सुरक्षा दोनों देते हैं। इसी तरह दलित लड़कियों और लड़कों के शिक्षा और नौकरी के लिए शासन ने जो सुविधाएं दी हुईं है, यह उनके प्रति शासन की सहिष्णुता और उनके प्रति संवेदना नहीं तो क्या कहा जाएगा? मतलब ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां दलितों को विशेष दर्जा न हासिल हो। इसके बावजूद दलितों पर अत्याचार देश के हर हिस्से में होते रहते हैं। इस पर केंद्र और राज्य सरकारों को सिद्दत से सोचना होगा।

बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने दलितों की अत्यंत खराब स्थिति के कारण ही संविधान में इनके लिए जगह-जगह आरक्षण की व्यवस्था की थी। उसका फायदा इन्हें पिछले 64 वर्षों में शासन, प्रशासन, शिक्षा, रोजगार, रोटी, कपड़ा और मकान में लगातार मिलता आ रहा है। आज दलितों की बेहतर होने स्थिति के लिए डॉ. अंबेडकर का दलित समाज श्रेणी है। लेकिन अभी भी समाज में इन्हें वह बेहतर स्थिति हासिल करनी है जो बाबा साहब चाहते थे। लेकिन इन्हें हासिल करने के लिए आक्रमकता की जगह बुध्दि और विवके से आगे बढ़ना ज्यादा मुफीद होगा। अंबेडकर ने शिक्षित

हो, आगे बढ़ो, और संषर्घ करो का जो नारा दिया था, उसमें आक्रमकता की कोई जगह नहीं है। गांधी जी भी हिंसा या आक्रमकता के जरिए धन, अधिकार और सम्मान हासिल करने के हमेशा खिलाफ थे। इसीलिए वे किसी भी समस्या का हल ढूढ़ने में हमेशा अहिंसा और सत्याग्रह का ही सहारा लेते थे। यह सही है कि आजादी के बाद अहिंसा और सत्याग्रह के जरिए शासन तक अपनी बात पहुंचाने की गुजाइश बहुत कम हो गई है, लेकिन यह भी सही है कि हिंसा या आक्रमकता किसी समस्या का संपूर्ण और अंतिम हल नहीं है। इसलिए दलितों के हक की लड़ाई लड़ते वक्त दलित पार्टियां और संगठन आक्रमक रुख अपनाने से पीछे नहीं हटते हैं।

अच्छा यह हो कि दलित संगठनों को दलितों की समस्याओं, उनके साथ हो रहे अन्याय और शोषण की चर्चा करते वक्त संविधान और शासन द्वारा दी गई मदद और मिले अधिकारों की भी बात को स्वीकार करना चाहिए। इससे ही दलितों के प्रति जहां एक स्वस्थ नजरिया बनेगी वहीं पर समस्याओं को उठाने पर उसे शासन और प्रशासन के अलावा जन सहयोग भी पूरी तरह से सिद्दत के साथ मिल सकेगा। आज दलित वर्ग का व्यक्ति लोक सभा अध्यक्ष से लेकर गवर्नर तक जैसे महत्वपूर्ण पदों तक पहुंच चुका है। यानी हर क्षेत्र में दलित समाज आगे कदम बढ़ा चुका है, बावजूद उनके साथ भेदभाव और अत्याचार अभी खत्म नहीं हुए हैं। समाज के इस सबसे निचले तबके के साथ जब तक पूरा सम्मान और सद्भावना नहीं हासिल होता, इनके साथ न्याय नहीं हो सकता।

 

* लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक और समाजकर्मी हैं।

5 COMMENTS

  1. लेखक का कहना कि “आज दलित वर्ग का व्यक्ति लोक सभा अध्यक्ष से लेकर गवर्नर तक जैसे महत्वपूर्ण पदों तक पहुंच चुका है। यानी हर क्षेत्र में दलित समाज आगे कदम बढ़ा चुका है” निस्संदेह उचित है लेकिन अधिकतर शहरों में रहते ऐसे व्यक्ति अपने आर्थिक विकास द्वारा जाति समाज से ऊपर उठ अवश्य ही आर्थिक रूप से परिभाषित वर्ग में प्रवेश हो जाते हैं परंतु भारतीय संस्कृति में अंतर्निहित व्यक्तिवाद के कारण वे दूसरे दलित लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं कर पाते| ऐसे में दलित समस्याओं के समाधान के लिए सार्थक पहल कौन करे?

  2. Gujrat me dalit hona abhishrap hai.yha patel jati khud ko mahan or bhagvan ki santan mante hai.patel ke alava kisi ko ghar nahi bech ya kharid nahi shakte,socatiy me notish boad lagate hai.

  3. सभी बिंदुओं को आवरित करता लेख–धन्यवाद। ऐसे पारंपरिक परिवर्तन धीरे धीरे और उत्क्रांतिशीलता से होते हैं; क्रांति से नहीं। क्रांति के गर्भ में
    प्रति-क्रांति हुआ करती है।(पेंड्युलम वापस जाता है,फिर सारा गुड गोबर..?और लाभमें मिला,द्वेष)भारतमें कई बार उत्क्रांति हुयी है। और,
    भारत हर परिस्थिति सीख ले,आगे बढा है।
    =>४ वेदों से आगे बढा =>१०८ उपनिषद रचे=>छ दर्शन=>१८ पुराण=>१८ उप पुराण=>रामायण=>महाभारत=>अनेक अवतार=>जैन=>बुद्ध धर्म इन सभीसे सीखते सीखते और हर किसीसे नयी नयी प्रथाएं अपनाते अपनाते बढा है।
    विधवा-उद्धार,महिला-शिक्षण,अस्पृश्यता-निवारण,—इत्यादि,बडी लंबी सूचि है।
    ==भारतीय समाजकी यह प्रकृति है। वह सहज रूपसे उत्क्रांति सहता है। जो धीरे धीरे होती है।== और यदि हमारा दलित न्य़ून गंड (लघुता ग्रंथी) छोड दे,(यह सामर्थ्य प्राप्त करने से होता है)तो यह उत्क्रांति शीघ्रता से हो सकती है। इसे Catalytic घटकों द्वारा किया जा सकता है। सामर्थ्य,क्षमता कुछ मात्रामें,संपादित (प्राप्त)करना पडती है। उसे प्राप्त करने में अधिक अवसर उपलब्ध हो।हाथमें जैसे कोई डिग्री देनेसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता,वैसे किसीने आपको पंडित कहनेसे पंडिताई नहीं आ जाती।बिना मेहनत कोई कुछ दे दे तो भी उससे गौरव या अस्मिता जाग्रत नहीं होती। वह भीख के समान लगती है।
    ===*बाकी, ऐसी प्रक्रियाएं धीमी ही होती है। और होनी भी चाहिए।** समाज अपना है,यह भावना दोनो ओरसे होनी चाहिए।**भारतकी संस्कृति ऐसी है।उसका इतिहास रक्त पिपासू नहीं है। उसे सफल करना हमारा कर्तव्य है।सभी सहायक हो, क्या सवर्ण क्या अवर्ण।
    ==ज्योतसे ज्योत जगाते चलो…Escalation प्रेम escalate होगा। —संत ज्ञानेश्वर॥

  4. सभी बिंदुओं को आवरित करता लेख–धन्यवाद। ऐसे पारंपरिक परिवर्तन धीरे धीरे और उत्क्रांतिशीलता से होते हैं; क्रांति से नहीं। क्रांति के गर्भ में
    प्रति-क्रांति हुआ करती है।(पेंड्युलम वापस जाता है,फिर सारा गुड गोबर..?और लाभ में द्वेष प्राप्ति)भारतमें कई बार उत्क्रांति हुयी है। और,
    भारत हर परिस्थिति सीख ले, आगे बढा है।
    =>४ वेदों से आगे बढा =>१०८ उपनिषद रचे=>छ दर्शन=>१८ पुराण=>१८ उप पुराण=>रामायण=>महाभारत=>अनेक अवतार=>जैन=>बुद्ध धर्म इन सभीसे सीखते सीखते और हर किसीसे नयी नयी प्रथाएं अपनाते अपनाते बढा है।
    विधवा उद्धार,महिला शिक्षण,अस्पृश्यता निवारण,—इत्यादि बडी लंबी सूचि है।
    ==भारतीय समाजकी यह प्रकृति है। वह सहज रूपसे उत्क्रांति सहता है। जो धीरे धीरे होती है।== और यदि हमारा दलित न्य़ून गंड (लघुता ग्रंथी) छोड दे,(यह सामर्थ्य प्राप्त करने से होता है)तो यह उत्क्रांति शीघ्रता से हो सकती है। इसे Catalytic घटकों द्वारा किया जा सकता है। सामर्थ्य,क्षमता कुछ मात्रामें,संपादित (प्राप्त)करना पडती है। उसे प्राप्त करने में अधिक अवसर उपलब्ध हो। हाथमें जैसे कोई डिग्री देनेसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता,वैसे किसीने आपको पंडित कहनेसे पंडिताई नहीं आ जाती।बिना मेहनत कोई कुछ दे दे तो भी उससे गौरव या अस्मिता जाग्रत नहीं होती। वह भीख के समान लगती है।
    ===*बाकी, ऐसी प्रक्रियाएं धीमी ही होती है। और होनी भी चाहिए। समाज अपना है,यह भावना दोनो ओरसे होनी चाहिए। भारतकी संस्कृति ऐसी है।उसका इतिहास रक्त पिपासू नहीं है।
    ==ज्योतसे ज्योत जगाते चलो…Escalation प्रेम escalate होगा। —संत ज्ञानेश्वर॥

  5. प्रिय अखिलेशजी
    दलित शोषित .उत्पीडित .दमित भारतीय जनता का वास्तविक चित्रण करने के लिए .धन्यबाद .
    अब प्रश्न यह है की इस बदहाल बदसूरत हजारों साल पुराणी तस्वीर को धो पोंछ कर जैसे तैसे दुनिदारी को आगे बढाते जाना है ;या की इस तस्वीर को आमूल चुल बदलने की तजवीज़ तलाशना है .
    महात्मा कबीर महात्मा ज्योतिवा फूले .बाबा साहिब आम्बेडकर तथा बाबु जगजीवनराम जैसे अन्य अनेक समाज सेवक सदियों से होते रहे हैं और आज भी अनेक महान लेखक कवी साहित्यकार समाज सुधारक तथा राजनेतिक हस्तियाँ इस यक्ष प्रश्न को हल करने में जुटी हैं की कैसे इस सत्तर करोड़ दलित शोषित जनता का उद्धार हो .
    भारत की जातीय समाज व्यवस्था की जकडन को समझने के बाद भी यदि जातीय संघर्ष में ही उत्थान खोजोगे तो वही होगा जो अब तक होता आया है याने की समाज के चंद चतुर चालाक तो राजनेतिक रोटी सेंकते रहेंगे .स्वयम नव सवर्ण बनकर अपने ही सजातीय दलित बंधुओं से पैर पुजाने लगेंगे धन के पहाड़ खड़े कर लेंगे और जातीय उन्म्माद की आग में अपने sahodaron को jalne के लिए be sahara chhoda denge .yh koi anhoni nahin apitu etihasik sachchai है .ath अब भी vkt है jaateeyta का sanghars chhodo varg sanghars की taiyyari karo .sabhi dharam sabhi jaat के gareeb ek hokar jab samuchi vyvastha par halla bolenge tabhi desh के karodon asprshy दलित और एनी jaat dharam के gareev इस mahaa patit jati vyvastha से mukt हो sakenge

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