हल्की फूंक से ही कांपने लगते हैं वामपंथी / विजय कुमार

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विजय कुमार

संघप्रेरित विचार मंच (Think tank) ‘भारत नीति प्रतिष्ठान’ (India policy foundation) का मुख्यालय दिल्ली में है तथा इसका संचालन दिल्ली वि0वि0 में प्राध्यापक प्रो0 राकेश सिन्हा करते हैं। यह संस्था विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श के लिए प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों को बुलाती रहती है।

पिछले दिनों समान्तर सिनेमा पर आयोजित एक गोष्ठी में वामपंथी लेखक मंगलेश डबराल मुख्य वक्ता थे। इससे वामपंथी खेमे में हड़कंप मच गया। लोग मंगलेश जी पर चढ़ बैठे। डर कर उन्हें लिखित में क्षमा मांगनी पड़ी। जनसत्ता के सम्पादक श्री ओम थानवी ने 29.4.12 को अपने स्तम्भ ‘अनन्तर’ में एक-दूसरे की संस्थाओं में जाने का समर्थन करते हुए इस पर बहस आमन्त्रित की। दुर्भाग्यवश यह बहस मूल विषय से हटकर वामपंथी लेखकों द्वारा परस्पर छीछालेदर करने का मंच बन गयी।

वस्तुतः वामपंथी बुद्धिजीवियों के संघ विचार की किसी संस्था में जाने पर हंगामा स्वाभाविक है। क्योंकि ये लोग जहां खड़े हैं, वहां न विचार है और न विश्वास। यदि कुछ है, तो वह है प्रसिद्धि, नौकरी, पुरस्कार या विदेश यात्रा आदि का लालच। दूसरी ओर धरातल पक्का होने के कारण संघ वाले निःसंकोच अपने विरोधियों के कार्यक्रमों में जाते और उन्हें अपने मंचों पर बुलाते हैं। इससे उनकी विश्वसनीयता संघ में कम नहीं होती। यद्यपि उन विरोधी महोदय पर उनके ही साथी थू-थू करने लगते हैं। कुछ उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।

चार-पांच वर्ष पूर्व डा0 प्रवीण तोगड़िया दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में एक मुस्लिम संस्था के आमन्त्रण पर उनकी सभा में गये थे। वहां वे उसी शैली में बोले, जिसके लिए वे प्रसिद्ध हैं। नवम्बर 2011 में निवर्तमान सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी अपने लखनऊ प्रवास के दौरान शिया नेता कल्बे जब्बाद के घर गये थे। इससे कल्बे जब्बाद पर शक की उंगलियां उठीं, सुदर्शन जी पर नहीं।

संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री इन्द्रेश कुमार जी ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के संस्थापक व मार्गदर्शक हैं। वे प्रायः मुसलमानों के घरों में जाते, खाते और रहते भी हैं। इन्द्रेश जी को तो नहीं; पर इस संस्था से जुड़े मुसलमानों को उनके समाज में धिक्कारा जाता है। मुंबई के प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार ‘पद्मश्री’ मुज्जफर हुसेन निष्ठावान मुसलमान हैं; पर संघ के कार्यक्रमों में जाने के कारण मुस्लिम संस्थाएं उन्हें अपने यहां नहीं बुलातीं।

जनता शासन (1977-78) में दिल्ली की जामा मस्जिद के तत्कालीन इमाम बुखारी श्री बालासाहब देवरस से मिलने दिल्ली के झंडेवाला कार्यालय में गये थे। नमाज का समय होने पर उन्होंने जाना चाहा, तो बालासाहब ने उनसे वहीं नमाज पढ़ने को कहा, जिससे कुछ और वार्ता हो सके। श्री बुखारी ने वहां नमाज पढ़ी। किसी संघ वाले ने इसके लिए बालासाहब को बुरा-भला नहीं कहा। इन्हीं दिनों जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री चंद्रशेखर की नागपुर में बालासाहब से लम्बी वार्ता हुई थी। इससे चंद्रशेखर को आलोचना सहनी पड़ी, बालासाहब को नहीं।

1978 में दिल्ली में विद्या भारती द्वारा आयोजित 25,000 बच्चों के शिविर ‘बाल संगम’ के समापन समारोह में मंच पर बालासाहब के साथ उपप्रधानमंत्री जगजीवन राम भी उपस्थित हुए थे। शिविर का उद्घाटन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी ने किया था। प्रख्यात अर्थशास्त्री और किसी समय के कार्डधारी कम्युनिस्ट श्री बोकारे संघ की एक सभा में नागपुर आये थे, जिसके मंच पर श्री रज्जू भैया, सुदर्शन जी, दत्तोपंत ठेंगड़ी आदि उपस्थित थे। यह दृश्य इन आंखों ने भी देखा है। 1983 में पुणे में ‘सेमिनरी’ नामक ईसाई संस्था द्वारा ‘भारत में ईसाइयों का स्थान’ विषय पर आयोजित गोष्ठी में संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्रीपति शास्त्री भी आमन्त्रित थे। उन्होंने वहां मिशनरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण की प्रखर आलोचना की। उस भाषण को संघ वालों ने प्रकाशित भी किया।

आपातकाल में जेल में संघ वालों के साथ सब तरह के लोग थे। मेरठ जेल में हमारे साथ रह रहे मुसलमान और नक्सली कहते थे कि हम तो संघ वालों को राक्षस समझते थे; पर सबके दुख-सुख में सबसे अधिक तो आप ही शामिल होते हैं। इसीलिए आपातकाल के बाद संघ के सार्वजनिक कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में मुसलमान आते थे; पर बाद में राजनीतिक कारणों से यह बंद हो गया।

भाऊराव देवरस सेवा न्यास, लखनऊ के मंच पर श्री नारायण दत्त तिवारी और शिवराज पाटिल सादर बुलाये गये हैं। अन्ना हजारे को इस न्यास ने तथा बड़ा बाजार कुमार सभा, कोलकाता ने सम्मानित भी किया है। जिस भारत नीति प्रतिष्ठान के कारण यह बहस चली है, वहां अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी गये हैं।

सरस्वती शिशु मंदिरों में हजारों मुसलमान बच्चे पढ़ते हैं। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र आदि के वनक्षेत्रों में संघ, विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम आदि के हजारों विद्यालय चल रहे हैं। इनके अध्यापकों का नक्सली भी सम्मान करते हैं।

संघ वाले अपने विरोधियों को भी आदर देते हैं; पर त्रिलोचन, गिरिलाल जैन, निर्मल वर्मा आदि का वामपंथियों ने क्या हाल किया ? तरुण विजय ने जनसत्ता में ही लिखा था कि वे हर 25 दिसम्बर को चर्च जाते हैं। तरुण विजय आज भी संघ में प्रतिष्ठित हैं; पर क्या कोई ईसाई, मुसलमान या वामपंथी नेता मंदिर जाने की बात कहकर अपनी लाज बचा सकता है ? पांचजन्य ने ही एक बार हज यात्रा का चित्र मुखपृष्ठ पर छापकर उस बारे में भरपूर सामग्री दी थी। क्या कोई वामपंथी पत्र अमरनाथ यात्रा पर सामग्री दे सकता है ?

प्रयाग वि0वि0 में पढ़ाते समय प्रो0 राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) लाल बहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तम दास टंडन, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे कांग्रेसियों से प्रायः मिलते थे; लेकिन उन पर किसी ने संदेह नहीं किया। आगे चलकर वे सरसंघचालक बने। दूसरी ओर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा 5.5.12 को दिल्ली में हुई मुख्यमंत्री बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से हाथ मिलाने मात्र से नीतीश की उनके दल में ही आलोचना होने लगी है।

श्री मोहन भागवत ने सरसंघचालक बनने के तुरंत बाद नागपुर में दीक्षा भूमि जाकर ‘भारत रत्न’ डा0 भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमा पर पुष्पार्पण किये। संघ वाले प्रायः वहां जाते रहते हैं; पर कोई कांग्रेसी या वामपंथी डा0 हेडगेवार स्मृति भवन गया हो, यह याद नहीं आता, जबकि संघ स्थापना से पूर्व डा0 हेडगेवार कांग्रेस में ही सक्रिय थे। कांग्रेस के शताब्दी वर्ष में प्रकाशित साहित्य में उनका आदर सहित वर्णन है।

संघ वालों के बड़े दिल का क्या कहना ? जनसत्ता के कार्टूनकार इरफान की प्रदर्शनी का उद्घाटन दिल्ली में श्री आडवानी ने किया, जबकि वे मोदी, आडवानी और संघ वालों को प्रायः राक्षस जैसा दिखाते हैं। प्रभाष जोशी ने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने पर भैरोंसिंह शेखावत की आलोचना की थी; पर वही श्री शेखावत कुछ दिन बाद प्रभाष जी की पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में आये। वर्ष 2006-07 में ‘सहारा समय’ द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता का पुरस्कार वितरण भी उपराष्ट्रपति श्री शेखावत ने किया था, जबकि अधिकांश पुरस्कृत कहानियों का स्वर हिन्दुत्व एवं अयोध्या आंदोलन विरोधी था। क्या ऐसा बड़ा दिल किसी वामपंथी के पास है ?

विश्व हिन्दू परिषद के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय के पीछे चर्च है। वहां होने वाले कार्यक्रमों से वि.हि.प को कभी परेशानी नहीं हुई; पर क्या किसी मस्जिद या चर्च के पास शाखा लगाना संभव है ? जे.एन.यू में तो संघ के कार्यक्रम से ही वामपंथियों के पेट में मरोड़ उठने लगते हैं। वामपंथी पत्र अपने विचार से इतर लेखकों को छापना तो दूर, तथ्यहीन लेखों का खंडन करने वाली सप्रमाण टिप्पणियों को भी रद्दी में डाल देते हैं। जबकि संघ विचार के पत्रों में विरोधियों के लेख व टिप्पणियों को सहर्ष स्थान दिया जाता है।

भारत में वामपंथियों की वर्णसंकर प्रजाति कुछ विशेष ही है। इसलिए अपने विरोधी की बात तो छोड़िये, वे दूसरी तरह के वामपंथी को भी सहन नहीं कर पाते। भारत में वामपंथी कितने खेमों और दलों में बंटे हैं, इसे गूगल बाबा भी नहीं बता सकते।

बंगाल और केरल में पिटने के बाद माकपा की केरल कांग्रेस में शायद पहली बार भाकपा से ए.बी.वर्धन साहब को बुलाया गया; पर भाजपा ने 20 साल पहले मुंबई अधिवेशन में जार्ज फर्नांडीज को सहर्ष बुलाया था। संघ, जनसंघ या भाजपा छोड़ने वालों से कभी दुर्व्यवहार नहीं हुआ। वसंतराव ओक और पीताम्बर दास जी आदि तो चले गये; पर बलराज मधोक, कल्याण सिंह या शंकर सिंह वाघेला आज भी इसके प्रमाण हैं। दूसरी ओर वामपंथ छोड़ने वाले हजारों लोगों की केरल और बंगाल में निर्मम हत्याएं की गयी हैं। अब तो इसे केरल के एक कम्युनिस्ट नेता एम.एम मणि ही स्वीकार कर चुके हैं।

आपातकाल के दौरान मेरठ जेल में नक्सलियों ने दीवार पर लिखा था, ‘‘अत्यधिक घृणा हमारे काम का आधार है।’’ (Extreme hatred is the basis of our work.) स्वयंसेवकों ने उसके नीचे लिखा, ‘‘शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है।’’ ये दो पंक्तियां संघ और वामपंथियों के पूरे दर्शन को स्पष्ट कर देती हैं।

संघ की शाखा और संघ विचार के संगठनों में सब तरह के लोग आये हैं। गांधी जी, क.मा.मुनशी, वी.वी.गिरी, इंदिरा गांधी, डा. कलाम, करुणानिद्दि, ज्योति बसु, हरेकृष्ण कोनार, मोरारजी भाई, वेंकटरामन, जयप्रकाश जी, दिग्विजय सिंह, रामनरेश यादव, देवेगोड़ा, खुशवंत सिंह, बलराम जाखड़ आदि में से अधिकांश की तारीखें उपलब्ध हैं।

ऐसे उदाहरण सैकड़ों नहीं हजारों हैं; पर संघ वाले इसे गाते नहीं हैं। क्योंकि संघ का उद्देश्य राजनीति करना नहीं, अपितु हर पंथ, वर्ग, जाति, क्षेत्र तथा विचार के व्यक्ति को अपने साथ जोड़ना है। इसलिए संघ वाले कहीं भी जाने तथा किसी को भी बुलाने से नहीं डरते। जबकि वामपंथी छोटे दिल, संकुचित दिमाग और कच्ची जमीन पर खड़े रीढ़विहीन लोग हैं, जो हल्की फूंक से ही कांपने लगते हैं। इसमें दोष उनका नहीं, खोखले और कालबाह्य हो चुके विचार का है।

9 COMMENTS

  1. भारत मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कोम्मुनिस्ट आन्दोलन लगभग साथ साथ ही प्रारंभ हुए थे.संघ एक खंडहर से प्रारंभ हुआ था और कोमुनिष्ट आन्दोलन के पीछे बोल्शेविक क्रांति के पश्चात् का पूरा मॉडल खड़ा था जाहिर है अंतर्राष्ट्रीय सफलता की एक शक्ति उसके पीछे थी.लेकिन आज हम देखें मार्क्सवाद खंडहर होने की ओर अग्रसर है.और इसका कारण भी आपने स्पष्ट कर ही दिया है.लेकिन दूसरी ओर देखें तो संघ को मिटाने का प्रयास हर स्तर पर किया गया.जवाहर लाल नेहरु ने तो संघ को मिटने की कसमे खाई थी.नेहरु ने कहा था इस देश में एक इंच जमीन भी भगवा ध्वज लहराने के लिए नहीं छोडूंगा.देश की सभी समान शक्तियों को साथ लेकर इस कोम्मुनल संघ को नष्ट कर दूंगा और इस देश की शक्तियों से ये संभव नहीं हो पाया तो अन्य देशों की शक्तियों को साथ लेकर इसे समाप्त करूंगा.लेकिन परिणाम सभी के सामने है.विजय जी आप अथवा राकेश जी जो कार्य कर रहे हैं वो सफल होना ही है .स्वामी विवेकानंद जी ने भी कहा था कोई भी श्रेष्ठ कार्य जब प्रारंभ होता है तो पहले उसका उपहास होता है फिर उसके बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर विरोध और अंत में उस कार्य को स्वीकार करने के आलावा विरोधियों के पास कोई उपाय नहीं रह जाता है और फिर श्री गुरूजी ने कहा ही है विजय निश्चित है …………

  2. भाई ये ‘कंपनी डिफेक्ट’ है. कभी-कभी लगता है की वामपंथ वैचारिक दिवालियेपन के कगार पर पहुंचकर भावनात्मक रूप से खुद को बहुत असुरक्षित मानता है.

  3. राकेश सिन्हा ने ऐतिहासिक बहस की शुरुआत की है. उनके द्वारा उठाये गए सवालो का जवाब वामपंथ के पास नहीं है. एक विश्विद्यालय के टॉपर से जो प्रश्न पूछ गया वह सचमुच में वैचारिक असंतुलन का प्रमाण है. मैंने राकेश सिन्हा का एक पोस्ट पढ़ा था. जब वे टॉप किये तो वामपंथी संगठनो ने पोस्टर लगाये की आर एस एस ने उन्हें टॉप करा दिया . राकेश सिन्हा ने अपने मार्कशीट पर जिन शिक्षको ने मार्क्स दिए उनका नाम लिखकर लगा दिया . सभी मार्क्सवादी शिक्षको ने उन्हें सत्तर से अधिक मार्क्स दिए और एक आर एस एस के शंखधर थे जिन्होंने उन्हें छप्पन नम्बर दिए ! मार्क्सवादियो को जवाब मिल गया था. हम सब को इनकी लेखनी और टी वी चानेल पर व्यक्तव्य पर अभिमान है. सबसे अछि बात राकेश सिन्हा द्वारा जब ईमानदारी और निष्ठां पर जोड़ दिया जाता है अच्छा लगता है और यही कुछ लोगो को ख़राब भी लगता है.

  4. ‘वामपंथ अर्थात मेहनतकशों की विचारधारा’ पर और उसके अनन्य ऋषि तुल्य तपोनिष्ठ बलिदानी कार्यकर्ताओं पर इस तरह का विष वमन कोई अधम गटर का जहरीला कीड़ा ही कर सकता है. कोई मानवीय सम्वेदनाओं से लबालब और इंसानियत से महकता व्यक्तित्व इस तरह की घटिया शब्दाबली का इस्तेमाल नहीं कर सकता. यह आलेख किसी तरह से भी प्रवक्ता .कॉम पर प्रकाशन के योग्य नहीं था.शायद सम्पादक महोदयजी की व्यस्तता के परिणामस्वरूप इस वाहियात और गैरजिम्मेदाराना बकवास को आलेख के रूप में जगह प्राप्त हुई या फिर किसी वैचारिक प्रतिब्ध्धता का मानदेय देकर , वामपंथ पर अनर्गल आर्तनाद का अवसर प्रदान किया गया.

  5. यु. के. की प्रधान मंत्री, हिन्दु स्वयमसेवक संघके (वर्ष प्रतिपदा?) के उत्सव पर शाखा में गयी, और वहां आपने स्वयंसेवकों की सराहना की।
    और कहा कि, हम अन्य देशवासियों को कहते हैं, कि आप इस संस्कृति में घुल मिल जाओ।(melt in the melting pot ) पर आपको ऐसा नहीं कहूंगी। आप अपनी भाइचारा बढाने वाली संस्कृति को, आपके सहपाठियों में भी फैलाओ।
    वहां के ५ बरो में १ बरो, जहां हिन्दु बहुल क्षेत्र है, वहां का युवा क्राइम रेट न्यूनतम था। यह, वहां के पुलिस विभाग ने इसका कारण, बहु संख्य हिन्दु ओं की जीवन पद्धति और स्वस्थ परिवार बताया था। ऐसा जान पडने पर, मार्गारेट थॅचर वर्षप्रतिपदा पर सहर्ष पहुंची और भाषण किया।
    एक यु के के कार्यकर्ता से मैं ने यह घटना सुनी है।

  6. विजय जी को इतने अच्छे लेख के लिए साधुवाद.कृपया अगले किसी लेख में उन सभी महानुभावों के संघ में जाने की तिथि व स्थान सहित सूचि देने का कष्ट करें जिनका उल्लेख इस लेख में किया गया है. इसमें कुछ प्रमुख नाम और जोड़े जा सकते हैं जैसे आपातकाल में देश के गृह राज्य मंत्री रहे ओम मेहता, वरिष्ट कंग्रेस्सी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री वसंत साठे, इसके आलावा भी अनगिनत कांग्रेसी नेता संघ के साथ किसी न किसी ढंग से संपर्क करते रहे हैं. पिछले दिनों मध्य प्रदेश के एक बड़े कांग्रेसी नेता ने संघ के एक वरिष्ट प्रचारक से कहा की “हम तो जुबान नहीं खोल सकते हैं, लेकिन सोनिया जी के द्वारा केवल ईसाई नेताओं को ही बढ़ावा दिया जा रहा है और देश को ईसाईकरण की और धकेला जा रहा है.”उस बड़े नेता का अहित न हो इसलिए उनका नाम नहीं खोल रहा हूँ.

  7. अत्यन्त सुन्दर और तथ्यपरक लेख है। कम्युनिस्ट दरवाजे और खिड़कियां बंद करके रहते हैं। उनमें कहां साहस है कि अपने विरोधी विचार को सुनें। पूरी दुनिया के कम्म्युनिस्ट असहिष्णु और अल्पज्ञ होते हैं।

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