सोशल नेटवर्किंग बनाम सेक्स नेटवर्किंग

 डॉ. मनोज चतुर्वेदी

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह समाज के लिए जीता व मरता है। यदि वह समाज से अलग हो तो या वह देवता होगा या तो दानव होगा, लेकिन जब वह समाज में फ्रेंड्शिप के बहाने सेक्स, जनप्रवाद, अपशब्दों का मायाजाल फैलाए तो गोयबल्स की श्रेणी में आ जाता है। वह समाजिक प्राणी न होकर पशु बन जाता है। भारत ने भी तथा भारतीय संस्कृति ने तो संपूर्ण वसुधा को ही अपना कुटुंब माना है तथा संपूर्ण विश्व में जहां भी भय, अवसाद, दूख, हिंसा का रूप दिखाई पड़ता है। संपूर्ण विश्व की नजरें भारत भूमि की तरह झुक जाती हैं। उसके सोशल नेटवर्किंग के विशाल दायरे में आ जाता है।

हां, तो साहब बात आज के सोशल नेटवर्किंग साइट्स की हो रही है। यद्यपि आज समाजिक जीवन के हरेक क्षेत्रों के लोग इसका प्रयोग करने लगे हैं, पर यह युवाओं में अधिक लोकिप्रय हुआ है। दिनरात ओर्कूत, फेसबुक एवं टि्वटर पर गेंडुली मारे युवा ऐसे युवतियों के चक्कर में रहते हैं जिससे तो वे पहले मिठीमिठी बातें करते है जो समय कॅरियर के संवारने में लगना चाहिए वो समय मित्रता के दायरा बढ़ाने में लगाते है। यदि यह मित्रता शुद्ध प्रेम तक केंद्रित हो तो ठीक है पर जब यह उन्मुक्त यौन संबंधों के तरफ बढ़ने लगे तो ये साइट्स वरदान के स्थान पर अभिशाप बन जाते हैं। तमाम सर्वे के अनुसार सोशल नेटवर्किंग से जुड़े युवकोंयुवतियों में से 5 लड़कियों में से 4 तथा 5 लड़कों में से 3 अपने सोशल नेटवर्किंग फ़्रेंड्स के साथ अत्यल्प समय में सेक्स के तरफ पहुंच गए। लेकिन समान्य समाज में इस प्रकार के सेक्स का स्थान न के बराबर है।

यद्यपि इन साईटों के कारण तलाक, मनमुटाव तथा झगड़ों की संखया में इजाफा हुआ है। यह इसलिए कि जोड़े एक दूसरे के मित्रता को शंका भरी नजरों से देखते हैं। कई बार तो यहां मारपिट की नौबत भी आ जाती हैं। पतिपत्नी एक दूसरे के चरित्र पर छिटाकशी करने लगते हैं। दांपत्य जीवन पर एम. फिल. करने वाले राकेश का कहना है, वैवाहिक जीवन में उक्त संबंधों के मजबुती के लिए सोशल साइट्स का प्रयोग जितना सीमित होगा। उतना ही वैवाहिक संबंध सुदृढ़ होगा।

गूगल टॉक और याहू टॉक के माध्यम से सेक्स की तरफ बढ्ने वाले रमेश यादव का कहना है कि एक मित्र ने कहा कि रमेश ओर्कूत, फेसबुक और टि्वटर जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स के द्वारा लड़केलड़कियां मनचाहा दोस्त प्राप्त कर सकते हैं। यदि वे चाहे तो इसको स्थायी रूप दे सकते हैं तथा रोमांस तक भी रख सकते हैं। मैं इससे अत्याधिक प्रभावित हुआ जब कुछ दिनों के चैट में मैंने एक लड़की के साथ सेक्स का प्रस्ताव रखा तो वो नानुकूर करने के बाद रास्ते पर आ ही गई। हम दो युवा दिलों के बीच सेक्स हॉटटॉपिक हुआ करता था। लेकिन हम दोनों ने आपस में यह समझौता किया कि हमारा सेक्सुअल संबंध तो रहेगा पर इसको हम विवाह में नही बदलेंगेऔर वर्षों तक हमारा संबंध है तथा रहेगा भी।

एक छात्र रोहित का कहना है कि मैं एक ऐसी लड़की को खोज रहा था जो सुंदर, शिक्षित, कामकाजी, वक्तृत्व कला में निपुण, सोसलाइट, लेखन कला मे दक्ष तथा शोध मानसिकता की हो। जिसके साथ वैचारिक तालमेल हो तथा फ्लर्ट किया जा सके। मैंने उसे आनलाइन सर्च किया तथा वो मिल गई। हमने उसके समक्ष सेक्स का प्रस्ताव रखा और वो मान गई।

यद्यपि बहुत से युवा इसके माध्यम से वैवाहिक संबंधों तक भी पहुंच जाते हैं। एक कामकाजी महिला उर्मिला सिंह का कहना है, मैं अपने पति पुरुषोत्तम से सोशल साइट से जुड़ी लेकिन ज्योंही हमें आभास हुआ कि हम जीवनसाथी बन सकते है। हमने यह प्रस्ताव अपने परिजनों के साथ रखा तथा हमारा गृहस्थ जीवन सोशल नेटवर्किंग मित्रता से चलते हुए जीवनसाथी के रूप में बदल गया।

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के भूतपूर्व प्रोफेसर तथा समाजशास्त्री प्रो. राजेन्द्र प्रसाद जायसवाल का कहना है, यद्यपि सोशल नेटवर्किंग साइट्स के महत्व को नकारा नही जा सकता है, क्योंकि इन्हीं साइटों के माध्यम से शशि थरूर, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, प्रियंका चोपड़ा, कटरीना कैफ, नीतिश कुमार, जननायक लालकृष्ण आडवाणी तथा अन्य प्रमुख हस्तियां अपने विचारों को जनसामान्य तक पहुंचा रही है जिससे एक संदेश या समाचार समाज को मिल रहा है। लेकिन युवा पी़ढ़ी भी कुछ जल्दी में है। इसे विचार करना चाहिए। आप देखेंगे पाकिस्तान जैसे कट्टर इस्लामी देश में भी युवा जोड़े मित्रता के पथ पर चलते हुए प्रेमविवाह कर रहे हैं। इसका कुछ सकारात्मक पक्ष है तो नकारात्मक भी।

भूमनडलीकृत अर्थव्यवस्था में हरेक व्यक्ति की चाह बढ़ती जा रही है क्योंकि आज के युवाओं के आदर्श राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, स्वामी विवेकानंद, गत सिंह, दयानंद सरस्वती, गुरु अर्जुन देव इत्यादि महान व्यक्तित्व न होकर धूमल सिंह, रामा सिंह, तस्लीमुद्दीन, दाऊद इब॔हिम, सलमान खान, ऐश्वर्या राय, प्रियंका चोपड़ा, कटरीना कैफ, आयटम गर्ल राखी सावंत, विपासा बसु, मल्लिका शहरावत, महम्मद शहाबुद्दीन और सुाष ठाकुर हैं। ये सी तत्व राष्ट्र के निर्माता न होकर समाज के विध्वंशक हैं। जिन्होंने भारतीय युवाओं को पथभ्रस्ट किया है। अतः जरूरी है कि आज के यंगस्टर्स भारतीय जीवनमूल्यों के तरफ मुड़े। जिससे शहीदों के स्वप्न को साकार किया जा सके।

5 COMMENTS

  1. श्री त्यागीजी के विचारों से कोई असहमत नहीं हो सकता. क्योंकि बुजुर्गों का सम्मान, अपनी संस्कृति से प्यार और सच्चाई को मान देना हर कोई स्वीकार करेगा. झूठ तो लोग पहले भी बोलते ही थे फिर इसे केवल आज की युवा पीढ़ी के माथे पर क्यों मढ़ा जाये? देखा जाये तो आज की पीढ़ी हमसे ज्यादा इमानदार और सच्ची है. बस थोडा ब्लंट है. अभी साड़ी दुनिया ने देखा और देख रही है की किस प्रकार अन्ना हजारे के अनशन को समर्थन देने और उनकी गिरफ़्तारी का विरोध करने कितनी बड़ी संख्या में नौजवान और विद्यार्थी पूरी-२ रात तिहाड़ जेल पर डटे रहे हैं और पूरे देश में इस आन्दोलन को स्वतः स्फूर्त रूप से आगे बढ़ा रहे हैं. तो भाई त्यागी जी कुछ विचारों के अंतर के बावजूद युवाओं को नकारो मत. बस उनके उत्साह को एक रचनात्मक दिशा देदो. मेरा वायदा है आप को निराश नहीं होना पड़ेगा.

  2. यह सब समय का फेर है.. जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होंता है…. कलयुग इसी का नाम है….

    क्यों है न??

    नमस्कार

  3. वाह अनिलजी क्या बात कही है…बशर्ते आप भी इस पर अमल करते हों ..पर मुझे तो व्यक्तिगत रूप से पुराना ज़माना ही श्रेष्ठ लगता है जिसमे दूसरों और अपने से बड़ो के लिए आदर, अपनी संस्कृति से प्यार और सच्चाई थी.. झूंठ बोलना पाप कहा जाता था… पर आज तो …झूंठ बोले बिना शायद ही कोई काम होता हो..बड़ों के थप्पर मारने में आज कोई हिचक नहीं करता… अध्यापक का अपमान करना कोई शर्म का काम नहीं है…छोटे तंग और दिखाऊ भोंडे कपडे पहनना लड़कियों के लिए स्टेटस सिम्बल और पढ़े लिखे होने का सर्टिफिकेट है.. १०-१२ वर्ष की उम्र में सेक्स एवं गर्भपात आम बात होती जा रही है.. हमारे नैतिक मूल्यों का तेजी से पतन हो रहा है…पश्चिम की सभ्यता का असर दिख रहा है … जब की पश्चिमी देश हमारी संस्कृति को श्रेष्ठ बता उसका अनुसरण करते हैं…

    आज कारगिल दिवस को भुला हम हीना के कपड़ों बैग और चश्मे की चर्चा करना पसंद करते हैं…अपने बच्चों को राष्ट्र गीत याद कराएँ या नहीं … “शीला की जवानी” एवं “मुन्नी बदनाम हुई” गानों पर डांस ज़रूर करवाते हैं… कहाँ आ गए हैं हम…..हिंदी दिवस के दिन इंग्लिश में हिंदी पर भाषण देते हैं हम…सरकारी ऑफिस में यदा कदा ही हिंदी भाषा के दर्शन हो जाते हैं…..और क्या लिखूं… आप सब जानते हैं…

  4. यह कुछ हद तक सही है की आज के युवा के आदर्श विवेकानंद,दयानंद, रामधारी सिंह दिनकर या मैथिलीशरण गुप्ता नहीं हैं लेकिन उनके आदर्श धूमल सिंह,राम सिंह, दवूद इब्राहीम, तस्लीमुद्दीन, सलमान खान, ऐश्वर्या राय ,प्रियंका चोपड़ा, कटरीना कैफ, मल्लिका सहरावत,बिपाशा बासु, मोहम्मद शाहबुद्दीन, सुभाष ठाकुर और आइटम गर्ल राखी सावंत भी आज के युवा के आदर्श नहीं हैं. हाँ थोड़ी देर के मनोरंजन के लिए उनके बारे में चर्चा करना उन्हें आदर्श मानने के बराबर नहीं है.आज के युवा के आदर्श आइन्स्टीन, डॉ. खुराना,सचिन तेंदुलकर, अभिनव बिंद्रा अदि हैं जिन्होंने आज के ज़माने में कुछ हासिल करके अपने को साबित किया है.हाँ यदि शिक्षा के माध्यम से उन्हें देश के महँ सपूतों के बारे में बताया गया होता तो शायद वो भी उनके आदर्श होते. हर काल के अपने आदर्श होते हैं. मुझे याद है साठ के दशक के अंतिम चरण में देश के नौजवान बेल बाटम पेंट व कुत्ते के कान जैसे कालर की कमीज पहनते थे. वाही उस समय का फैशन था. हम भी ऐसे ही कपडे पहनते थे. हमारे एक मार्गदर्शक प्रोफ. थे जो संघ के वरिष्ट कार्यकर्ता तथा प्रचारक श्रेणी के थे. वो अक्सर हमें कपड़ों के लिए टोकते थे. लेकिन हम हंसकर टाल देते थे.उन्ही दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह पूज्य बालासाहेब देवरस जी का एक इंटरव्यू दैनिक हिंदुस्तान में छपा जिसमे उनसे हिप्पी कल्ट के बारे में और युवकों की ड्रेस के बारे में सवाल किया गया. पूज्य देवरस जी ने स्पष्ट कहा की चौड़ी मोरी की बेल बाटम पहनने से या लम्बे बाल रखने से या चौड़े कालर की कमीज पहनने से युवा पीढ़ी को कंडम नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ये केवल समय समय पर बदलने वाले फेशन का असर है इससे अधिक कुछ नहीं.आखिर वो हिप्पी कल्ट वाले जवान ही तो फ़ौज में जाकर देश के लिए अपने प्राणों की बजी लगाते हैं. ये इंटरव्यू पढने के बाद उन संघ के अधिकारी महोदय द्वारा फिर मेरे ड्रेस पर कमेन्ट नहीं किया गया.आज का युवक भी पहले से अधिक जानकारी रखता है. और जिम्मेदार भी है. बस केवल उसका ओरियंटेशन हमारी पीढ़ी से भिन्न है. पहले लड़कियां घर की चारदीवारी से बहार नहीं जाती थीं जबकि आज ज्यादातर लड़कयाँ केरियर के लिए जागरूक हैं और घर से बाहर निकल रही हैं.यदि वो आसानी से सेक्स सम्बन्ध के लिए राजी हो रही हैं तो यह हमारी नेतिक अवधारणा से मेल नहीं खता है लेकिन संचार क्रांति के इस युग में इसको पूरी तरह से नाकारा नहीं जा सकता. जब टीवी और इंटरनेट पर हर चीज खुले आम दिखाई जा रही हो तो कहाँ तक आप पुरानी नेतिक अव्धार्नाओं को लागू कर पाएंगे. हाँ घरों में यदि बच्चों को उचित नेतिक व व्यावहारिक शिक्षा (सेक्स शिक्षा भी) दी जाये तो कुछ हद तक प्राकृतिक शारीरिक मानसिक दबावों को सबलायिम करके संस्कृतिक मूल्यों को बचाया जा सकता है. लेकिंकेवल इस कारन से ही युवा पीढ़ी को नकारो मत. आखिर वाही तो भविष्य के नायक होंगे.रही बात युवाओं के बीच सेक्स सम्बन्ध की तो ये पहले भी होते थे. हाँ अब संख्या कुछ बढ़ गयी है. एक शिक्षा संसथान की मनोसलाह्कर ने बताया की उनके पास ज्यादातर छात्र सेक्स सम्बन्धी वर्जनाओं से उत्पन्न कुंठाओं व तनावों की समस्या लेकर आते हैं.मनोचिकित्सकों का भी ये मानना है की विपरीत लिंगीयों के बीच परस्पर आकर्षण होना स्वाभाविक है.हाँ उन्हें आलोचना किये बिना अन्य कार्यों में रचनात्मक दिशा में लगा देने से उनकी प्राकृतिक उर्जा संस्कृतिक दिशा में मुड सकती है.

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