शहर के बीचो- बीच भगवान का जर्जर मंदिर। भगवान का मंदिर जितना जर्जर हो रहा था उनके कारदार उतने ही अमीर। पर भगवान तब भी मस्त थे। यह जानते हुए भी कि उनके भक्तों को उनकी रत्ती भर परवाह नहीं। परवाह थी तो बस अपनी कि जो वे भगवान से रूप्या, दो रूप्या चढ़ा मांगें, मंदिर से बाहर आते ही मिल जाए। भगवान उनकी मन्नतें पूरी करते रहें, चाहे वे आधी रात को उनके मंदिर में जा उनकी नींद डिस्टर्ब कर दें तो कर दें।
मंदिर की ताजा पोजीशन श्रोताओ यह थी कि वह बिन बरसात कभी भी गिर सकता था । पर भगवान थे कि गिरते मंदिर में भी लंबी तानकर सोए रहते। शायद उन्हें कहीं से यह पता चल गया था कि जो भगवान होते हैं ,वे अजर- अमर होते हैं। मरेंगे तो लाख जिंदगी की दुआ मांगने के बाद भी उनके भक्त ही।
उनके गिरते मंदिर पर बड़े दिनों से शहर के नामी – गिरामी बिल्डर की कमर्शियल नजर थी। वह सोच रहा था कि भगवान के मंदिर वाली जगह पर वह जैसे – कैसे एक मॉल बना दे बस। वह वहां मॉल बना दे तो उसका सरकारी, गैर सरकारी जमीन पर साम, दाम, दंड, भेद से मॉल बनाने का एक सपना और साकार हो जाए। वह चाहता तो अपने भाइयों को भेज उस मंदिर से भगवान को निकाल भी सकता था पर भगवान का उसमें कुछ विश्वास था सो ऐसा करना उसे अच्छा न लग रहा था।
भगवान में विश्वास होने के बाद भी बिल्डर को सपने में भी कुछ और दिखने की बजाय भगवान की मंदिर वाली जमीन ही दिखाई देती तो वह सपने में ही बड़बड़ाता, भगवान को दगी जुबान गालियां देता जाग पड़ता और तब नींद की गोलियां खाने के बाद भी उसे मुश्किल से नींद आ पाती।
वह तो हरदम मन से यही चाहता था कि इस डील को लेकर जैसे- कैसे भगवान मान जाएं तो बस तो वह रातों- रात उस जगह पर ऐसा मॉल बना उपभोक्ताओं की आंखों में धूल झोंक कर रख दे कि उपभोक्ताओं को जीने से लेकर मरने तक का सारा सामान पलक झपकते एक ही छत के नीचे हाजिर हो जाए। बस , उपभोक्ता के पास कुछ चाहिए तो जेब में पैसा! ।
पर एक भगवान थे कि पट नहीं रहे थे। उन्हें भी बाजार के बीच रहने का चस्का लग गया था। हालांकि उसने कई बार इस बारे भगवान से घुमाफिरा बात भी की कि शहर के बीच चौबीसों घंटे शोर -शराबे के बीच रहकर क्यों अपना दिमागी सुतंलन खराब करते हो, ऐसा करो कि आपके नाम कुछ स्विस बैंक में जमा – शमा करवा देता हूं , आड़े वक्त काम आएगा । और साथ में शहर से दूर गंदे नाले के पास एकांत में तुम्हें टेन स्टार टेंपल भी बनवा देता हूं।
पर भगवान नहीं माने तो नहीं माने।
और एक दिन पता नहीं उसे किसने बताया कि भगवान से मंदिर बड़ी सहजता से खाली करवाया जा सकता है और वह भी बिना किसी खून खराबे के ,तो वह खुशी के मारे पागलों की तरह कूद पड़ा। पर भला हो भगवान का कि गिरने के बाद भी कहीं कोई फें्रक्चर- वेक्चर नहीं हुआ।
‘कैसे?’
‘ऐसा करते हैं मंदिर में कवि सम्मेलन करवाते हैं।’
‘ये कवि – ववि क्या बीमारी होते है?’
‘मत पूछो यार! ऐसी बीमारी होते हैं कि जिसे लग जाए मार कर ही दम लेते हैं।’
‘ये आखिर करते क्या हैं?’
‘कुछ नहीं, बस अपनी सुना- सुना कर बंदे को इतना परेशान कर देते हैं कि वह कई बार तो इनकी कविता के डर के मारे घर तो घर, दुनिया छोड़ कर भी चला जाता है।’
‘सच!’ बिल्डर को लगा उसका मुंह लड्डुओ से भर गया है।
‘हां! मेरे दोस्त!’
‘तो उसके लिए करना क्या होगा?’
‘कुछ नहीं! शहर के सभी कवियों को मंदिर में कवि गोष्ठी करने को आमंत्रित कर दो। फिर देखो, कवियों की कविताओं का जादू! भगवान तो भगवान, उनके पुरखे भी मंदिर में कहीं दिख जाएं तो तुम्हारे जूते पानी पिऊं!’
‘पर कवियों को करना क्या होगा?’
‘कुछ नहीं! ये संसार के वे भोले-भाले, अहंकारी जीव हैं जो चाय- पानी में ही खुश हो जाते हैं। ज्यादा हो गया तो सुरापान करवा दिया। जो इन्हें सुरापान करवा दिया फिर तो समझो कि इनकी कविताएं भगवान तो भगवान शहर को ही खाली करवा दम लें।’
‘तो??’
‘तो क्या!!’
‘ रखवा दो मंदिर में आज शाम ही कवि गोष्ठी। बुला लो शहर के कवियो को मंदिर में कविता पाठ के लिए।’
उधर भगवान को ज्यों ही अपने भक्तों से पता चला कि उनके पुश्तैनी मंदिर में कवि गोष्ठी हो रही है, वे सच्ची को परेशान हो उठे। जब मैं उनके पास साहब को पटाने का आशीर्वाद लेने गया तो उस वक्त वे काफी परेशान थे। जब उनसे उनकी परेशानी का कारण पूछा तो वे आंसू बहाते बोले,‘ क्या बताऊं यार! उस कम्बख्त बिल्डर ने यहां कवि गोष्ठी रख दी है। पहले ही अपने भक्तों का मंदिर में जागरण के नाम पर शोर शराबे में मेरे कान के पर्दे फट गए हैं। घर से भ्गाए जाने के बाद ये भक्त आए रोज रात- रात भर मंदिर में चिमटा ,ढोलक बजा मेरा जीना हराम किए रहते हैं। खुद तो इन्हें औरों का सुख देख नींद आती नहीं, साथ में मुझे भी नहीं सोने देते। अब ऊपर से… कवि शब्द सुना तो बहुत है पर अब ये बताओ ,ये कवि आखिर होते क्या बला हैं?’
‘प्रभु! न ही पूछो तो भला। मैं भी बहुत पहले एक कवि के चंगुल में गलती से फंस गया था। उसने कविताएं सुना- सुना कर इतना परेशान कर दिया था कि जो शोऊच के बहाने कवि की आंखों में धूल झोंक कर न भागता तो वह कविताएं मुझे तब तब सुनाता रहता जब तक मैं मर नहीं जाता।’
‘सच!! तो अब ???’ भगवान के पसीने छूटने लगे।
‘अब मैं क्या बताऊं प्रभु?? आप तो खुद ज्ञानी हो! पर मेरी राय है कि कवियों को झेलने से बेहतर तो ये है कि…. ये सुनते तो किसीकी नहीं, बस सुनाते ही हैं।’
………और शाम को जब मैं मंदिर में आरती करने गया तो वहां पर बिल्डर के सौजन्य से उसीके द्वारा कवियों के स्वागत के लिए दरियां बिछती देख मैं हक्का बक्का रह गया। पगलाए से मैंने बिल्डर से पूछा,‘ यहां आज क्या हो रहा है?’ तो वह हंसता हुआ बोला,‘ रात भर कवि गोष्ठी !’
‘कहीं और करवा लेते। भगवान वैसे ही आजकल सहन करने से अधिक परेशान चल रहे हैं।’
‘ नहीं! आज तो यहीं कवि लोग अपना कमाल दिखाएंगे।’ वे भक्तों के तंग करने पर अक्सर जहां – जहां हुआ करते थे मैं बावला होकर उन्हें वहां- वहां ढूंढने लगा तो वहां मिले ही नहीं। फिर सोचा, शायद वे मंदिर के किसी अंधेरे कोने- वोने में कवियों की कविताओं के डर से दुबके होंगे। पर जब मंदिर का हर छोछा- बड़ा कोना- कोना छान मारा और वे कहीं नहीं मिले तो मुझे परेशान देख बिल्डर ने मुस्कराते मुझसे पूछा,‘ किसे ढूंढ रहे हो?’
‘ भगवान को!’
‘मिले क्या?’ उसने अपने होंठों पर जीभ फेरते पूछने के बाद मुस्कराते कहा , अब तो मुझे जमीन गड़पने का अहिंसात्मक नुस्खा मिल गया। देखना, शहर में मॉल ही मॉल बना दूं तो ……. मेरा नाम भी…..
आदरणीय मधुसूदन जी,
प्रवक्ता के माध्यम से आपसे मिलता ही रहता हूं. आपको रचना अच्छी लगी, बहुत बहुत आभार.
नमस्कार अशोक जी—स्मरण होगा, सोलन, हिमाचल प्रदेश में आप से भेंट हुयी थी।
डॉ. राजेश कपूर जी ने गोष्ठी आयोजित की थीं।
बहुत सुंदर व्यंग्य रचना। बधाई।
शिवेंद्र जी की टिप्पणी ने ध्यान दिलाया।
धन्यवाद।
धन्यवाद डाक्टर साहब।
सादर,
शिवेंद्र मोहन सिंह
धन्यवाद शिवेंद्र मोहन जी.
हा हा हा बहुत सुन्दर हास्य व्यंग। वर्तमान की येन केन प्रकारेण जमीन कब्जाओ नीति पर करारा व्यंग।
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सादर,
शिवेंद्र मोहन सिंह
धन्यवाद शिेवेंद्र जी.